पृथ्वी के 30 प्रतिशत क्षेत्र को मनुष्यों के लिये प्रतिबंधित कर दें, तो पृथ्वी अपने संसाधनों को समृद्ध कर लेगी
अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ में सदगुरू श्री जग्गी वासुदेव से सतत् विकास और जलवायु परिवर्तन पर चर्चा
ईशा फाउंडेशन के प्रमुख और आध्यात्मिक गुरू सदगुरू जग्गी वासुदेव ने आज उज्जैन के निनौरा गाँव में अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ में सतत विकास और जलवायु परिवर्तन विषय पर विशेष सत्र में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का बँटवारा जनसंख्या वृद्धि के कारण दिन-प्रतिदिन मुश्किल होता जायेगा। इसके लिये सबसे अच्छा समाधान यह होगा कि पृथ्वी के 30 प्रतिशत क्षेत्र को मनुष्यों के लिये प्रतिबंधित कर देना चाहिये। उन्होंने कहा कि प्रकृति में स्वयं को सुधारने की अदभुत क्षमता है। यदि मानव का हस्तक्षेप कम हो जाये, तो उसके लिये संसाधनों की भी कमी नहीं होगी। मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने सदगुरू का स्वागत किया। सदगुरू ने जलवायु परिवर्तन विषय पर पूछे गये सवालों के सिलसिलेवार जवाब दिये।
सदगुरू ने जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिग से उपजी समस्याओं को समझाते हुए कहा कि मानव स्वयं पाँच तत्व से बना है। शरीर में इन तत्वों के असंतुलन का प्रभाव धीरे-धीरे पर्यावरण पर पड़ने लगता है। इन पाँच तत्वों का समन्वय ही जादुई प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। उन्होंने कहा कि मानवीय आकांक्षाओं को बलपूर्वक नहीं बदला जा सकता लेकिन सकारात्मक उददेश्यों के लिये परिवर्तित किया जा सकता है। सदगुरू ने कहा कि स्थायी समाधान के लिये मानव समाज को व्यक्तिगत चेतना को विशाल चेतना में मिलने का मार्ग दिखाना होगा। उन्होंने कहा कि पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय मुददों को हल करने के लिये अब किसी व्यवस्था और मशीन की जरूरत नहीं बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान और उसके प्रयोग की जरूरत है।
सदगुरू ने कहा कि ज्ञान का दुरूपयोग सबसे बड़ी चिंता है। मानव जिन पाँच तत्व से बना है उनमें आपसी संवाद की स्थिति बनना चाहिये। यह सप्रयास संभव है क्योंकि पाँचों तत्वों में परस्पर गहरा संबंध है। एक तत्व दूसरे पर हावी नहीं हैं और न ही हस्तक्षेप करता है। जो हम छू सकते हैं उसका हम स्वाद नहीं ले सकते। जो देख सकते हैं उसे छू नहीं सकते। उन्होंने कहा कि आधुनिक समाज में मनुष्य, जीवन के इस सौंदर्य से परिचित होने के बजाय इसे नष्ट कर रहा है।
सदगुरू ने कहा कि यदि मानवीय समाज अपना स्वभाव नहीं बदलेगा तो प्रकृति में स्वयं निर्णय लेने की अपार क्षमता है। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन जैसे विषम विषयों को समझने और उनका समाधान पाने के लिये मानवीय चेतना को और ज्यादा जीवंत बनाने की जरूरत है। जब नजरिया बदलेगा तो समस्या का समधान भी जल्दी मिलेगा। उन्होंने कहा कि ज्ञान का दुरूपयोग सबसे ज्यादा घातक स्थिति है। दूसरी बड़ी समस्या जनसंख्या विस्फोट की है। जो लोग अपनी इच्छा से संसार को परिवार मानकर स्वयं अपना परिवार नहीं बढ़ाते वे नमनयोग्य हैं। जो जान-बूझकर अपना परिवार बढ़ाते हैं वे प्रकृति के प्रति अपराध कर रहे हैं। इससे प्रकृति के संसाधनों की बेजा हानि होती है। उन्होंने कहा कि संसाधन जैसे पानी, हवा सिर्फ संसाधन मात्र नहीं है वे जीवन निर्माण करने वाले पदार्थ हैं।
प्रोद्योगिकी और विज्ञान के दुरूपयोग के संबंध में सदगुरू ने कहा कि यह समस्या नहीं है। इनके उपयोग में मानवीय विवेक की उच्चता से जीवन की गुणवत्ता सुधर सकती है। यह भी सोच अपनी चेतना में रखना होगी कि हम प्रकृति में स्थायी नहीं हैं। जितना हम लेते हैं वह प्रकृति में ही चला जायेगा। इसलिये जैसी पृथ्वी हमें पुरखों से मिली है उससे अच्छी हमें नई पीढ़ी के लिये छोड़ना होगा। लालच को छोड़ना होगा। सफलता के मानदंडों को बदलना होगा। आध्यात्मिकता की स्थापना और संचालन अनिवार्य हो गया है। इस प्रकृति में हमें जीना है इसके मालिक नहीं बनना है। यह भी देखना होगा कि आर्थिक दबाव के चलते जीवन का आधार समाप्त नहीं हो पाये। जो व्यवस्था मिली है उसी में बेहतर प्रबंधन करके समाधान निकालना होगा। हरियाली का विरल होते जाना भी एक समस्या है जिसका समाधान हर नागरिक के पास है।
सदगुरू ने कहा कि भारत की भूमि में इतनी क्षमता है कि वह कई देशों को अन्न दे सकती है। उन्होंने मध्यप्रदेश का उदाहरण देते हुए कहा कि यहाँ खेती लगातार आगे बढ़ रही है और निरंतर उच्च वृद्धि दर बनी हुई है।