top header advertisement
Home - धर्म << प्रभु प्रेमी संघ शिविर में आयोजित “श्रीमद् भागवत कथा”

प्रभु प्रेमी संघ शिविर में आयोजित “श्रीमद् भागवत कथा”


श्रीमद भागवत कथा का चतुर्थ दिवस

। प्रभु प्रेमी संघ शिविर, उजरखेड़ा, उज्जैन में आयोजित “श्रीमद् भागवत कथा” के चतुर्थ दिवस पर उपस्थित श्रद्धालुओं के विराट समूह को संबोधित करते हुए व्यासपीठ से जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने कहा –

“धरा पर धन्य वही है जो मनोजयी है, वे ही चिरकाल से स्थापित है, जिन्होंने अपने मनोविकार जीत लिए हो। उसी को जीवन के आनंद का अनुभव भी मिला है, जो परमानंद है। चिर स्थायी प्रसन्नता उसी को अनभूत हुई है, जो आत्म संयमी है। जिसने कामनाओं को नियंत्रित किया है। जो अपनी कामनाओ पर विराम लगाना जानता है, ऐसा पुरुषार्थी साधक जीवन के बड़े आनंद का भागीदार बनता है। यदि हम आनंदित नहीं है, तो हमारी शैली में कोई दोष है।

विचार की महिमा को बताते हुए पूज्यश्री ने कहा पुरुषार्थी वही है, जिसे अपनी अज्ञानता, दुर्बलताओं का पता हो। अपनी आसक्ति बहुत नीचे ले आती है। आज वर्तमान में सिंहस्थ में केवल विचार ही तो है। साधू, संतों-आचार्यो के पास, प्रशासकों - उपासकों के पास उत्तम विचार ही तो है जिसके कारण हम सभी इस महनीय पल के साक्षी बन रहे हैं।    

विचार व्यक्ति को सार्थकता प्रदान करता है, स्वयं के प्रति सचेत होकर सोचे। महाग्रंथ गीता भी विचार है। हमारी कालजयी संस्कृति में भी सभी विषयों पर विचार किया गया है। यह धरती विचारकों की धरती है। धरती के गर्भ पर विचार हो। नदियों के प्रवाह पर विचार हो। क्षिप्रा अम्रुतोद्भावा है, नारायण भी नीर से ही है, नीरजा भी नीर से ही है। हमारा सकल सारोकार बिना नीर के संभव नहीं है।

यह कथा जड़ भरत से है। जिस दिन व्यक्ति के चिंतन में यह विचार हो कि यह शरीर देव देवालय है तब बड़ा विचार आ सकता है। जिस भी निर्मती में सकारात्मक विधेयक चिंतन आएगा, उस दिन प्रकृति मोहक, मधुर, सुन्दर, अपनी एवं भगवदीय लगने लगेगी। अर्पण, तर्पण, समर्पण भारत की संस्कृति में ही मिलते हैं। जो है वह मेरा नहीं है, उसमें से कुछ अर्पण कर दे।

हमारा चिंतन ऐसा होना चाहिए कि हम कभी भी दूसरों के मन को आहत न करें। दरिद्र के प्रति, दीन के प्रति, अभावग्रसित के प्रति संवेदनशील रहें, उनका सम्मान करें इससे बड़ा विचार और क्या होगा कि हमारी संस्कृति ने दरिद्र को भी नारायण कहा है।

जो प्रकाश रत है, जो ज्ञान रत है, वह भारत है। न केवल हम प्रकाश के उपासक रहे हैं, हम तो रात के भी आभारी हैं जिसके कारण हम चंदा, तारे, निहारिकाओं को देख पाए। जिस दिन विचार मंद हो जाएगा आप नीचे धरा पर आ जाओगे।

जो कुछ अधिक आकर्षण आप के आस पास है, जो कुछ भी अलौकिकता है, वह आपकी योग्यता नहीं, वह ईश्वर का उपहार है। विचार के साथ ही आग्रह है। जैसा आपमें विचार जागेगा आप की प्रकृति वैसी ही बनती जाएगी। साधू होना बड़ी बात है, जिसमे नेतृत्व की भूख न हो वह साधू है। 

एक प्रवृत्ति और प्रचंड हुई है। व्यक्ति बिना योग्यता, पात्रता से पा लेना चाहता है। तत्काल मिले और अभी मिले। मुझे ही मिले। अब आध्यत्मिक गलियारों में भी अलंकार की चिंता होने लगी है, सम्मान, पद-प्रतिष्ठा मिले यदि ये संकट लिए घूम रहे हैं तो साधना की अति आवश्यकता है।

