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देश में जीडीपी का मात्र 3.83 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च, छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की है आवश्यकता



संदीप कुलश्रेष्ठ
 
                   उद्योग संगठन एसोचैम ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया है कि भारत में शिक्षा पर जीडीपी का केवल 3.83 प्रतिशत के बराबर ही खर्च होता हैं। यदि देश में श्क्षि पर मौजुदा दर से ही खर्च का प्रावधान होता रहेगा तो भारत को विकसित देशों के शिक्षा के स्तर तक पहुंचने में सवा सौ साल लग जाएंगे। एसोचैम की यह रिपोर्ट खतरे की घंटी हैं । इस पर केंद्र सरकार को तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता हैं। संयुक्त राष्ट्र की सिफारिश के अनुसार हर देश को अपनी जीडीपी का कम से कम छह प्रतिशत खर्च शिक्षा पर करना चाहिए । इसलिए केंद्र सरकार को यही लक्ष्य सामने रखकर शिक्षा पर खर्च का प्रावधान करने की जरूरत हैं।
             यह सब जानते हैं कि शिक्षा ही विकास का आधार हैं। इसको ध्यान में रखकर केंद्र की सरकार को कार्य करने की आवश्यकता हैं। विकसित देशों में से सर्वाधिक अच्छे देशों की जीडीपी को देखा जाए तो सबसे अधिक 5.72 प्रतिशत खर्च ब्रिटेन करता हैं। अमेरिका अपनी जीडीपी का 5.22 प्रतिशत और जर्मनी अपनी जीडीपी का 4.95 प्रतिशत खर्च करता हैं। इनकी बराबरी के लिए हमें भी छह प्रतिशत तक खर्च करने की जरूरत हैं, तभी विकसित देशों के स्तर को हमारा देश पा सकेगा।
            शासकीय आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 3.83 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा हैं। इसमें भी प्राथमिक शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 1.57 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा हैं। यह सर्वाधिक चिंता का विषय हैं। इसके साथ ही माध्यमिक शिक्षा पर भी मात्र 0.98 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है। यह भी चिंता की बात हैं। उच्च और तकनीकी शिक्षा की  भी हालत चिंताजनक हैं। उच्च षिक्षा पर मात्र 0.89 प्रतिशत और तकनीकी शिक्षा पर 0.33 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा हैं। यह आंकडे चिंताजनक हैं। हर स्तर पर जीडीपी का दुगना खर्च करने की सख्त आवश्यकता हैं। इस पर केंद्र शासन को विषेश कर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को ध्यान देने की जरूरत हैं।
                  शिक्षा की वर्तमान बदहाल स्थिति की एक तस्वीर हाल ही में हमारे देश के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखजी ने दिखलाई है। उन्होंने हाल ही शिक्षक दिवस पर दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हुए शिक्षा की हकीकत से सबका सामना करवा दिया। राष्ट्रपति ने बताया कि सरकारी स्कूलों में 9वीं कक्षा के 74 प्रतिशत छात्र अपनी किताबें पढ़ने तक में सक्षम नही हैं। राष्ट्रपति ने इस स्थिति को बदलने में शिक्षकों से आगे आने का आव्हान भी किया। राष्ट्रपति की यह स्वीकारोक्ति हमारे  देश के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की बदहाल तस्वीर को दिखा रही हैं। इसको बदलने की सख्त आवश्यकता हैं। देश के सरकारी स्कूलों में और कॉलेजों में तथा विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के पद हजारों की तादाद में रिक्त हैं। सबसे पहले रिक्त शिक्षकों की पूर्ति करने की आवश्यकता हैं।
              देश के किसी भी विश्वविद्यालय को उठाकर देख लें तो यह पता चलेगा कि उस विश्वविद्यालय में लगभग 30 से 50 प्रतिशत तक शिक्षकों के पद रिक्त हैं। किसी भी प्रदेश के स्कूल और कॉलेजों की स्थिति देखें तो वहां और भी स्थिति दयनीय हैं। संसाधनों की भी अत्यधिक कमियां हैं। यही कारण हैं कि विश्व के सबसे सर्वश्रेष्ठ 100 विश्वविद्यालय में हमारे देश का एक भी विश्व विद्यालय शामिल नही हो पाया है। इस प्रकार की दयनीय स्थिति के लिए अत्यंत आवश्यक हैं कि शिक्षा के खर्चो में बढ़ौत्री की जाए। यह बढ़ोत्री प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की जाने की आवश्यकता हैं तथी स्थिति में सुधार हो पाएगा। इसके लिए केंद्र शासन और राज्य सरकारों को मिलकर संयुक्त कार्य योजना बनाकर कार्य करने की आवश्यकता हैं। देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर तथा समस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों की यह जिम्मेदारी हैं कि वह शिक्षा की इस बदहाल स्थिति को बदलें। और यही समय की पुकार हैं।
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