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सिंहस्थ के सभी कार्यों की निष्पक्ष समीक्षा जरूरी



डाॅ. चन्दर सोनाने
      आस्था और विश्वास का महापर्व सिंहस्थ 22 अप्रैल से 21 मई तक उज्जैन में अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया। मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चैहान ने साधु संतांे और श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए अपना खजाना खोल दिया। राज्य सरकार द्वारा 35 विभागों के 417 कार्यो के लिए 3183 करोड़ की राशि मुहैया कराई । सिंहस्थ के बाद मुख्यमंत्री ने सिंहस्थ कार्यो में लगे सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों की सराहना करते हुए उन्हें बधाई भी दी तथा उज्जैन वासियों का हृदय से आभार भी माना । सिंहस्थ के दौरान और अब सिंहस्थ के कार्यो की लगातार शिकायतें हो रही हैं। शिकायतों के कारण नहीं बल्कि भविष्य में आगामी होने वाले सिंहस्थ के लिए अभी से इस सिंहस्थ के आयोजन के सम्पूर्ण कार्यो की निष्पक्ष जांच आवश्यक हैं । इससे कहाँ - कहाँ कमियाँ और गलतियाँ हुई हैं, वह पता चल पाएगी। जिसे बाद में एक सीख के रूप में लेने की जरूरत होगी। किसी भी भव्य आयोजन के लिए यह आवश्यक भी हैं कि आयोजन के बाद उसकी निष्पक्ष समीक्षा की जाए ताकि सही और गलत का पता चल सके जो भविष्य में काम आए।
                 वैष्णव और उदासीन अखाड़े उपेक्षित रहे  
      सिंहस्थ के दौरान यह शिकायत आम रही कि मुख्यमंत्री और प्रभारी मंत्री शैव अखाडे की ओर ज्यादा आकर्षित रहे। वे वहां नियमित रूप से गए भी  किंतु वैष्णव अखाडे की शिकायत रही कि उन पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था उतना नहीं दिया गया। यही शिकायत उदासीन अखाडा़ंे की भी रही। इसकी निष्पक्ष तफतिश की जाना आवश्यक हैं।
            शौचालय निर्माण में लापरवाही और भ्रष्टाचार
        गत सिंहस्थ 2004 के प्रशासकीय प्रतिवेदन में यह स्पष्ट रूप से कमी स्वीकार की गई थी कि मेला क्षेत्र में साधु संतांे और श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए बनाए गए शौचालय निर्माण में कमियां रही । किंतु जिला प्रशासन ने सन् 2004 के सिंहस्थ से कोई सीख नहीं ली । उसका परिणाम सबको ज्ञात हैं। 2004 के सिंहस्थ से भी अधिक समस्या इस बार सिंहस्थ 2016 के दौरान देखने को मिली। शौचालय के लिए साधु संतों को धरने पर बैठने के लिए भी मजबूर होना पड़ा । यह राज्य सरकार, जिला प्रशासन और मेला प्रशासन के लिए शर्म  की बात रही । शौचालय निर्माण में व्यापक भ्रष्टाचार की शिकायत भी आम रही।
        
