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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बनाम अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी भेडियाघमासान:


नमित वर्मा
अभाकाक का गोरखधंधा 94 वर्षों से नहीं पकड़ा गया यह आष्चर्यजनक है कि सन् 1885 मंे जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के समानान्तर असहयोग आन्दोलन से अवैधानिक रूप से अखिल भारतीय कांगेेस कमेटी (एआईसीसी अभाकाक) का गठन हुआ। यह चकित करता है कि लगभग 94 वर्षों से यह गोरखधंधा क्यों नहीं पकड़ा गया ?
वर्तमान में (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जगह) अखिल भारतीय कांगे्रस कमेटी का संगठनात्मक परिवर्तन (पिछले 25 महिनों से) बहुप्रतिक्षित है। स्मरण रहे कि देष में (ब्रितानी गुलामी के दौरान) असहयोग आन्दोलन एवं अभाकाक का जन्म एक साथ हुआ। सन् 1919 से 1921 के बीच समयान्तर में आईएनसी के तत्कालीन नेता महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन वापस लिया। लेकिन इस आन्दोलन के लिए खड़े किए अभाकाक संगठन को वापस मूल में समाहित करने की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।
वेबसाईट पर असहयोग आनदोलन के शोधालेख से मुझे समझ में आया कि इतिहासकारों की श्रृंखला ने गलत विष्लेषण किया और वे स्वतन्त्रता आन्दोलन की सही तस्वीर को पेष नहीं करना चाहते थे। यह विष्लेषण स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास के पुनरावलोकन और तथ्य प्रमाणों को सीधे स्पष्ट पेष करने का विनम्र प्रयास है। यह विष्लेषण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अभाकाक एआईसीसी पुनर्गठन से पहले आन्तरिक चर्चा के लिए है। यह यक्षप्रष्न है कि गांधीजी द्वारा (आन्दोलन की) गलती स्वीकारने पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी 94 वर्ष पूर्व भंग क्यों नहीं की गई ? क्यों एआईसीसी को चलाया गया एआईसीसी में अध्यक्ष का चुनाव होता है, फिर पार्टी संगठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम से पंजीकृत क्यों है ?
ब्रिटिष गुलामी से वर्तमान स्वतन्त्र भारत में सन् 1920 से 1922 का असहयोग आन्दोलन मील का पत्थर ही नहीं प्रासंगिक भी है। चैराचैरी घटना की मानसिकता देष में छाई है, लंपटीकरण को राजसत्ता प्राप्ति का सषक्त ब्रह्मास्त्र बनाया हुआ है। यही प्रक्रिया सदियों पुरानी कांग्रेस के कुछ खेमे अपनाये हैं। परिणामतः यह कांग्रेस विखण्डन (विभाजन), निष्कासन और पार्टी छोड़ने की भीषणतम परिस्थिति को पैदा कर रहा है। पार्टी इन घटनाक्रमों से लकुवाग्रस्त असक्षम बनी है। बाहरी लंपटों ने चतुर सुजान की तरह पेषेवर क्षमताओं का सुनहरी इन्द्रजाल रचा है। इसमें कांग्रेस के वैचारिक सिद्धान्तिक दार्षनिक एवं नैतिक मापदण्ड गौण हो गए।
फरवरी मार्च 1922 में मोहनदास करमचन्द गांधी ने नकारात्मकता के प्रवाह को भांपकर ही असहयोग आन्दोलन समापन की घोषणा की। वर्तमान में समाज एवं अर्थव्यवस्था में नकारात्मकता को ध्यान में रखकर इसे पुनः परिभाषित करना समय की आवष्यकता है। वास्तव में असहयोग आन्दोलन पर बहस लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के देहावसान के साथ ही सर्द पड़ने लगी (लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य हमारा अधिकार की रणभेरी बजाई थी।)। देषबन्धु चितरंजनदास के इस बारे में अलग ही विचार सामने आये। लोकमान्य तिलक और देषबन्धु चितंरजनदास ने अहिंसा एवं सत्याग्रह आन्दोलन पर मौलिक प्रष्न उठाए। यद्यपि दोनों श्रीतिलक एवं श्रीचितरंजनदास ने इनकी नैतिकता पर कोई प्रष्न नहीं किया। सन 1920 में वी.