मजबूत लोकतंत्र के लिये नये लीडर तलाशने होंगे
-ललित गर्ग-
वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र एक जीवित तंत्र है, जिसमें सबको समान रूप से अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार चलने की पूरी स्वतंत्रता होती है। लोकतंत्र की नींव जनता के मतों पर टिकी होती है। नागरिकों की आशा-आकांक्षाओं के अनुरूप प्रशासन देने वाला, संसदीय प्रणाली पर आधारित इसका मजबूत संविधान है। लेकिन उत्तराखंड हो या अरुणाचल प्रदेश-लोकतांत्रिक मूल्यों को टूटते-बिखरते देखा गया है। ऐसी ही स्थितियों और राजनीतिक प्रक्रिया के कारण आम लोगों में अरुचि और अलगाव बहुत साफ दिखाई देता है, इसके कुछ और भी अनेक कारणों में मुख्य है- समानता लोकतंत्र का हृदय है, लेकिन असमानता ही चहूं ओर दिखाई दे रही है। वोटों के गलियारे में सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की होड और येन-केन-प्रकारेण वोट बटोरने के मनोभाव ने इस उन्नत शासन प्रणाली को कमजोर किया है।
राजनीति का वह युग बीत चुका जब राजनीतिज्ञ आदर्शों पर चलते थे। आज हम राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतियों से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह अभद्र टिप्पणियों ने ली है। व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है।
कई राजनीतिक दल तो पारिवारिक उत्थान और उन्नयन के लिये व्यावसायिक संगठन बन चुके हैं। सामाजिक एकता की बात कौन करता है। आज देश में भारतीय कोई नहीं नजर आ रहा क्योंकि उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्रीयन, पंजाबी, तमिल की पहचान भारतीयता पर हावी हो चुकी है। वोट बैंक की राजनीति ने सामाजिक व्यवस्था को क्षत-विक्षत करके रख दिया है। ऐसा लगता है कि सब चोर एक साथ शोर मचा रहे हैं और देश की जनता बोर हो चुकी हैं।
जनता के स्वतंत्र लिखने, बोलने और करने की स्वतंत्रता का हनन करने वाले शासकों ने इस शासन प्रणाली को ही धुंधला दिया है। शासक ही सोचेगा, शासक ही बोलेगा और शासक ही करेगा- ऐसी घोषणाओं के द्वारा शासक ने जनता को पंगु, अशक्त और निष्क्रिय बनाया है इसका खासतौर से मध्यवर्ग, कामकाजी प्रोफेशनल्स और युवा आबादी में गहरा असंतोष है। शायद यही वजह है कि आज मुश्किल से ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है, जिसकी राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनने में कोई दिलचस्पी हो। गौरतलब है कि शहरीकरण और इकनाॅमिक ग्रोथ के साथ-साथ ऐसे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। एक तरह से लोकतंत्र जैसी स्वस्थ और आदर्श शासन प्रणाली भी प्रश्नों के घेरे में है। अब आवश्यकता इस बात की भी है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास हो और मतदान के साथ-साथ नागरिक सजगता का भी विकास हो।
समाजसेवी एवं उद्योगपति श्री रिखबचन्द जैन के नेतृत्व में ‘भारतीय मतदाता संगठन’ लोकतांत्रिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने, चुनाव की खामियों को दूर करने एवं नये लीडर उभारने के प्रयास में लगा है। ज्यादा से ज्यादा वोट देना ही नागरिक सजगता नहीं है, बल्कि वोट किसे दें रहे हैं, उसकी नीतियां और नियत क्या है इस पर भी विचार करना जरूरी है। वोट देने के बाद हमारे शासक कर क्या रहे हंै, इस पर नजर रखे बिना सजगता संभव नहीं है। सोशल मीडिया में भीड़ है, वह तख्ता पलट तो कर सकती है लेकिन उसके बाद का काम नहीं कर सकती। लिहाजा मतदान पहला कदम है अंतिम नहीं। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिये जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी से सरकार बनें और सही तरीके से चले भी। अच्छे लोग राजनीति में रूचि नहीं रखते। नागरिक सजगता की कमी इसी समझदार वर्ग में भी कम नहीं है। विधान परिषद और राज्य सभा को राजनैतिक व्यक्तियों से मुक्त करना जरूरी है। इसमें अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ लोग होने चाहिए ताकि वे राजनैतिक लोगों और उनकी गलतियों को पकड़ सकें। विधानसभा और लोकसभा में अपराधियों की बढ़ती संख्या भी चिंता का विषय है। हाल ही में चुनाव आयोग और विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित ‘चुनाव सुधार’ को तुरंत लागू किया जाना इसलिये जरूरी है ताकि राजनीति में आपराधिक तत्वों का प्रवेश रोका जा सके। चुनाव आयोग पार्टियों को पंजीकृत तो कर सकता है लेकिन नियंत्रित नहीं। यह काम जागरूक नागरिक ही कर सकतें है अतः वे उठें और अपना कर्तव्य निभाएं।