            हर घाट पर अनावश्यक जिग - जिग बैरिकैटिंग
         इस सिंहस्थ में पुलिस प्रशासन ने साढ़े आठ किमी लंबे घाटों पर जिग - जिग बैरिकेटिंग कर सभी घाटों पर सीधे जाने के रास्ते लगभग समाप्त कर दिए थे। इससे अत्यधिक असुविधा श्रद्ध़ालुओं को हुई । सन् 2004 के सिंहस्थ मे केवल करीब 4 किमी लंबे घाट ही उपलब्ध थे। इस सिंहस्थ में पुराने घाटों की जहां मरम्मत की गई वहीं, पहली बार श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए साढ़े आठ किमी घाट उपलब्ध कराए । यह राज्य शासन और जिला प्रशासन की बहुत बडी उपलब्धि थी।  किंतु, हर जगह बैरिकेटिंग कर इस उपलब्धि पर पानी फेर दिया गया । श्रद्धालु घाट पर जाने के रास्ते ढूंढते रहे। जहाँ श्रद्धालुओं के लिए साढ़े आठ किमी लंबे घाटों की यह बहुत बडी सुविधा थी, वही इसे पुलिस प्रशासन ने अपनी  अदूरदर्शिता के कारण श्रद्धालुओं की दुविधा बना दी।
घाट जाने वाले सभी मार्गो पर बैरिकेटिंग
            इस सिंहस्थ में जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन ने एक और बड़ी गलती यह की कि उन्हांेने शिप्रा घाट जाने वाले सभी रास्तों पर बैरिकेटिंग लगा कर उसे बंद कर दिए। यह सामान्य बुद्धि की बात हैं कि घाट को जाने और आने के लिए जितने अधिक रास्ते होंगे, उतनी अधिक सुविधा श्रद्धालुओं को रहेगी। कितु पुलिस प्रशासन ने हर रास्ते और हर गली को बंद कर मुख्य रास्ते से श्रद्धालुओं को घाट पर जाने की सुविधा दी जिससे श्रद्धालुओं को एक ही मार्ग पर अत्यधिक भीड़ और असुविधा का सामना करना पड़ा। श्रद्धालु  प्रशासन की इस व्यवस्था को कोसते हुए नजर आए।
शहर के नागरिकों को उनके घरों में ही किया कैद
           जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन ने उज्जैन के नागरिकों को उनके घरों में ही कैद कर दिया। उनके घर से बाहर निकलने के आसान रास्ते बैरिकैटिंग लगाकर बंद कर दिए गए। उन्हें नौकरी, व्यवसाय और धंधे के लिए घर से जाने और आने के लिए भी प्रतिदिन मशक्कत करनी पडी। यही नहीं पुलिस प्रशासन का यह भी प्रयास रहा कि स्थानीय नागरिक शिप्रा घाट तक पहुंच ही नहीं पाए । उनके लिए जगह जगह घेराबंदी और नाकेबंदी कर दी गई । इस सिंहस्थ में स्थानीय नागरीक जितने दुखी रहे, उतने कभी नहीं रहें।
घाटों से बहुत दूर सेटेलाइट टाउन
           सन् 2004 के सिंहस्थ के प्रशासकीय प्रतिवेदन में यह भूल भी स्वीकार की गई थी कि सेटेलाइट टाउन शिप्रा तट से बहुत दूर बनाए गए थे। इस सिंहस्थ में उसे सुधारना था। ये जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन की हठधर्मिता के कारण संभव नही हो पाया। इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे एक माह की सिंहस्थ अवधि के दौरान केवल अंतिम शाही स्नान के दिन ही सेटेलाइट का कुछ उपयोग हो पाया । सभी सेटेलाइट टाउन ऐसे ही वीरान पडे रहे। यहां के जिन दुकानदारों ने पुंजी लगाकर दुकाने ली थी, उन्हें भी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को जब यह पता चला कि उन्हें शिप्रा घाट तक जाने के लिए आठ से दस किमी पैदल चलना पडेगा तो वे पहले शाही स्नान में उज्जैन आए ही नहीं। प्रभारी मंत्री ने पहले शाही स्नान में एक करोड़ श्रद्धालुओं के आने का दावा किया था । वहां जब पहले शाही स्नान में केवल दस लाख श्रद्धालु ही आए तो मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद सेटेलाइट टाउन की व्यवस्था में बदलाव करना पडा।  इसी के बाद श्रद्धालुओं ने उज्जैन आना शुरू किया।
प्याऊ की अपर्याप्त व्यवस्था
