कुम्भ और मोहिनी का सच
सन्तोष मिश्र
समुद्र-मंथन की कथा से हमारा और हमारी स्मृति का परिचय बहुत पुराना है। भक्त कवियों, तांत्रिकों और तमाम सारे साहित्य में देह को कुम्भ कहा गया है। हमारी ज्ञान-परम्परा समुद्र का मंथन रचती है। देह और धरती के अनुपात में जल और मिट्टी का अनुपात एक जैसा है। सत्य को संरक्षित करने की यह अप्रतिम विधि और उसके रहस्य का उदघाटन हम लगभग भूल चुके हैं। कथा के शब्दार्थ के बजाय उसके पीछे के अर्थ को जानना और जानने की इच्छा रखना ही अपने पूर्वजों के प्रति वास्तविक श्रद्धा और सम्मान है। मंथन के कथा अभिप्राय में मदरांचल रूपी मद यानी अहंकार को आधार बनाने, वासुकि रूपी वासना को रज्जु यानी रस्सी बनाने और जीवन की उत्कट इच्छा के प्रतीक रूप में कछुए के प्रतीक से यदि अपने भीतर सच और झूठ के द्वन्द से मंथन किया जायेगा, तो यह सुनिश्चित है कि हमारे भीतर का सभी हलाहल (विष) बाहर होगा। हमें क्रमशः वे सभी रत्न वैभव, बल, गति, सुगन्ध, सौन्दर्य, धन, ऐश्वर्य, नाद और इच्छा प्रतिपूर्ति के समस्त साधन हमारी पात्रता अनुसार मिलते हैं। यदि हमने ठहरना सुनिश्चित न किया, तो अन्तिम रूप से अमृत प्राप्त होगा ही। अमृत प्राप्त होने का अर्थ ही है कि जीवन-मृत्यु के चक्र से परे देव योनि, जो प्रत्येक जातक के जन्म का प्रयोजन है, वह प्राप्त होगी।
इस सुन्दर कथा में एक बहुत बारीक सत्य सांकेतिक रूप से अभिव्यक्त है। भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण कर अमृत का सम्यक विभाजन करते हैं। यह कैसे सम्भव है कि भगवान विष्णु से छिपकर कोई असुर अमृत का पान कर सके। असुर हमेशा सुर की यात्रा के लिए उपयोगी है। बिना उसके अमृत प्राप्त किया नहीं जा सकता। इसलिए शायद प्रतीकात्मक रूप से राहू को अमृत देकर भगवान विष्णु हमारे साथ ही असुर को भी हमारे ही कल्याण के लिए अमरत्व का वरदान देते हैं।
समुद्र-मंथन की कथा के संज्ञान से व्यक्ति अपने भीतर के मंथन की यात्रा भले न कर सका हो, पर इतना तो घटित हो ही गया है कि सदियों से हम इस कथा के बहाने जल, जीवन, सामुदायिकता, परस्पर सौहार्द प्रकट करने पवित्र स्थलों पर एकत्र होते हैं। ज्ञानियों और सिद्धों का आशीष प्राप्त करते हैं। अपनी जिज्ञासाओं के समाधान हम महाकुम्भ में पधारे आचार्यों से प्राप्त करते हैं। इतना भी प्रयोजन किसी मंथन से प्राप्त हुए अमृत से कम नहीं है।