उदारता कभी - कभी आसक्ति न दे जाए, जब अपेक्षा पूरी नहीं होती है तो दुःख होता है। मन इतना बावरा है, जिनके पास कुछ नहीं है, उनकी उपेक्षा करता है। अपने से कोई बहुत बड़ा है, उससे बहुत ईर्ष्या है। यदि अपनों से अपेक्षा हो रही है तो आपको साधना के माध्यम से आध्यात्मिक अंतःकरण बनाना चाहिए। जब तक आपकी साधना पूरी नहीं होगी, अनेक बार आपको इस धरती पर देह मिलती रहेगी। पत्थर की भी तक़दीर बदल सकती है, जब उसे ढंग से तराशा जाए। हम पत्थर में तो भगवान मान रहे हैं, लेकिन अपने में नहीं देख रहे हैं।

जिसके अन्दर की पशुता खो गई है, वह आदमी है। आदमी ही ऐसा है जिसमें ईश्वरीय सामर्थ्य है, जिस दिन इसे वैराग्य का अनुभव हो गया, विचार सम्पन्नता हो गई, उस दिन आप चिदानंद रूप हो जायेंगे। जिस दिन भी आपको अपनी स्मृति लौट आई, तब आप परमात्मा ही हैं। सभी सामर्थ्य, शक्ति, अजेयता ईश्वर ने आपको दी है। भगवान का सबसे मूल्यवान उपहार हमें सौंपा है, वह आज का वर्तमान है। जो हमें कल नहीं मिलेगा।  

जीवन की गुणवत्ता क्या है, जिए तो कितनी गुणवत्ता से जिए। लकड़ी चूल्हे में जलकर राख बन कर कचरे में जाती है, वहीँ समिधा यज्ञ में भस्म बनकर मस्तक पर आती। आत्म विस्मृति ही दुःख का कारण है। अपनी स्मृति ही गीता का फल है। सफल एवं समृद्ध जीवन के लिए वेदविहित, शास्त्र सम्मत मार्ग पर, महत्जन द्वारा आचरित मार्ग पर एवं गुरु द्वारा उपदेशित मार्ग पर चलना चाहिए। आत्मा का आहार ईश्वर भजन है। जिसमे लोक कल्याण की भावना जुड़ी हो - वह भजन है।  

जैसी वृत्तियाँ होती हैं, वैसी प्रवृत्तियां बन जाती हैं। हमारे पुण्य कर्म, सद्कर्म प्रकाशित होना चाहता है, वहीँ पाप गोपनीयता चाहता है, तब, जब आपके पास शास्त्र विचार नहीं होगा, जब आप में अविश्वास पैदा होगा। बड़े कार्य एकाग्रता में ही हुए है। दुसरे का हित करना ही पुण्य है और अहित करना पाप है। जो हमें अच्छा नहीं लगता, वह हमें दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए। हमारी वृत्तियों को ठीक बनाना ही साधना है। अच्छा बोलो, मीठा बोलो, ऊँचे विचार के साथ रहो। इससे आपमें उच्चता आएगी। आप सहज रहें स्वभाविक रहें।  

 

कथा के दौरान भारत की अनेकता एवं एकरूपता को प्रदर्शित करते हुए अरुणाचल एवं मेघालय के सुदूर वनवासी क्षेत्रों से आये वनवासी बंधु-भगिनियों ने मनमोहक लोकनृत्य प्रस्तुत किया। माननीय मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान जी ने “राम भजन सुखदायी, जपो रे मेरे भाई, ये जीवन दो दिन का....”; “हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे । हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे....” संकीर्तन की सुमधुर प्रस्तुति दी।

कथा में स्वामी नचिकेता गिरि जी, स्वामी परमात्मानंद गिरि जी, राजस्थान की माननीया मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया जी, श्रीमती साधना सिंह जी, शिविर संरक्षक पुरुषोत्तम अग्रवाल जी, शिविर प्रमुख विनोद जी अग्रवाल, सुशील बेरीवाल की उपस्थिति रही। 18 मई तक चलने वाली कथा नियमित दोपहर 4:30 बजे से सायं 7 बजे तक होगी जिसका सीधा प्रसारण संस्कार चेनल पर भी देखा जा सकता है।

Leave a reply