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मनुष्य जन्म की सार्थकता आराधना से- आचार्य नित्यसेन सूरिश्वरजी


 
उज्जैन। मनुष्य जन्म की सार्थकता आराधना से होती है। साधना से सिध्दि मिलती है तो हम प्रभु के पथ पर चलें और जीवन को सफल करें।
उक्त बात नमकमंडी स्थित पुण्यसम्राट प्रवचन मंडप में गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय नित्यसेनसुरीश्वरजी म.सा.’ ने अपने प्रवचनों के दौरान कही। श्रीसंघ अध्यक्ष मनीष कोठारी के अनुसार शुक्रवार को आचार्यश्री ने मंगलाचरण से प्रवचन की शुरुआत की। मुनिराज सिद्धरत्न विजयजी म.सा. ने कहा कि संसार में मारक तत्व बहुत हैं, सद्गुरू सिर्फ तारक तत्व हैं। जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं। उसमें समभाव रखें। वहीं दुख में दीन बनता है जो सुख में लीन बनता है। किसी भी दुख की अवस्था में प्रभु का स्मरण याद आता है पर सुख में हम भूल जाते हैं। जो सुख में भी प्रभु का स्मरण करते हैं वह दुख में हताश नहीं होते। शुभ विचारों से शुभ कर्मों का बंधन करता है और अशुभ विचारों से अशुभ कर्मों का बंधन करता है। ’जीवन में जब पुण्य दशा जागृत होती है तब जाकर सद्गुरु का सयोंग प्राप्त होता है। विनयपूर्वक किया गया वंदन हमारे कर्म बंधन तोड़ने में सहायक होता है। मुनिराज विद्वद्रत्न विजयजी म.सा. ने कहा कि जिनके पास ज्ञान दृष्टि होती है। उनको शुभ निमित्त मिलते रहते हैं। जिज्ञासु व्यक्ति अपना दोष देखता है परमात्मा की वाणी शुभ संयोग से मिली है। भावों की मलिनता भवों को बढ़ाती है। उपयोगमय जीवन बिताये वह प्रभु की आज्ञा है। जीवन का लक्ष्य उंचा रखें और आत्मपथ की और अग्रसर हो। परमात्मा हमें सदमार्ग बताते हैं वह हमें उपदेश देते हैं आज्ञा नहीं। जो भगवान की वाणी को आत्मसात करता है, वही विनय में प्रवेश करता है विनयी व्यक्ति जहां जाता है वहां माहौल अनुकूल हो जाता है। आत्मा का स्वभाव उर्ध्वगामी है। मुनिराज प्रशमसेन विजयजी म.सा. ने कहा कि कोई भी किया भाव बिना व्यर्थ है। चीज का मूल्य नहीं है भावों की प्रधानता है। भावपूर्वक किया गया दान सफल है। भाव हिंसा से भयंकर पाप बंधन होता है। भावों की निर्मलता जीवन को शुध्द और पवित्रता से ओतप्रोत करता है। अनन्त संसार में आत्म भटकाव का कारण मात्र प्रभु वचन को नहीं स्वीकार करना है। सद्गुरु एवं परमात्मा के आज्ञा अनुरूप जीवन ढालने से हृदय निर्मल एवं पवित्र बन सकता है जिससे हम कल्याणकारी पथ पर अग्रसर हो सकते हैं। 

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