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विवादों की बाढ़ में इंसान...!!



तारकेश कुमार ओझा
मैं जिस शहर में रहता हूं वहां कोई नदी नहीं है इसलिए हम बाढ़ की विभीषिका को जानने - समझने से हमेशा बचे रहे। कहते हैं अंग्रेजों ने इस शहर में रेलवे का कारखाना बसाया ही इसलिए था कि यह हमेशा बाढ़ के खतरे से सुरक्षित रहेगा। हालांकि मेरे शहर से करीब दस किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय से कुछ पहले एक नदी बहती है। बचपन में एक बार  इस नदी में भयंकर बाढ़ आई थी। तब हमारे शहर के लोग  मदद और सहानुभूति जताने पीड़ितों के पास पहुंचे। लेकिन हमारी अपेक्षा के विपरीत कुछ बाढ़ पीड़ित आभार जताने के बजाय उलटे हम पर ही बरस पड़े कि हम यहां बाढ़ से तबाह हो रहे हैं औऱ आप लोग सैर - सपाटा करने आए हो। तब मैने बाढ़ की विभीषिका को नजदीक से जाना - समझा था। अपने देश में जब - तब कहीं न कहीं बाढ़ आती ही रहती है।खास तौर से बारिश के दिनों में। एक शहर या राज्य में आई बाढ़ की खबर से नजर हटती नहीं कि दूसरे प्रदेश में इसकी विभीषिका से जुड़ी खबरें चर्चा में आ जाती है। लेकिन पूर्वोत्तर के राज्यों खास कर असम की बाढ़ के अनेक किस्से सुने और अखबारों में पढ़े हैं। कहते हैं कि ब्रह्मपुत्र नदी अमूमन हर साल बाढ़ से इंसान नहीं नहीं पशु - पक्षियों को भी बेहाल कर देती है। इस साल भी पिछले कुछ दिनों से चैनलों पर ऐसा ही देख रहा हूं। हालांकि पुर्वोत्तर के राज्यों खासकर असम की बाढ़ की विभीषिका से जुड़ी खबरें हमारे राष्ट्रीय चैनलों पर एक नजर या झलकियां जैसे स्थायी स्तंभ में ही नजर आते हैं। इसके बावजूद देखा - सुना कि इस साल आई बाढ़ में असम में  20 गेंडे ही मारे गए। दूसरे पशु - पक्षियों का भी हाल बेहाल है। ऐसे में इंसान की स्थिति का अंदाजा तो सहज ही लगाया जा सकता है। फिर उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा और महाराष्ट्र के रायगढ़ में पुल के बह जाने की हृदयविदारक घटना और इससे जुड़ी खबरें मन - मस्तिष्क को झकझोरती रही। खैर यह तो बात हुई प्राकृतिक बाढ़ की जो एक खास मौसम या परिस्थितियों में ही आती है और कुछ दिनों तक पीड़ितों को गहरे जख्म देने के बाद गुम हो जाती है। लेकिन अपने देश व समाज में विवादों की बाढ़ किसी न किसी रूप में आती ही रहती है या यूं कहें कि कृत्रिम तरीके से लाई जाती है। यह विवाद किसी हस्ती के कुछ कहे पर भी हो सकता है तो किसी इच्छा- अनिच्छा पर भी। पता नहीं देश में विवादों की ऐसी अनचाही बाढ़ अनायास आती रहती है या किसी स्वार्थ की खातिर कृत्रिम तरीके से लाई जाती है। अब देखिए न जिस समय असम समेत देश के तकरीबन दस राज्यों  में बाढ़ से जिंदगी तबाह हो रही थी, तभी एक अभिनेता की घरवाली के उस डर पर फिर विवाद उठ खड़ा हुआ जिसके तहत उसकी घरवाली ने देश छोड़ कर चले जाने की इच्छा अपने एक्टर पति के सामने व्यक्त की थी। धन्य है यह देश कि वह अभिनेता बाल - बच्चों समेत अब तक यहीं है। उन्होंने देश नहीं छोड़ा। मैं तो पिछले साल जम कर हुए इस विवाद को भूल ही चुका था। लेकिन एक राजनेता के बयान पर यह प्रकरण गड़़े मुर्दे की तरह यह फिर उठ खड़ा हुआ। यह पुराना मुद्दा बाढ़ जैसी विभीषिका पर भारी ही नहीं बहुत भारी पड़ा । फिर बार - बार राजनेता की सफाई और उन अभिनेता के उस बयान का पुराना फुटेज जिसमें उन्होंने अपनी घरवाली की इच्छा का खुलासा किया था, टीवी स्क्रीन पर बार - बार दिखाया जाता रहा। इससे मैं सोच में पड़ गया कि किसी नामचीन के बाल - बच्चों को यदि इस देश में डर लगता  है और वे किसी दूसरे देश में बसने की सोचते भी हैं तो इससे किसी का क्या बनना या बिगड़ना है। यह उसकी मर्जी पर निर्भर है। लेकिन हमेशा की तरह यह मसला लगातार कई घंटों तक छाया रहा। पक्ष - विपक्ष के बयान आए। जम कर बहस हुई।   देश के कुछ राज्यों में आई विनाशकारी बाढ़ तो चंद दिनों बाद खत्म हो जाएगी। लेकिन लगता है अपने देश व समाज में विवादों की बाढ़ कभी खत्म न होगी।

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