आई. लेनिन की बोल्षेविक क्रान्ति के प्रति (भारत में भी) रूमानी माहौल बना था। ऐसे में (ब्रितानी गुलामी से लड़ने के लिए) गांधीजी की अहिंसा, सत्याग्रह बहुत ही कमजोर लगी। यह दुर्भाग्यजनक रहा कि इतिहास के इस निर्णायक दौर में आमजन क्रान्तिकारियों-सत्याग्रहियों का प्रषंसकता रहा, पर ’’षर्त’’ यह थी कि क्रान्तिकारी-आन्दोलनकारी ’’पडौसी के घर पैदा हो’’ (यही मानसिकता आज भी है।)। गुजरे एक शतक के लगभग इस मानसिकता में बहुत ही कम परिवर्तन हुआ। जैसे प्राचीनकाल से मध्ययुग तक क्षत्रिय देष के लिए प्राण न्याछावर करने को तैयार रहता एवं करता और शान्तिकाल में शासन का अधिकारी होता।
क्या इसी परम्परा को अपनाकर ब्रिटिष राज द्वारा सत्ता के हस्तांतरण के बाद सत्याग्रहियों ने राजसत्ता सम्हालने को मूल अधिकार माना। वे यह भूल गए कि गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के पीछे प्रेरक शक्ति सत्य थी और सत्य के लिए कष्ट अलिखित शर्त रही। फरवरी मार्च 1922 में गांधीजी को ज्ञान हुआ कि सत्य व्यापक है। यह पूर्ण सत्य नहीं था। प्रकारान्तर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेषन में महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ। उसके फलस्वरूप अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी नामक संगठन अस्तित्व में आया। उसके बाद कांगे्रस ने एआईसीसी को आन्दोलन के लिए जन समर्थन का अस्त्र बनाया। यहां एआईसीसी के नैतिक धर्मराज स्वयं गांधीजी थे।
यह त्रासदी है कि 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की निर्मम हत्या के बाद एआईसीसी पर कोई नैतिक नियन्त्रक नहीं रहा। यहां स्मरण कराना चाहूंगा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक ऐलन ओक्टावियन ह्यूम ब्रिटेन के थियोसोफिस्ट (ब्रह्मज्ञानसमाज) के गुप्त वेजीटेरियन सोसायटी के विचारों से नियन्त्रित थे। थियोसोफिस्ट यूरोप से एषिया तक छाए थे। यह लगता है कि जवाहर लाल नेहरू अपने थियोसोफिकल सजृक श्वाब चन्द और ह्यूम के विचारों से अनिभिज्ञ थे ? गांधीजी भारतीय आन्दोलन के नैतिक नियंता थे। नेहरू पवित्र त्रिमूर्ति के उत्तराधिकारी के रूप में सन् 1948 नये नैतिक मापदण्ड के लिए सनकी अर्थषास्त्रियों (क्षमा करें!) जे.के. हिक्स, राय हर्रोड, इवसेय डोमार, प्रषान्त चन्द्रा महालोनबिस और सोवियत संघ के शासक जोसफ स्टालिन के प्रेत पर अधिक निर्भर थे। नेहरू ने कांगे्रस पर नियंत्रण के लिए एआईसीसी का रास्ता चुना। सो संगठन का स्वतन्त्र भारत की राजसत्ता पर कोई नैतिक प्रभावी अंकुष नहीं रहा। गांधीजी की मृत्यु के बाद प्रारम्भिक ब्रह्मज्ञानी कंाग्रेसजनों की विचारधारा अप्रासंगिक कर दी गई।
सन् 2016 में असहयोग आन्दोलन के भयावह प्रेत का फिर सामना करना पड़ रहा है। सत्ता का लालच, मतदाताओं को प्रलोभन, मतदाताओं की धौंसडपट या भयावदोहन, लंपटीकरण, बाहुबली उदय, अपराधीकरण आदि ने अमर्यादित समाज व्यवस्था को खड़ा किया है। हम एक व्यवस्था रहित भ्रष्ट निरंकुष समाज की ओर बढ़ रहे हैं। अंत में कांग्रेस नेतृत्व की शर्मनाक बाबूशाही के कारण एआईसीसी ने ’’राजनीतिक कार्य’’ तक बाहरी व्यक्ति प्रषान्त किषोर को दिया है। क्या पार्टी में राजनीतिज्ञ नहीं हैं ? प्रषान्त किषोर कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार के खासमखास रहे हैं। (करियाबीजा फार्म, खुजराहो 471606, मध्यप्रदेष।)

 

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