मृत्यु का भय है अच्छे जीवन की शुरुआत
-ललित गर्ग
इस संसार की सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि हम प्रतिक्षण जीवन को खोते हैं लेकिन इसके बाद भी मृत्यु के बारे में नहीं सोचते। सृष्टि के विधान में जन्म के साथ मृत्यु का अनिवार्य योग निश्चित है। महापुरुषों का कहना है कि मृत्यु की भी उपयोगिता है इसीलिये ईश्वर ने मृत्यु का विधान रचकर प्राणिमात्र पर बड़ा उपकार किया है। मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है, उसे टाला नहीं जा सकता है, वह तो अवश्यम्भावी है। काल के आगे सभी बेबस हो जाते हैं, किसी का कोई वश नहीं चलता। संसार के सबसे अधिक समृद्ध अथवा सर्वोच्च सत्ता-संपन्न व्यक्ति भी मृत्यु से मुक्ति पाने में समर्थ नहीं है। कोई भी मृत्यु को नहीं जीत सकता और कोई जीत भी ले तो यह उसके लिये सबसे बड़ी हार ही हो सकती है। मृत्यु पर विजय या अमरत्व की कल्पना वरदान नहीं, अभिशाप ही हो सकती है। एक ऐसे समय में जहां विज्ञान व्यक्ति को अमर बनाने की मुहिम में जुटा है, सबसे अहम सवाल यही है कि क्या यह अमरता इंसान के लिये एक सीमा के बाद भयानक साबित नहीं होगी? अभी तक चले आ रहे जीवन को और उसके किसी भी पक्ष को हम ठीक से संभाल नहीं सकते, मगर फिर भी खुद को अक्षुण्ण और अमर बनाये रखना चाहते हैं। आखिर क्यों? जरूरत है जीवन और मृत्यु की शाश्वत परम्परा को स्वीकारते हुए मृत्यु की ओर बढ़ते हर क्षण को पुण्य का प्रेरक बनाये।
एक बार किसी महिला का इकलौता बेटा मर गया। उसने भगवान बुद्ध की कीर्ति सुनी थी। मृतक को गोद में लेकर मां बिलखती हुई बुद्ध के पास गयी। प्रार्थना के स्वर में आग्रह करने लगी की कि ‘‘भगवन्! मेरे इस बच्चे को जिला दीजिए।’’ बुद्ध ने उससे कहा कि, ‘‘ तुम बस्ती में जाओ, किसी घर से एक पोशाक ले आओ, जिसके घर में अतीत में किसी की मृत्यु नहीं हुई हो।’’ मां घर-घर घूमी, पर उसे ऐसा एक भी घर नहीं मिला, जिसमें अतीत में किसी की मृत्यु न हुई हो। कहानी प्रतीक रूप में है, पर उसके पीछे एक बहुत बड़ा सत्य छिपा है। और वह सत्य है कि जीवन के साथ मृत्यु अनिवार्य रूप से जुड़ी है। मृत्यु अपरिहार्य रूप से जीवन से जुड़ा बड़ा सत्य है। इसलिये मृत्यु के बारे में जहां एक ओर गहन समझदारी और स्वीकार्यता पैदा करने की जरूरत है, वहीं दूसरी ओर एक ऐसे मन, मनुष्य और सभ्यता की ओर बढ़ने की जरूरत है, जहां जीवन घिनौना, डरावना, सहमा-सकुचाया और निरंकुश न होकर खिला-खिला और मुस्कुराता हुआ हो। जहां हर कोई आपसी प्रेम एवं सद्भाव से जीवन जीये। जहां जीये गये जीवन के खाते में अच्छे कर्म, पुण्य की जमापूंजी हो। यूनान का बादशाह सिकन्दर बड़ा महत्वाकांक्षी था। उसने अनेक देश जीते और अपार धन-संपत्ति इकट्ठी की। जीवन का अंतिम क्षण आया तो उसकी आंखें खुल गई। उसने देखा कि वह अकेला ही जा रहा है। जो कुछ उसने बटोरा था, सब यहां छूट रहा है। जो साथ जा सकता है वह पुण्य-कर्म अब कैसे बटोरा जाये? तब उसने अपने दीवान को बुलाया और कहा कि मैं मर जाऊं और मुझ दफन करने ले जायें तो मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर कर देना। उस संबंध में एक कहावत चल पड़ी:‘‘आया था यहां सिकन्दर दुनिया से ले गया क्या? थे दोनों हाथ खाली बाहर कफन से निकले।’’ सत्रहवीं सदी के विख्यात लेखक और राजनेता बंेजामिन फें्रकलिन ने मृत्यु शैया पर अंतिम घड़िया गिनते हुए कहा भी है कि मरता आदमी कुछ भी आसानी से नहीं कर सकता।’
