महाकाल वन में स्थित प्रभु प्रेमी संघ शिविर में भागवत कथा का पंचम दिवस
। महाकाल वन में स्थित प्रभु प्रेमी संघ शिविर, उज्जैन में आयोजित “श्रीमद् भागवत कथा” के पंचम दिवस पर उपस्थित श्रद्धालुओं के विराट समूह को संबोधित करते हुए व्यासपीठ से जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने कहा –
श्रद्धा जीवन का मूल मंत्र है। जैसे-जैसे यह जागती जाएगी हमारी स्वीकृति, मान्यताएं विस्तार पाएंगी। सार्वभौम भगवदीय सत्ता के प्रति आदर, प्रीती, अपनापन सर्वथा हितकर अनुभव होने लगेगा। इस देश में कोई महनीय वस्तु है तो वह श्रद्धा है, विश्वास है। श्रद्धा से ही नदियों का नीर अमृत सा दिखने लगता है। सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ प्रसाद ही होने लगता है। जब तक प्रत्येक पदार्थ प्रसाद न लगे, तब तक भक्ति करते रहना।
विश्वास हमारे भय को छीनता है। विश्वास में प्रतिकूलताओं गौण हो जाती हैं। भगवान हमारे विश्वास में ही रहते हैं। प्रयोगशाला में भक्ति नहीं दिखेगी। वह नित्य सर्व अंतर्यामी है, वह प्रकृति से परे की सत्ता है। मन, बुद्धि, अहंकार, व्योम, नीर, धुल, आग और बयार इन अष्ट अवयवों से प्रकृति बनी है। दो प्रकार की सृष्टि है - बिंदु सृष्टि एवं नाद सृष्टि। ईश्वर सभी जगह विद्यमान है। जहाँ से काल को नियंत्रित किया जा सकता है, वह महाकाल है। हम इस नगर में विश्वास लेकर आये हैं, हम श्रद्धा के वशीभूत ही यहाँ तक चलकर आये हैं।
गुरु की जिव्हा पर आया हुआ कोई भी शब्द मिथ्या नहीं हो सकती। जो अपने हित के लिये कभी संचय नहीं करता, वह साधू है। साधू अन्न - वस्त्र - औषधि के साथ जुडा है। साधक के जीवन में महत्वपूर्ण है कि श्रधा और विश्वास को संभाल कर रखा जाए। हमारी आस्था हर जगह निवेशित नहीं होनी चाहिए, जहाँ पूज्यता न हो, दिव्यता न हो। जो प्रकाश का, ज्ञान का सम्मान नहीं कर पाता, उसे कठिनाइयों से जूझना नहीं आता। आरंभ करना कठिन है।
समुद्र मंथन की कथा सुनाते हुए पूज्य स्वामी ने कहा – जब हम मनोमंथन करेंगे तो सर्वप्रथम काम, क्रोध आदि सामने आयेंगे। जिसके पास धर्म नहीं है, वह अर्थ और काम पर नियंत्रण नहीं कर सकता है। धर्म जीवन में अति आवश्यक है। काम में श्रेष्ठ रस, भगवद रस, आत्म रस होना चाहिए, जिससे काम नियंत्रित नहीं करते आता, उससे क्रोध निकलता है। क्रोध की ज्वाला दिखाई तो नहीं देती पर वह जीवन को जला देती है। क्रोध हमारी असफलता का सूचक है। जिसका स्वयं पर नियंत्रण नहीं है, वह स्वयं से पराजित हो जाता है। क्रोध तब पैदा होता है, जब हमारे पास विवेक नहीं रहता।
जिस दिन आप विचार करना सीख जायेंगे उस दिन क्रोध पर नियंत्रण कर सकते हैं। शुभ संकल्प से इस संसार में हर वस्तु संभव है। समय का प्रबंधन होना चाहिए। जिनका कोई गुरु नहीं है, वह अपने महाकाल को गुरु कह सकता है। कथा महोत्सव है, कथा अमृत है।
समुद्र मंथन में विष निकला जिसका आशय काम से, क्रोध से है। शुभ का विचार करो। आत्मा के चिंतन का आशय शुभता के चिंतन से है। कभी - कभी हमें पूज्यता का अहंकार आता है। जो अहंकार शुन्य है, वह ही श्रेष्ठ है। समुद्र मंथन में तीन कुंभ निकले – विष, वारुणी एवं अमृत का। वारुणी से आशय है - मदिरा से। मदिरा संबंधों की शुचिता को समाप्त करती है। जिस घर में मदिरा का प्रयोग है सच मानिये उस घर से पितृ, देवता, लक्ष्मी पलायन कर जाती हैं। इसे इस प्रकार भी कहा जाता है, जब बहुत सी वस्तुएं आती हैं तो नशा आ जाता है। दानव मद्यपान कर अचेत पड़े रह गए और अमृत कलश देवताओं को मिल गया। व्यसनों से व्यक्ति स्वतः ही धरातल पर आ जाता है।
जिस पदार्थ से आपकी चेतना सुप्त हो जाती हो, उसे अमान्य कीजिये। सिंहस्थ काल में किये गये पुण्य कार्य अक्षय फल देने वाले है। आप महाकाल के आंगन में ध्यानस्थ हो जाए तो अपनी मन, बुद्धि, चित्त के साक्षी हो सकते है। पूज्य आचार्यश्री ने रुद्राष्टकम का विशेष वर्णन करते हुए महाकाल को अपनी भावांजलि अर्पित की एवं कहा - शिव माने समाधान। शिव सबसे सुन्दर देव हैं, जिन्हें करुणा का अवतार बताया गया है। कर्पूरगौरं करुणावतरम् ....
कथा में पूर्वोत्तर राज्यों मणिपुर, आसाम, त्रिपुरा एवं मिजोरम से पधारे वनवासी बंधुओ का लोकनृत्य हुआ। इस अवसर पर आचार्यश्री ने कहा – धरती पर जितने भी रूप हैं, सभी प्रभु के रूप हैं। हमारे भारत के सांस्कृतिक सौन्दर्य में वैविध्यता है, एकरूपता है। कथा पंडाल में भारत की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक आत्मा, समुद्र मंथन की कथा में साथ दे रही है। अनेकता, बहुरूपता, विविधता ही सिंहस्थ है।
कथा में स्वामी नचिकेता गिरि जी, श्रीमती साधना सिंह जी, मंजू डागा जी, विनोद गाड़िया जी, शिविर संरक्षक पुरुषोत्तम अग्रवाल जी, शिविर प्रमुख विनोद जी अग्रवाल, सुशील बेरीवाला जी की उपस्थिति रही। 18 मई तक चलने वाली कथा नियमित दोपहर 4:30 बजे से सायं 7 बजे तक होगी जिसका सीधा प्रसारण संस्कार चैनल पर भी देखा जा सकता है।