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शीतला सप्‍तमी : ठण्‍डा - बासी भोजन इस दिन करने से मॉं देती है आरोग्‍यता



सर्दी के जाने और गर्मी के आने से पहले की ऋतु वसंत संक्रमणकालीन ऋतु कहलाती है। इसमें प्रकृति भी अनुकूलन करने के लिए परिस्थिति मुहैया कराती है और हमारी परंपराएं भी। होली का त्योहार उनमें से एक है शीतला सप्तमी दूसरा।

शीतला सप्तमी, शीतला सातम, शीतला अष्टमी, बसोड़ा, ठंडा-बासी और राधा-पुआ कई नामों से जाने वाले इस अनूठे त्योहार के दिन पारंपरिक रूप से घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता है।

चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को यह त्योहार मनाया जाता है। शीतला देवी की पूजा और उपासना का यह त्योहार हमारे खान-पान को मौसमानुकूल करने की परंपरा के पालन के लिए है।

शीतला माता की पूजा बहुत विधि- विधान से की जाती है और इसमें साफ-सफाई और शुद्धता का बहुत ध्यान रखा जाता है। हमारे यहां शीतला सप्तमी की पूजा की जाती है। कुछ लोग अष्टमी की पूजा करते हैं।

पूजा विधि
शीतला सप्तमी या अष्टमी की तैयारी एक दिन पहले से की जाती है। अलग-अलग जगह अलग-अलग तरह के भोजन की परंपरा है। लेकिन दही इस दिन के नेवैद्य का मुख्य पदार्थ होता है।

सप्तमी की पूजा करने वाले परिवारों में छठ की शाम और अष्टमी की पूजा करने वाले परिवारों में सप्तमी की शाम को मीठे चावल, खाजा, चूरमा, नमक पारे, शकर पारे, बेसन चक्की, पुए, पकौड़ी, पूरी, रबड़ी, बाजरे की रोटी, सब्जी आदि बना ली जाती है।

खाना बनाए जाने वाली रात को खाना बना लेने के बाद रसोईघर की साफ-सफाई फिर से की जाती है और फिर पूजा की जाती है। रोली, मौली, पुष्प, वस्त्र आदि अर्पित कर रसोई घर की पूजा करें और फिर उसके बाद अगले दिन चूल्हा नहीं जलाएं।

पूजा वाले दिन ठंडे पानी से स्नान करें और पूजन सामग्री में रोली, चावल, मेंहदी, काजल, हल्दी, मौली, वस्त्र, माला, फूल और सिक्के के साथ नेवैद्य भी पूजा की थाली में रखें। लोटे में पानी रखें। बिना नमक डाले आटा गूंथे और इसका एक छोटा दीपक बना लें। शीतला माता के मंदिर में जाकर पूजा करें। दीपक में रुई की बत्ती घी में डूबोकर लगा लें। यह दीपक बिना जलाए ही माता को अर्पित करें।

मान्यता है कि इस दिन से अब रात का बचा हुआ खाना बंद कर दिया जाना चाहिए। इस दिन से शीतल प्रकृति वाले खाद्य पदार्थ खासतौर पर दही को अपने भोजन में शामिल किया जाना चाहिए। रात के बने खाने से ही भोजन करें।

पारंपरिक मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से देवी प्रसन्ना होती है और व्रती के कुल में समस्त शीतलाजनित दोष जैसे दाहज्वर, पीतज्वर, चेचक, दुर्गंधयुक्त फोड़े, नेत्र विकार आदि दूर होते हैं।

स्वच्छता है प्रतीक
शीलता माता असल में गर्मियों के मौसम में अतिरिक्त साफ-सफाई रखने का संकेत देती है। क्योंकि इन्हीं दिनों तरह-तरह की बीमारियों के पनपने का डर रहता है। शीतला माता के चित्र को देखेंगे तो पाएंगे कि गर्दभ पर सवार देवी अपने हाथ में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते धारण किए हुए है। पारंपरिक मान्यता है कि शीतला माता का पूजन करने से चेचक, खसरा आदि रोगों से बचाव होता है। शीतला माता भगवती दुर्गा का ही एक रूप मानी जाती है। इसी दिन गणगौर पूजा के लिए जवारे बोए जाते हैं।

व्रत कथा
प्राचीन समय में एक साहूकार था, जिसके सात पुत्र थे। साहूकार ने समय के अनुसार सातों पुत्रों की शादी कर दी, परंतु कई वर्स बीत जाने के बाद भी सातों पुत्रों में से किसी के घर संतान का जन्म नहीं हुआ।

पुत्र वधुओं की सूनी गोद को देखकर साहूकार की पत्नी दुखी रहती थी। एक दिन एक वृद्ध स्त्री साहूकार के घर से गुजर रही थी और साहूकार की पत्नी को दुखी देखकर उसने दुख का कारण पूछा। साहूकार की पत्नी ने उस वृद्ध स्त्री को अपने मन की बात बताई।

इस पर स्त्री ने कहा कि आप अपनी सातों पुत्र वद्दाूओं के साथ मिलकर शीतला माता का व्रत और पूजन करें, इससे शीतला माता प्रसन्ना हो जाएंगी और आपके सातों पुत्रों के यहां संतान जन्म लेगी।

साहूकार की पत्नी तब माघ मास की शुक्ल पक्षी की षष्ठी तिथि को अपनी सातों बहुओं के साथ मिलकर उस वृद्धा के बताए विधान के अनुसार माता शीतला का व्रत किया। माता शीतला की कृपा से सातों बहुएं गर्भवती हुईं और समय आने पर सुंदर पुत्रों को जन्म दिया।

समय का चक्र चलता रहा और माघ शुक्ल षष्ठी तिथि आई लेकिन किसी को भी माता शीतला के व्रत का ध्यान नहीं आया। इस दिन सबने गर्म पानी से स्नान किया और गर्म भोजन किया। माता शीतला इससे कुपित हो गईं और साहूकार की पत्नी के स्वप्न में आकर बोलीं कि तुमने मेरे व्रत का पालन नहीं किया इसलिए तुम्हारे पति का स्वर्गवास हो गया।

स्वप्न देखते ही साहूकार की पत्नी पागल हो गई और भटकते-भटकते घने वन में चली गई। वन में साहूकार की पत्नी ने देखा कि जिस वृद्धा ने उसे शीतला माता का व्रत करने के लिए कहा था वह अग्नि में जल रही है। उसे देखकर साहूकार की पत्नी चौंक गई उसे अहसास हो गया कि यह शीतला माता है।

अपनी भूल का पश्चाताप करते हुए उसने माता से क्षमायाचना की। देवी ने उससे कहा कि मेरे शरीर पर दही का लेपन करो इससे तुम्हारे पर जो दैविक ताप है वह समाप्त हो जाएगा। साहूकार की पत्नी ने तब शीतला माता के शरीर पर दही का लेपन किया। साहूकार के प्राण लौट आए।

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