19 जनवरी की वो तारीख जब कश्मीरी पण्डितों पर बरपा था कहर
नई दिल्ली: 19 जनवरी, ये वो तारीख है जिसे कश्मीरी पंडित किसी भयानक सपने की तरह याद करते हैं. कश्मीर से पंडितों के पलायन को 30 साल बीत गए लेकिन आज भी ये तारीख उनके दिलों में खौफ पैदा कर देती है. आज भी कश्मीर छोड़ चुके कश्मीरी पंडितों के ज़ेहन में उस त्रासदी की तस्वीरें जिंदा हैं. जनवरी के महीने में सैकड़ों निर्दोष कश्मीरी पंडितों को प्रताड़ित करके मौत के घाट उतार दिया गया और कई महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं भी सामने आईं.
19 जनवरी 1990 को कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार की इंतहां हो गई थी. इसी तारीख़ को कश्मीरी पंडितों के घर में फरमान चिपका दिया गया कि कश्मीर छोड़ दो वरना मारे जाओगे. 19 जनवरी 1990 को सबसे ज्यादा लोगों को कश्मीर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था. करीब 4 लाख लोग विस्थापित हुए थे. तब से अब तक कश्मीरी पंडित देश के अलग-अलग शहरों में रह रहे हैं. इस उम्मीद पर कि वो दिन आएगा जब वो अपने घर अपने कश्मीर लौट पाएंगे.
कश्मीरी पंडितों का 30 साल पुराना वो दर्द, वो ख़ौफ़ कश्मीरी पंडितों के जेहन में हैं. आज भी उनकी घर लौटने की तमन्ना है. 30 साल गुज़र गए. वक्त बदल गया. सरकारी आईं और बदल गईं. नहीं बदले तो कश्मीरी पंडितों के हालात. कश्मीरी पंडितों के दर्द पर कोई बात भी करने को तैयार नहीं है. लिहाज़ा कश्मीरी पंडितों के हालात पर 30 साल पहले 19 जनवरी को उस कयामत की रात पर बहस ज़रूरी है.
सवाल ये भी हैं:
1. कश्मीरी पंडितों की घर वापसी का सपना कब पूरा होगा?
2. 30 साल पहले हुए अत्याचार पर अब तक ख़ामोशी क्यों?
3. कश्मीरी पंडितों पर आज में बातचीत से परहेज़ क्यों?
4. अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रहने वाले कश्मीरी पंडितों का गुनाह क्या है?
5. हर सरकार वादे तो करती है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के हालात क्यों नहीं बदलते??
कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का सिलसिला 80 के दशक में ही शुरू हो गया था जब वर्ष 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए. खुद को सही ठहराने के लिए उन्होंने एक खतरनाक निर्णय लिया. ऐलान हुआ कि जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाह मस्जिद बनवाई जाएगी. तो लोगों ने प्रदर्शन किया. कि ये नहीं होगा. जवाब में कट्टरपंथियों ने नारा दे दिया कि इस्लाम खतरे में है. इसके बाद कश्मीरी पंडितों पर धावा बोल दिया गया. साउथ कश्मीर और सोपोर में सबसे ज्यादा हमले हुए. जोर इस बात पर रहता था कि प्रॉपर्टी लूट ली जाए. हत्यायें और रेप तो बाई-प्रोडक्ट के रूप में की जाती थीं.
जुलाई 1988 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बना. कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए. कश्मीरियत अब सिर्फ मुसलमानों की रह गई. पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया. 14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया. हत्यारे पकड़ में नहीं आए. ये कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी.
जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किए गए थे. क्यों? इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार के मुखिया फारुख अब्दुल्ला ने कभी नहीं दिया. नारे लगाए जाते थे- हम क्या चाहते हैं...आजादी. आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लाह. अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा. ऐ जालिमों, ऐ काफिरों, कश्मीर हमारा है. यहां क्या चलेगा? निजाम-ए-मुस्तफा रालिव, गालिव या चालिव. (हमारे साथ मिल जाओ, मरो या भाग जाओ).
कश्मीरी पंडितों के दिल में वो 30 साल पुरानी दहशत और उनके प्रति जिन्होंने उस रात उन पर अत्याचार किया अब भी गुस्सा बाकी है. चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, नहीं तो बुरा होगा. इसके बाद लोग लगातार हत्यायें और रेप करने लगे. कहते कि पंडितो, यहां से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ. एक आतंकवादी बिट्टा कराटे ने अकेले 20 लोगों की निर्मम हत्या की थी.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60 हजार परिवारों को जान बचाने के लिए कश्मीर छोड़ना पड़ा था. 19 जनवरी 1990 को सबसे ज्यादा लोगों ने कश्मीर छोड़ा था. लगभग 4 लाख लोग विस्थापित हुए थे. जान बचाने के लिए उन्हें आस-पास के राज्यों में जगह तो मिल गई. लेकिन 30 साल बाद आज भी वो अपने देश में शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं. देश की जनता को 30 साल पहले की उस ख़ौफ़नाक रात का इल्म है. कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार का अहसास है.