पत्रकारिता विश्वविद्यालय का घटनाक्रम अफ़सोस नाक़ है
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रामाणिक शिक्षा देने वाले संस्थान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है । एक एक छात्र अपने विचारों को अपनी फेसबुक और सोशल मीडिया पर साझा करता है और उससे पहले वह यह नहीं सोचता कि उससे किसी की भावनाएं आहत हो सकती हैं तो फिर किसी शिक्षक को अपने विचार व्यक्त करने से छात्र कैसे रोक सकते हैं । क्या माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के छात्रों को शिक्षकों ने कभी मना किया कि वे सोशल मीडिया के मंचों पर अपने विचार व्यक्त न करें ?
दूसरी बात यह कि पत्रकारिता के दोनों शिक्षक मुकेश कुमार और दिलीप मंडल बरसों से पत्रकारिता और मीडिया शिक्षा के तमाम रूपों से जुड़े हुए हैं । दोनों के सोच की दिशाएं स्पष्ट हैं । फिर, वे पूर्णकालिक शिक्षक भी नहीं हैं । विश्वविद्यालय के अनुबंध पत्र में उन्हें कहीं भी सोशल मीडिया पर विचार प्रकट करने की बंदिश नहीं है । अगर छात्र स्वतंत्र हैं तो शिक्षक भी बंधे नहीं हैं ।
इस बीच इनमें से एक दिलीप मंडल ने खुलकर आरोप लगाया है कि इसके पीछे छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति पद के एक आवेदक का हाथ है जो इस विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं ।यह बेहद गंभीर आरोप है । चौबीस घंटे बाद भी इस आरोप पर उन पूर्व कुलपति ने अपना पक्ष नहीं रखा है तो हम उम्मीद करें कि वे अपना पक्ष प्रस्तुत करें । हालांकि एक पत्रकार के तौर पर उनकी ख्याति अच्छी ही रही है । लगता नहीं कि उन्होंने अशांति का कुचक्र रचा होगा । पर उन पर आरोप लगाने वाले भी सुदीर्घ पत्रकारिता का अनुभव रखते हैं । इसलिए इस आरोप को हल्के फुल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता । पूर्व कुलपति की इस आरोप पर चुप्पी उनकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाती । जिस परिसर के वे प्रथम पुरुष रह चुके हैं ,उस परिसर में हिंसा भड़काने का आपराधिक आरोप ही अपने आप में शर्मनाक है ।
मुझे इस विश्वविद्यालय के स्वप्नदृष्टा स्वर्गीय राजेंद्र माथुर के साथ साथ इसकी स्थापना के यज्ञ में वरिष्ठ पत्रकार विजय दत्त श्रीधर और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एल के जोशी के साथ अपनी आहुति देने का भी अवसर मिला है । इसमें पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा, सुंदर लाल पटवा, अर्जुन सिंह, मोती लाल वोरा, बाबूलाल गौर जैसे दोनों बड़ी पार्टियों के शिखर पुरुष शामिल थे । स्थापना के बाद 1991 से ही इसकी शैक्षणिक गतिविधियों से संबद्ध रहा हूं । इसलिए इस परिसर में ऐसी गतिविधियां दुख पहुंचाती हैं । अतीत की कुछ गलतियों के कारण पहले ही यह राष्ट्रीय पत्रकारिता संस्थान विराट आकार से एक बौनी यूनिवर्सिटी में तब्दील हो चुका है । इसे वापस उसी आकार में लाने और साख़ अर्जित करने में मौजूदा पेशेवर कुलपति दीपक तिवारी से हम लोग बड़ी अपेक्षाएं करते हैं ।
जांच दल अपना काम करे । निष्पक्ष रिपोर्ट दे ,लेकिन अभी तक दोनों क़दम मुझे ठीक नहीं लगे । दोनों प्राध्यापक वरिष्ठ पत्रकार हैं । अपराधी या राजनेता नहीं । परिसर में उनके प्रवेश पर पाबंदी कोई अच्छी परंपरा नहीं है । इसी तरह कुछ छात्रों ने अगर कुलपति कार्यालय के समक्ष उत्तेजना का प्रदर्शन किया तो निष्कासन जैसा दंड उचित नहीं है । परीक्षा से वंचित रखने का निर्णय भी क्रूर है । हम लोग भी कभी काॅलेज में पढ़ते थे । सच कहूं तो इन छात्रों के उपद्रव से कई गुना अधिक बड़ा आंदोलन भी करते थे। कभी कभी उसमें तोड़ फोड़ और हिंसा भी हो जाती थी । लेकिन किसी प्राचार्य और कुलपति ने उन्हें परीक्षाओं से नहीं रोका । वे कहते थे, हमारे ही बच्चे हैं । इस उमर में आंदोलन नहीं करेंगे तो क्या हमारी उमर में करेंगे । हो सकता है कि उन्हें भड़काया गया हो ।यह तथ्य तो पुलिस की विशेष जांच से ही पता चलेगा कि वाकई कुलपति कार्यालय के समक्ष हिंसा में परदे के पीछे कौन हैं अथवा यह एक आवेगी कदम था ।
मुझे याद आ रहा है कि 1995 या 96 में भी विश्वविद्यालय में एक छात्र आंदोलन हुआ था और उसका नेतृत्व तबके छात्र और आज मध्यप्रदेश के सूचना आयुक्त विजय मनोहर तिवारी ने किया था । वे सभी छात्र मेरे पास आए थे और मैंने उनके आंदोलन को समर्थन दिया था । उनकी मांगें जायज़ थीं । उसे आज तक पर दिखाया भी था । जोश और जवानी के साथ अगर विवेक भी शामिल हो तो परिणाम अच्छे निकलते हैं ।
विश्वविद्यालय के ऊर्जावान कुलपति से आशा है कि वे दोनों कदमों पर पुनर्विचार करेंगे । शिक्षकों को खोया सम्मान चाहिए और बच्चों को वापस क्लास रूम चाहिए । यही भावना यूनिवर्सिटी को आगे ले जाएगी ।