यही जीवन की सच्चाई है। आदमी कितना आपाधापी करता है, लेकिन अंत समय कुछ भी उसके साथ नहीं जाता, यहां तक कि उसका कुटुम्ब-कबीला भी यहीं रह जाता है। इसलिये जीवन का हर क्षण अच्छे कार्यों में नियोजित करना चाहिए। इसलिये ईश्वर ने मृत्यु का भय निर्मित किया। संत-मनीषियों ने कहा भी है कि यदि मनुष्य को मृत्यु का भय नहीं रहा होता तो वह कभी बुरे कार्यों से बचने का प्रयास ही नहीं करता, उसके पाप पराकाष्ठा तक पहुंच जाते, वह ईश्वर के प्रति भक्ति भावना नहीं रखता। वह सदैव यही सोचता कि मैं तो मृत्यु से परे हूं, अमर हूं, असीमित वर्षों तक जो भी चाहूं करता रह सकता हूं। मृत्यु का भय ही उसे दुष्कर्मों की ओर जाने से रोकता है, न जाने कब मृत्यु आ जाए इस चिंतन के कारण अच्छे कार्यों को करने के लिए व्यक्ति प्रवृत्त होता है। कल्पना कीजिए कि मृत्यु के भय होने पर भी जगत में इतना आतंक, भ्रष्टाचार, अनाचार, दुराचार, हिंसा, बलात्कार आदि बुराइयां व्याप्त हैं तो इस भय के अभाव में इस संसार की क्या दशा होती? वस्तुतः मृतक के परिजन अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर रुदन करते हैं अन्यथा संसार में कितने लोग रोज मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन पर कोई दूसरा आंसू नहीं बहाता। कर्मों के कारण हम एक दूसरे से जुड़े हैं और कर्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब व लेन-देन पूरा हो जाने पर हम सब रिश्ते-नाते तोड़कर संसार से कूचकर जाते हैं। इस प्रकार हमारा जन्म जहां संबंधों को जोड़ता है वहीं मृत्यु संबंधों को तोड़ने का कार्य करती है। अज्ञानवश व्यक्ति अपने संबंधों को शाश्वत मान लेता है और उनके टूटने पर शोकग्रस्त हो जाता है।
धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं जो हमें याद नहीं है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि मृत्यु तो शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो अमर-अजर है, सनातन और पुरातन है और शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। विधाता द्वारा निश्चित समय पर आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करती है। शरीर की मृत्यु तो एक पड़ाव है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को प्राप्त होता है। आत्मा की अमरता को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए। शोक करने से दिवंगत आत्मा को तो कष्ट पहुंचता ही है, शोकाकुल व्यक्ति को भी कोई राहत नहीं मिलती। इस स्थिति से उबरने का एक ही मार्ग है वह यह कि हम अपने अंतर को टटोलें, अपने भीतर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों को दूर करें और उस मार्ग पर चलें, जो मानवता का मार्ग है। हमें समझ लेना चाहिए कि इस धरा पर मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलता और समाज उसी को पूजता है, जो अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीता है।
