जीवन में परिवर्तन जरूरी : स्वामी सुखबोधानंद
हमारा जीवन लगातार ही बदलावों से गुजरता है। अगर हम बदलावों को स्वीकार करना बंद कर दें तो हमारा जीवन ठहर जाएगा। हर अनुभव हमें प्रेम और मौन दोनों में आगे बढ़ने या कहना चाहिए कि बदलने का मौका ही देता है। आपको अपने अनुभवों के जरिए वह सबकुछ सीखना चाहिए जो आपका विकास करे। आपका लक्ष्य होना चाहिए कि आप 'संसार' से 'निर्वाण' या बंधन से मुक्ति की ओर बढ़ें।
खुद को इस यात्रा में आगे बढ़ाने के लिए आत्म-समर्पण और खुद को स्मृति में रखना होगा। अगर हम अपने मन में उठने वाले विचारों के प्रति, उनकी व्याख्या, भावनाओं, पसंद-नापसंद के प्रति जागरूक रहना याद रखें तो हम बिलकुल नए तरह के संसार की रचना कर पाएंगे। तब हम अपनी ही कैद से मुक्त हो पाएंगे।
हमारे मन में कई तरह के डर होते हैं। कुछ डर के पीछे कारण होते हैं तो कुछ डर अकारण भी होते हैं। जैसे जब कभी आपके नजदीक कोई टाइगर आ जाता है तो आपको डर लगेगा ही। मगर अपने भविष्य को लेकर अगर आपके मन में डर है तो वह बेमानी है। असल में देखा जाए तो भविष्य में क्या होने वाला है इस बात का पता नहीं होना आपके जीवन को रोचक ही बनाता है।
एक बार एक स्त्री मेरे पास आई और कहने लगी, 'मुझे डर लग रहा है कि पता नहीं मेरा भविष्य क्या होगा क्योंकि मेरे पति की कंपनी को किसी दूसरी कंपनी ने टेकओवर कर लिया है।" मैंने उसे कहा कि इस बात से उसे चिंतित होने की जरूरत नहीं है। अपनी जिंदगी को देखो... इसमें बहुत सारी अच्छी चीजें हो रही है। तुम एक गरीब परिवार में पैदा हुई और अब देखो कि तुम कितनी अच्छी जगह आ गई हो। तो जो कुछ तुम्हारे जीवन में अच्छा हुआ है उससे ऊर्जा ग्रहण करो।
बचपन में हमारे भीतर डर नहीं होते हैं। बड़े ही हमारे भीतर डर पैदा करते हैं। तब डर हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है। एक बच्चा जब गिरता है तो उसके भीतर गिरने का डर जम जाता है। जब बच्चा बड़ा हो जाता है वह गिरने से डरता है। उसका शरीर गिरने का विरोध करता है और जहां झुकना हो वहां भी वह झुक नहीं पाता है।
विवाह में या अपने रिश्तों में हमें अक्सर बताया जाता है कि हमें लचीलापन या झुकने का भाव रखना चाहिए। लेकिन हमें तो बचपन से ही झुकना या लचीलापन रखना नहीं सिखाया गया तो हम अक्खड़ हो जाते हैं। वैवाहिक जीवन में हमें पुराने आग्रहों और विचारों से मुक्त होकर एकदूसरे को स्वीकार करने की जरूरत होती है। अगर आप किसी रिश्ते में अपनी गलती के लिए झुकते हैं तो उसका आनंद है।
एक व्यक्ति जो केवल इंद्रियों के स्तर पर ही जीता है वह केवल एक ही तरह आनंद की अनुभूति कर पाता है। दूसरा व्यक्ति जो सही आहार, व्यायाम के जरिए अपने शरीर का तंदुरुस्त रखता है वह दूसरे ही स्तर पर होता है। तीसरे स्तर पर वह व्यक्ति होता है जो भावनात्मक बंधनों से मुक्त हो जाता है।
वह गुस्से और ईर्ष्या के बजाय प्रेम और करुणा से लोगों को जीतने की कोशिश करता है। इनके ऊपर का स्तर है बौद्धिक स्तर जबकि व्यक्ति के दिमाग में चीजों को लेकर स्पष्टता होती है। और सबसे ऊपर आता है आध्यात्मिक स्तर जबकि व्यक्ति अपने ही भीतर की ऊर्जा को सही ढंग से खर्च करना जान लेता है और उसे बचाना भी। जब भीतर शांति और पवित्रता होती है तो व्यक्ति इस स्तर पर होता है।
हमारा जीवन ज्ञान और अज्ञान, दोनों से मिलकर बना है। इसे फाइन- ट्यून करने की जरूरत होती है। यह बिल्कुल इसी तरह है कि आपके घर में लगा तो इटैलियन मार्बल है लेकिन उस पर पॉलिश नहीं है तब वह बहुत ही सामान्य फर्श नजर आएगा। इसी तरह आपके पास ज्ञान तो है लेकिन आपने उस ज्ञान से खुद को तराशा नहीं है या कहें कि उस ज्ञान का सदुपयोग नहीं किया है तो वह ज्ञान किसी काम का नहीं है।
जीवन को जागरूकता के साथ देखिए। हर कोई किसी न किसी स्तर पर मूर्खता करता है लेकिन इसे पहचान लेना ही हमें बुद्धिमानी से काम करने का मौका देता है। अगर लोग सोचते हैं, 'मैं सबकुछ जानता हूं और मुझे बदलने की जरूरत नहीं है' तो इस तरह की सोच व्यक्ति को अंधा बना देती है। वह व्यक्ति को कभी आगे नहीं बढ़ने देती।