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उज्‍जैन के महाकाल वनक्षेत्र में हुई थी राहु-केतु की उत्‍पत्ति



जब कभी सूर्य और चंद्र ग्रहण की बात होती है तो राहु-केतु का जिक्र जरूर होता है, क्योंकि धर्मशास्त्रों में इन दोनों ग्रहों को सूर्य और चंद्र ग्रहण के लिए जिम्मेदार माना जाता है। राहु-केतु को ग्रह माना जाता है और इनका संबंध मानव जीवन की सफलता और असफलता से रहता है। स्कंद पुराण और श्रीमद भागवत पुराण में राहु-केतु के जन्म की कहानी का वर्णन किया गया है।

स्कंद पुराण में कथा
स्कंद पुराण के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत का वितरण उज्जैन के महाकाल वनक्षेत्र में किया गया था। भगवान विष्णु ने यहीं पर मोहिनी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत वितरित किया था। इस समय दैत्य स्वर्भानु भगवान विष्णु के इरादे भांपकर देवताओं की कतार में बैठ गया। दैत्य स्वर्भानु ने छल से अमृत लेकर उसको पी लिया था तभी पहचाने जाने पर श्रीहरी ने उसका सिर धडॉ से अलग कर दिया। अमृत के कारण उसके शरीर के दोनों भाग जीवित रहे। दैत्य स्वर्भानु का सर वाला भाग राहु और धड़ वाला भाग केतु कहलाया। चूंकि सूर्य और चंद्र ने भगवान विष्णु को दैत्य के छल से अमृत चखने की जानकारी दी थी इसलिए राहु-केतु उनसे बैर रखते हैं और उनको ग्रस लेते हैं, जिससे ग्रहण लगता है।

श्रीमद्भागवत पुराण की कथा
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी दनु से विप्रचित्ति नामक पुत्र का जन्म हुआ था। विप्रचित्ति का जन्म हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका से हुआ था। सिंहिका और विप्रचित्ति के पुत्र का नाम राहु था। सिंहिका का पुत्र होने की वजह से राहु का एक नाम सिंहिका था।

धर्मशास्त्रों के अनुसार राहु के अधिदेवता काल और प्रति अधिदेवता सर्प है। केतु का अधिदेवता चित्रगुप्त और प्रति अधिदेवता ब्रह्माजी हैं। राहु का दायां भाग काल और बायां भाग सांप है वास्तविकता में राहु और केतु सर्प ही है। कुंडली में यदि राहु-केतु की स्थिति उत्तम है तो जातक को सभी सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है और धन-दौलत मिलती है। इनकी स्थिति अशुभ होने पर मानव को मृत्यु तुल्य कष्ट की प्राप्ति होती है।]

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