दुुनिया में सब-कुछ एक अंत ही ओर बढ़ता दिखाई देता रहा है। सब-कुछ एक अनंत प्रक्रिया का हिस्सा है। जहां प्रत्येक आरंभ में अंत और अंत में आरंभ छिपा है। मनीषी लोग मृत्यु को भय नहीं, सौन्दर्य का सबसे शुद्ध रूप मानते है। इसीलिये जैन दर्शन में मृत्यु को महोत्सव के रूप में मंडित करते हुए संथारा की प्रक्रिया दी गयी है। आचार्य विनोबा भाव ने इसी रूप में मृत्यु को आदर्श रूप में स्वीकारा। ऐसी मृत्यु के साथ जीवन अपनी सरलता एवं निर्दोषता की ओर लौटता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है और पदार्थ से अणु हो जाने की यात्रा तय करता है। वस्तुतः यह सम्पूर्ण प्रक्रिया गहरी नींद जैसी है, जिसमें डूबने के बाद जीवन की तमाम आपा-धापी, संघर्ष एवं तेरा-मेरा का भाव तिरोहित हो जाते हैं। फिर एक गहरी शांति के सिवाय कुछ शेष नहीं रहता। जिसे देने में जीवन भले ही चुक जाये, किन्तु मृत्यु नहीं। कवि रविन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं कि मृत्यु तो एक मीठी नींद है। जैसे नींद के समय आदमी सब कुछ भूल जाता है, वैसे मृत्यु के समय भी आदमी सब कुछ भूल जाता है। सोते समय यह ध्यान रहता है कि सुबह जब हम उठेंगे तो हमें हमारी बनी-बनाई दुनिया मिल जाएगी, किन्तु मृत्यु के समय यह विचार रहता है कि हमारा सब कुछ छूट जाएगा। इसलिए लोग अपनी बनायी दुनिया के छूटने से, धन-दौलत-सत्ता के छूटने से, परिवार-कुटुम्ब-मित्र के छूटने से और जिस शरीर में मैं-मेरा है, उस शरीर के छूटने से दुःखी होते हैं। परन्तु यह चिंतन शास्त्रसम्मत एवं उचित नहीं है। एक दिन तो इन सब चीजों को छूटना ही है जो हमें पहले से ही मालूम था। फिर दुःख, शोक और मनोमालिन्य कैसा? एक प्रकार से यह स्वीकार का ढंग है। आज तक तमाम शास्त्र, पुराण, धर्म और नीति यही तो सिखाते आए हैं कि मृत्यु से डरो मत। उसका अस्तित्व स्वीकार करो। जितना जल्दी हम इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, जीवन हमें उतनी ही शीघ्रता से अपना लेता है। तब जीवन के रंगमंच पर हमारी हैसियत महज एक किरदार की नहीं होती, बल्कि हम खुद अपने जीवन की पटकथा लिखते हैं, जिसमें आंसू नहीं, भय नहीं, अवसाद नहीं, दुख नहीं केवल जीवन होता है, मुस्कान होती है।
हमारा चिंतन यह होना चाहिए कि मृत्यु के पश्चात जब हमारी शवयात्रा निकले तो उसमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग हों जो हमारी सेवाओं और सत्कर्मों का स्मरण करें और यदि उनके मन में शोक हो तो हमारी यह मृत्यु एक श्रेष्ठ मृत्यु ही कहलायेगी। यदि शवयात्रा में लोग हमारी बुराई करें, मन ही मन प्रसन्न हों तब निश्चिय ही मृत्यु से पूर्व का हमारा जीवन निकृष्ट ही माना जाना चाहिए। इसलिए यथोचित यही है कि हम मृत्यु का भय नहीं मानें और मृत्यु आने से पूर्व तक का हर क्षण अच्छे कार्यों में लगाएं।