          सिंहस्थ की पूरी अवधि अत्यधिक गर्मी की थी । उस समय श्रद्धालुओं को सबसे ज्यादा जरूरत पेयजल की थी । इस व्यवस्था में भी प्रशासन नाकाम सिद्ध हुआ। सन् 2004 के सिंहस्थ में विभिन्न समाज सेवी एवं स्वयंसेवी संस्थानों ने प्याऊ लगाई थीं । इस बार न जाने क्यों जिला प्रशासन और मेला प्रशासन ने उनसे दूरी बनाए रखी । जहाँ यह काम बिना पैसे के हो सकता था वहां प्याऊ लगाने के लिए नगर निगम ने टैंडर जारी कर दिए। शिकायत हुई तब जाकर मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद स्वयं सेवी संस्थाओं को प्याऊ लगाने की अनुमति दी गई।  यह सब असमजंस की स्थिति मेला लगने तक रही । इस प्रकार सिंहस्थ के दौरान श्रद्धालुओं को पर्याप्त एवं सुविधानुसार पेयजल उपलब्ध नहीं हो सका। प्रशासन ने जहां प्याऊ लगाई थी , वहां भी पानी समय पर नही पहुंच सका । जहां प्याऊ लगाई वहां का झूठा पानी सीधा शिप्रा में मिलता हुआ दिख रहा था। इसे रोकने की जहमत अंत तक किसी ने नहीं उठाई । प्याऊ के आसपास कीचड़ भी जमा रहा। जहां पेयजल के लिए नल की टोटियां लगाई गई वहाँ शुरूवात में वे सब प्रेशर के कारण उड गई। शिकायत और होहल्ला होने के बाद व्यवस्था में सुधार लाया जा सका।
               मंत्री के दामाद को दो-दो महत्वपूर्ण पद                      
             राज्य सरकार की इस सिंहस्थ में बहुत बडी गलती यह रही कि उसने अपने मंत्रि मंडल के एक सदस्य के दामाद को दो-दो महत्वपूर्ण पदों पर पदस्थ रखा। सिंहस्थ के दौरान नगर निगम के आयुक्त का पद अत्यंत महत्वपूर्ण पद होता हैं। सिंहस्थ में सर्वाधिक राशि 417 करोड़ रूपये नगर निगम को आबंटित की गई थी। मेला अधिकारी एवं नगर निगम आयुक्त के दोनों पदों पर श्री अविनाश लवानिया पदस्थ थे। सम्पूर्ण सिंहस्थ मेले में मेलाधिकारी का पद अत्यंत महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी वाला होता हैं। विभिन्न विभागों के बीच समन्वय के साथ साथ साधु संतो ंके साथ भी समन्वय करने की जिम्मेदारी मेला अधिकारी की होती हैं। किंतु राज्य सरकार ने मंत्री के इस दामाद को मेला अधिकारी और नगर निगम आयुक्त जैसे दोनों महत्वपूर्ण पद पर पदस्थ रखा,  जिसका परिणाम यह हूुआ कि सिंहस्थ शुरू होने के बाद तक साधु संत मेले में अपने प्लाट के लिए भटकते रहे। हताश होकर उन्होंने मुख्यमंत्री तक अपनी शिकायत की। जबकि सहज ही उन्हें भूखण्ड मिल जाने चाहिए थे। सम्पूर्ण मेला क्षेत्र में मूलभूत सुविधाएँ, पेयजल और सुरक्षा की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नगर निगम की रहती हैं। नगर निगम अपने इस दायित्व को निभाानें में असफल सिद्ध हुआ। पूरे सिंहस्थ अवधि के दौरान साधु संत और श्रद्धालु मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते रहे। राज्य सरकार को चाहिए था कि इन दोनों महत्वपूर्ण पदों पर अलग अलग व्यक्ति को पदस्थ करते । अगर ऐसा किया होता तो आयोजन में अत्यधिक सुविधा रहती, वहीं इतनी अव्यवस्थाएं भी नही फैलती। दोनों महत्वपूर्ण पद पर एक ही व्यक्ति रहने का एक परिणाम यह भी रहा कि मेला समाप्ति के दो सप्ताह बाद भी मेला क्षेत्र के किसान अपनी कृषि भुमी को वापस पाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। अभी भी उनके खेतों में शौचालय , स्नानागार , मूत्रालय तथा अन्य निर्माण कार्यो के अवशेष यत्र तत्र बिखरे पडे हैं। चारो तरफ फैले मलबे को हटने के बाद ही वे खेती कार्य शुरू कर पाएगे। इसके लिए वे अभी सिर्फ इंतजार ही कर पा रहे हैं जबकि बारिश होने को हैं।

मुख्यमंत्री से अपेक्षा
           प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चैहान ने अपनी पूरी शक्ति सिंहस्थ के सफल आयोजन में लगा दी थी। अब उन्हें चाहिए कि वे सिंहस्थ सम्पन्न हो जाने के बाद उसकी निष्पक्ष समीक्षा करें। समीक्षा से जो निर्णय प्राप्त हो उसकों रिकार्ड में रखे ताकि आगामी सिंहस्थ में वे मार्गदर्शी सिद्धांत के रूप में काम आएं।

 

 

 

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