इधर लोकतंत्र से जुड़ी बातों में खास बात यह है कि मतदान करने वाली वह आबादी अनुपात में घट रही है, जिसमें ज्यादातर शिक्षित, धनाढ्य तबका शामिल होता है। यह तबका लगातार बढ़ रहा है, राजनीतिक दृष्टि से इसका महत्व भी बढ़ रहा है। राजनीति और नेताओं के बारे में शिक्षित और मध्यवर्गीय आबादी के नजरिए में अंतर न लाया गया, तो समृद्धि के विस्तार के साथ वोट देने वालों की संख्या में गिरावट जारी रह सकती है। आश्चर्यजनक तो यह है हमारे राजनीतिक दल समाज के इस हिस्से में अपने खिलाफ बनी छवि सुधारने और लोगों को अपनी ओर खींचने की कोई कोशिश नहीं कर रहे। यह तबका किसी एक धर्म, जाति या समुदाय से ताल्लुक नहीं रखता। यह पूरे देश में फैला हुआ है और इसमें काॅलेज स्टुडेंट्स, मध्य-उच्च मध्य परिवारों से लेकर उन कामकाजी लोगों को रखा जा सकता है, जो मुख्यतः अर्द्धशहरी और शहरी इलाकों में रहते हैं। यह तबका खास सहूलियतों, सब्सिडी या अनुग्रह की अपेक्षा नहीं करता। बल्कि इसकी मांग स्वच्छ प्रशासन और अच्छी सरकार की है, ताकि आम आदमी के हालात सुधर सकें और देश का समग्र विकास हो सके।
यही वह तबका है जो देश को विकास की ओर बढ़ता हुआ देखना चाहता है। हुआ यह है कि हमारे राजनेता और सरकारें अपने कार्यक्रमों और नीतियां की अपेक्षाओं के मुताबिक हकीकत में बदलने में नाकाम रहे हैं। इसलिए आम जनता यह मानने लगी है कि सिस्टम दोषपूर्ण है और नेता अपने वादे नहीं निभा रहे।
लोकतंत्र की यह दुर्बलता है कि सांसदों-विधायकों का चुनाव अर्हता, गुणवत्ता एवं योग्यता के आधार पर न होकर, दल या संस्था के आधार पर होता है। इससे राजनीति स्वस्थ नहीं बन सकती और न ही राजनीति में स्वस्थ, योग्य एवं प्रतिभासंपन्न उम्मीदवारों का चयन होता है। सही व्यक्ति की खोज वर्तमान राजनीति की सबसे बड़ी जरूरत है। स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता इसलिये भी है ताकि लोकतंत्र को हांकने वाला निष्पक्ष हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्ट एवं सर्वजन हिताय का लक्ष्य लेकर चल सके।
ऐसी व्यवस्था भी नियोजित की जानी चाहिए है जिसमें स्वतंत्र विचारों वाले जागरूक नागरिकों द्वारा हर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन किया जाए। यह उन्हें अपनी चुनावी घोषणाओं या जीतने के बाद किए गए वायदों के प्रति उत्तरदायी बनाएगा। हमें ऐसे मंच तैयार करने चाहिए जो भारत के उन युवाओं, प्रफेशनल्स और ऊर्जावान नागरिकों को एक साथ लाएं और आपस मंे जुड़ने का अवसर दें, जो इस देश की तस्वीर बदलना तो चाहते हैं लेकिन ऐसा कर नहीं पाते क्योंकि उनके पास मंच नहीं है। भावी नेतृत्व को तैयार करने के लिए हमें उनकी ऊर्जा को सही चैनल देने की पहल करनी होगी। यही युवा, सक्रिय नागरिक और प्रफेशनल अपने पेशे, अपने तौर-तरीकों और नागरिकों मूल्यों की वजह से दूसरों के लिए रोल माॅडल की भूमिका निभायेंगे। यही लोग अगली पीढ़ी के लिए पथ-प्रदर्शक बन जायेंगे। हमें भारत के विशाल प्रांगण में हर कोने में ऐसे लोगों की तलाश करनी होगी। ऐसे लोगों की तलाश और उन्हें लोकतंत्र के प्रशिक्षण का समुचित प्रबंध होना जरूरी है।
लोकतंत्र की सुदृढ़ता के लिये और नये लीडर तलाशने के लिये जरूरी है कि राजनीति के प्रशिक्षण का उपक्रम विभिन्न स्तरों पर संचालित होना चाहिए। न्यूनतम योग्यता एवं न्यूनतम प्रशिक्षण तय होना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर कृषि, ग्रामीण रोजगार, शिक्षा, वित्तीय अनुशासन, स्वास्थ्य और कुपोषण, जवाबदेही और पारदर्शिता, चुनाव और पुलिस सुधार, मानवाधिकारों की रक्षा और संसाधनों का बराबर इनका मिशन होना चाहिए। इसलिए परिवर्तन के लिए पहले ऐसे लीडर तैयार करने होंगे। सेमिनारों, वाद-विवादों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर राय मांगकर उनकी पहचान की जा सकती है। लीडरों का सशक्तीकरण करें, ताकि वे बदलाव के वाहक बन सकें। ऐसे दूसरे संगठनों और दबाव समूहों की पहचान करें जो अराजनीतिक और अनौपचारिक तंत्र के हिस्से हांे, जैसे एनजीओ और उन्हें नीतियों के निर्माण और उनके आकलन में सहभागी बनाएं।
एक बात और। आज लोकतांत्रिक संस्थाओं में ऐसे नेताओं को चुनकर मत भेजिये जो परदोषदर्शी हो, जो पक्ष-या-विपक्ष की अच्छाई में भी बुराई देखने वाले हैं। जो कुटिल हैं, मायावी है। नेता नहीं, अभिनेता है। असली पात्र नहीं, विदूषक की भूमिका निभाने वाले है। सत्ता प्राप्ति के लिये अकरणीय जैसा उनके लिये कुछ भी नहीं है। जिस जनता के कंधों पर बैठकर केन्द्र तक पहुंचते हैं, उनके साथ भी धोखा कर सकते हैं। ऐसे नेता देश से भी अधिक महत्व अपनी जाति और सम्प्रदाय को देते हैं। सत्ता जिनके लिये सेवा का साधन नहीं, विलास का साधन है। भला कैसे लोकतंत्र इन स्थितियों में अच्छी शासनप्रणाली साबित हो सकती है?