सुख बांटने का संकल्प
-ललित गर्ग
हमारी भारत भूमि पर बहुत से लोग ऐसे हैं जो जन्म तो लेते हैं पर जीवन को जी नहीं पाते, जीवन को ढ़ोते हैं। क्योंकि जीवन की मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और झौंपड़ी के अभाव के कारण वे घायल हैं। शिक्षा के अभाव में उनकी चेतना अपाहिज है। नैतिक संस्कारों के अभाव में मानवीय मूल्यों से गिरते जा रहे हैं और व्यसनों के दलदल में धंसते जा रहे हैं।
मुझे इस बात की प्रसन्नता की बात है कि सुखी परिवार फाउण्डेशन और उसके प्रणेता गणि राजेन्द्र विजय के पाँव सेवा की डगर पर गांवों की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। सुखी परिवार एकलव्य माॅडल आवासीय विद्यालय, ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास, सुखी परिवार गौशाला आदि-आदि गुजरात के आदिवासी अंचल में गणि राजेन्द्र विजयजी द्वारा संचालित प्रोजेक्ट एवं सेवा कार्यों की मोटी सूची में मानवीय संवेदना की सौंधी-सौंधी महक फूट रही है। लोग गांवों से शहरों की ओर भाग रहे हैं, गणि राजेन्द्र विजयजी की प्रेरणा से कुछ जीवट वाले व्यक्तित्व शहरों से गांवों की ओर जा रहे हैं। मूल को पकड़ रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे-‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है।’ शहरीकरण के इस युग में इन्सान भूल गया है कि वह मूलतः आया कहां से है? जिस दिन उसे पता चलता है कि वह कहां से आया है तो वह लक्ष्मी मित्तल बनकर भी लंदन से आकर, करोड़ों की गाड़ी में बैठकर अपने गाँव की कच्ची गलियों में शांति महसूस करता है। स्कूल, हाॅस्पीटल व रोजगार के केन्द्र स्थापित कर सुख का अनुभव करता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए, संकरी-पतली पगडंडियों पर चलकर सेवा भावना से भावित जब उन गरीब बस्तियों तक पहुंचते हैं तब उन्हें पता चलता है कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने के मायने क्या-क्या हैं? कहीं भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी जुटाना सपना है, तो कहीं सर्दी, गर्मी और बरसात में सिर छुपाने के लिए झौपड़ी की जगह केवल नीली छतरी (आकाश) का घर उनका अपना है। कहीं दो औरतों के बीच बंटी हुई एक ही साड़ी से बारी-बारी तन ढ़क कर औरत अपनी लाज बचाती है तो कहीं बीमारी की हालत में इलाज न होने पर जिंदगी मौत की ओर सरकती जाती है। कहीं जवान विधवा के पास दो बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी तो है पर कमाई का साधन न होने से जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर होती है, तो कहीं सिर पर मर्द का साया होते हुए भी शराब व दुव्र्यसनों के शिकारी पति से बेवजह पीटी जाती हैं इसलिए परिवार के भरण-पोषण के लिए मजबूरन सरकार के कानून को नजरंदाज करते हुए बाल श्रमिकों की संख्या चोरी छिपे बढ़ती ही जा रही है। कहीं कंठों में प्यास है पर पीने के लिए पानी नहीं, कहीं उपजाऊ खेत है पर बोने के लिए बीज नहीं, कहीं बच्चों में शिक्षा पाने की ललक है पर माँ-बाप के पास फीस के पैसे नहीं, कहीं प्रतिभा है पर उसके पनपने के लिए प्लेटफाॅर्म नहीं। कैसी विडंबना है कि ऐसे गांवों में न सरकारी सहायता पहुंच पाती है न मानवीय संवेदना। अक्सर गांवों में बच्चे दुर्घटनाओं के शिकार होते ही रहते हैं पर उनका जीना और मरना राम भरोसे रहता है, पुकार किससे करें?
