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किसी की सफलता , किसी की सजा...!!



तारकेश कुमार ओझा
उस दिन मैं दोपहर के भोजन के दौरान टेलीविजन पर चैनल सर्च कर रहा था। अचानक सिर पर हथौड़ा मारने की तरह एक एंकर का कानफाड़ू आवाज सुनाई दिया। देखिए ... मुंबई का छोरा - कैसे बना क्रिकेट का भगवान। फलां कैसे पहुंचा जमीन से आसमान पर। और वह उम्दा खिलाड़ी कैसे बन गया खलनायक। माजरा  समझते देर नहीं लगी  कि तीन दिग्गज खिलाड़ियों पर बनने जा रही फिल्म की चर्चा हो रही है। जिसमें एक का  मामला तो साफ था। क्योंकि वह सट्टेबाजी में फंस चुका है। स्पष्ट था कि यहां भी बदनाम होकर नाम कमाने वाली बात है।सटटेबाजी में बदनाम हुए तो क्या फिल्म में उसके जीवन के हर चमकदार कोण को दिखाने की पूरी कोशिश तो होगी ही। जिससे दर्शकों को बढ़िया मसाला मिल सके। फिल्म बनाने वाले तो दाऊद इब्राहिम का महिमामंडन करने से भी नहीं चूकते। फिर वह तो क्रिकेट खिलाड़ी है। कुछ साल पहले एक फिल्म में खलनायक को हर बुरे कर्म करते दिखाया जा रहा था। लेकिन साथ ही उसके पक्ष में दलील दी जा रही थी कि उसका बाप जो खुद भी महा - दुष्ट था और उसकी दुश्मनों ने हत्या कर दी थी। लिहाजा यह आदमी ऐसा हो गया। फिल्म में उसके तमाम पापों को महज इसी आधार पर सही ठहराने की कोशिश भी की जा रही थी। समझने में दिक्कत नहीं हुई कि नई फिल्म में  इस खिलाड़ी के श्याम पक्षों को दिखाते हुए भी फिल्म में उसका जम कर महिमामंडन किया जाएगा। बताया जाएगा कि बेचारे को किसी रैकेट में फंस कर सट्टेबाजी की लत लग गई। लेकिन असल में वह ऐसा नहीं था। बदनामी से बचे रहने वाले बाकी दो खिलाड़ियों की सफलताओं को तो इस तरह बढ़ा - चढ़ा कर दिखाया जा रहा था मानो वे भगवान बनने से बस कुछ कदम ही दूर है। संदेश साफ था बाजारवादी शक्तियों का बस चले तो इन क्रिकेट खिलाड़ियों को अभी भगवान या महामानव घोषित कर  दे, लेकिन...। कुछ दूसरे चैनलों पर भी इन खिलाड़ियों पर बनने जा रही फिल्मों की आक्रामक चर्चा देखी - सुनी। जिसके बाद मैं सोच में पड़ गया। किसी दार्शनिक के मुताबिक जब हम किसी स्कूल के एक बच्चे को उसकी श्रेष्ठता के लिए पुरस्कार देते हैं तो इसी के साथ हम उस कक्षा के दूसरे तमाम बच्चों का अप्रत्यक्ष रूप से तिरस्कार भी करते हैं। मुझे लगा कहीं अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले खिलाड़ियों की सफलताओं का यशगान करते हुए यही गलती तो नहीं दोहराई जा रही। क्योंकि यह देश के हर युवा की कहानी नहीं है। न हर किसी के साथ ऐसा संयोग हो सकता है। क्रिकेट के विशाल बाजार के बल पर सफलता की ऊंची छलांग लगाने वाले दो - चार खिलाड़ी देश के आम युवा वर्ग के जीवन को प्रतिविंबित नही करते। आज सच्चाई यह है कि परिस्थितियां हर किसी को अंदर से तोड़ने का काम कर रही है। बड़े - बड़े शिक्षण संस्थानों से पढ़ कर निकलने वाले छात्र भी अपने भविष्य को ले कर निराश - हताश हैं और अवसाद के चलते आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। औसत और अत्यंत साधारण युवकों की तो बात ही क्या। उनकी परेशानियां कम होने का नाम ही नहीं लेती। लाखों युवा बचपन से सीधे बुढ़ापे में प्रवेश करने को अभिशप्त हैं।विपरीत परिस्थितियों के चलते 30 साल की उम्र में वे 60 के नजर आते हैं। जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी जिनके लिए किसी दुरुह कार्य की तरह है उनके सामने मुट्ठी भर खिलाड़ियों के वैभव - ऐश्वर्य और भोग - विलास भरी जिंदगी का बखान क्या उचित कहा जा सकता है। यह मुट्ठी भर सफल लोगों का महिमामंडन करते हुए उन करोड़ों लोगों के मानसिक उत्पीड़न की तरह है जो अथक परिश्रम के बावजूद जीवन  में बस संघर्ष ही करते रहने को मजबूर हैं।

 

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