माना कि हम किसी के भाग्य में आमूलचूल परिवर्तन ला सकें, यह संभव नहीं। पर हमारी भावनाओं में सेवा व सहयोग की नमी हो और करुणा का रस हो तो निश्चित ही कुछ परिवर्तन घटित हो सकता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी धुन के धनी व संकल्प के पक्के हैं। वे इनदिनों सम्मेदशिखरजी ( झारखंड ) की यात्रा पर यात्रायित है। पैदल चलना तो सभी जैन मुनियों का जीवनव्रत है, लेकिन गणिजी एक दिन में 50-50 किलोमीटर चल लेते, अक्सर वे एक दिन में इतनी लम्बी-लम्बी ही पदयात्राएं करते हैं। इस वर्ष के दिल्ली चातुर्मासे से पहले वे आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये और उनके कल्याण की योजना को मिशन बना कर गुजरात के बलद, कवांट, बोडेली, रंगपुर, छोटा उदयपुर आदि क्षेत्रों में धुनी रमाई और विविध योजनाओं को आकार दिया। वे एक ओर गांवों में बच्चों को छात्रवृत्ति देकर व शिक्षा की सुविधाएं प्रदान कर शिक्षा का प्रकाश फैला रहे हैं तो दूसरी ओर स्वास्थ्य परीक्षण, सफाई प्रशिक्षण, निःशुल्क दवाई वितरण, शल्य चिकित्सा आदि के द्वारा उनके रोग निवारण का बीड़ा उठा रहे हैं। निराश्रितों को स्वावलम्बी बनाने के लिए सिलाई मशीनें, खेती के लिए बीज आदि आवश्यक साधन वितरण कर रहे हैं तो साथ-साथ विविध प्रशिक्षण देकर उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने की प्रेरणा भी दे रहे हैं। वे गाय के कल्याण के लिये अनेक बहुआयामी योजनाओं को आकार देने में भी जुटे हैं। वे बिना रुके, बिना थके लगातार सलक्ष्य सुख बांटने का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे हंै। उनके जीवन के सन्दर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियां जीवंत हो उठती है कि सुख बढ़ जाता, दुःख घट जाता, जब वह बंट जाता।’
भगवान महावीर के सिद्धांतों को जीवन दर्शन की भूमिका पर जीने वाले गणिजी ने संपूर्ण मानवजाति के परमार्थ में स्वयं को समर्पित कर मुनि जीवन को एक सार्थक पहचान दी है। संप्रदाय विशेष से बंधकर भी आपके निर्बंध कर्तृत्व ने राष्ट्रीय एकता, सदभावना एवं परोपकार की दिशा में संपूर्ण राष्ट्र को सही दिशाबोध दिया है।
आपका जन्म गुजरात के बड़ौदा जिले के बलद गांव में 19 मई, 1974 को हुआ। ग्यारह वर्ष की अल्प आयु में आपने साधनामय जीवन की ओर अपने चरण अग्रसर किए एवं एक वर्ष तक गुरु सन्निधि में गहन तप और ज्ञान गंगा में निमज्जन करके बारह वर्ष की आयु में सन् 1986 की अक्षय तृतीया के शुभ दिन अकोला (महाराष्ट्र) में संयम जीवन अंगीकार किया। तभी से गुजराती, हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी, प्राकृत आदि भाषा के ज्ञान के साथ जिन-धर्म, दर्शन, साध्वाचार, तत्वार्थ, आगम आदि ग्रंथों का अपने गुरु की निश्रा में 17 वर्ष तक अध्ययन किया।
गणि राजेन्द्र विजय अहिंसा के आस-पास जीते हैं। वे मानते हैं कि अहिंसा में सौदा नहीं होता। तुम इतना करो तो मैं इतना करूं, यह स्वार्थ है। जबकि अहिंसा स्वार्थ नहीं, परार्थ और परोपकार है। उन्होंने जैन धर्म और अहिंसा का प्रचार-प्रसार उन आदिवासी क्षेत्रों में व्यापकता से किया है जो जैनेत्तर क्षेत्र कहे जाते हैं और जिनमें हिंसा की बहुलता है। गुजरात के बड़ोदरा जिले के आदिवासी अंचल के लोगों में उनके विचारों और अहिंसक कार्यक्रमों का इतना व्यापक प्रभाव स्थापित हुआ है कि लाखों की संख्या में लोगों ने न केवल हिंसा को छोड़ा है बल्कि अपनी जीवन शैली को अहिंसा के अनुरूप ढाला है।
गणि राजेन्द्र विजय ओजस्वी वक्ता हैं। जब वे बोलते हैं तो हजारों नर-नारियों की भीड़ उन्हें मंत्रा-मुग्ध होकर सुनती है। अपने प्रवचनों में वे धर्म के गूढ़ तत्वों की ही चर्चा नहीं करते, उन्हें इतना बोधगम्य बना देते हैं कि उनकी बात सहज ही सामान्य-से-सामान्य व्यक्ति के गले उतर जाती है। 20 से अधिक पुस्तकों के लेखक गणिजी का लेखन भी एक ऊंचे ध्येय से प्रेरित है। आप परोपकार एवं परमार्थ के प्रेरक व्यक्तित्व हैं।
गणि राजेन्द्र विजय ने स्वस्थ एवं नैतिक लेखन को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से श्री विजय इन्द्र टाइम्स, उदय इंडिया एवं समृद्ध सुखी परिवार जैसी पत्रिकाएं प्रारंभ की। मनुष्य अच्छा मनुष्य बने, उसके अंदर मानवीय गुणों का विकास हो, वह नैतिक और चारित्रिक दृष्टि से उन्नत बने, अपने कत्र्तव्य को वह जाने और निष्ठापूर्वक उसका पालन करे, समष्टि के हित में वह अपना हित अनुभव करे इस दृष्टि से उन्होंने ‘सुखी परिवार अभियान’ के रूप में एक समग्र आदर्श परिवार की परिकल्पना प्रस्तुत की है। यह व्यक्ति और परिवार से स्वस्थ समाज और स्वस्थ समाज से स्वस्थ राष्ट्र की आधार भूमि है। सुखी परिवार अभियान आज राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसा, नैतिकता, सदाचार और स्वस्थ मूल्यों की स्थापना का एक अभिनव उपक्रम बनकर प्रस्तुत है। सुखी परिवार अभ्यियान द्वारा वे एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते हैं जहां हिंसा व संग्रह न हो, अशिक्षा और आडम्बर न हो। न कानून हो न कोई दंड देने वाला सत्ताधीश हो। न कोई अमीर हो, न कोई गरीब। एक का जातिगत अहं और दूसरे की हीनता समाज में वैषम्य पैदा करती है। अतः सुखी परिवार अभियान प्रेरित समाज समान धरातल पर विकसित होगा। इसके लिए वे अनुशासन और संयम की शक्ति को अनिवार्य मानते हैं।