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जिद, जोश और जुनून से रोशन होती जिंदगियां - नेत्रदान


जिंदगी सफलता और असफलता की एक अजीब दास्तान है। कभी ये खुशनुमा होती है तो कभी गम के स्याह पन्ने इसकी उघेड़बुन को कुरेदते रहते हैं। दुनिया में ज्यादातर लोग अपने हिसाब से अपने हिस्से की जिंदगी जीते हैं, लेकिन कभी-कभी अनजाने में कुछ लोग गुमनाम लोगों की जिंदगी के हिस्से बनकर उनकी जिंदगी को रोशन कर जाते है। कुछ ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है उज्जैन की तराना तहसील के  में रहने वाले कुछ नौजवानों ने। जिनके पास वक्त की कमी थी, लेकिन मुट्ठी से रेत की तरह फिसलते वक्त को भी उन्होने थाम लिया। उनकी अपनी जिंदगी खुशहाल थी, लेकिन दूसरों की जिंदगी में खुशियों को लाने का फैसला उन्होने किया। जिंदगी के अहसासों को वो खुली आंखों से देख सकते थे और बेहतर तरीके से महसूस कर सकते थे, लेकिन उन्होने अंधेरे में डूबी जिंदगियों को रोशन करने का फैसला किया। ये जोश, जज्बा, त्याग, मेहनत और लगन की गाथा गढ़ी है तराना शहर के कुछ नौजवानो और उनके ग्रुप दिव्य दृष्टी केंद्र ने। दिव्य दृष्टी केंद्र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तहत कार्य करता है, जहां मरणोपरांत नेत्रदान करवाने का पुण्य काम का जाता है।

                                           तराना जैसे एक छोटे से कस्बे में सफलता का ये सिलसिला एक नाकामी से जुड़ा हुआ है, यानी युवाओं की इस टोली का काम उस कहावत से जुड़ा हुआ है कि असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी होती है। ये कहानी कुछ सालों पहले की है जब एक मित्र ने अपने परिजन की आंखें दान करने की ख्वाहिश जाहिर की थी, लेकिन उचित सामंजस्य और जानकारी के अभाव में यह काम उस वक्त संभव नही हो पाया। तभी वक्त की नजाकत को भांपते हुए, बगैर वक्त गंवाये दिव्य दृष्टी केंद्र से जुड़े लोगों ने भविष्य की रूपरेखा तय करने की ठानी । प्लानिंग का पहला हिस्सा ये था कि किस तरह से मृतक के परिजनों को नेत्रदान के लिये तैयार किया जाये। उसके बाद नेत्रदान के लिये टीम को  उज्जैन से संपर्क कर तराना बुलवाया जाये। और येह सभी काम तय समय सीमा में होना भी जरूरी था। क्योंकि मृत्यु के छह घंटों के अंदर आंखों को निकालना जरूरी होता है। युवाओं की मेहनत और लगन कुछ दिनों में रंग लाने लगी। साल 2013 में इन युवाओं के प्रयास ने तराना शहर में पहला नेत्रदान हुआ जो शहर के मशहूर कारोबारी सुंदरलाल मूदड़ा का था। इसके बाद तो जैसे शहर में नेत्रदान का सिलसिला आगे बढ़ता ही चला गया। 2013 में 6, 2014 में पांच नेत्रदान हुए, वहीं 2015 में यह आंकड़ा दस तक पहुंच गया। साल 2016 में अब तक तीन नेत्रदान हो चुके हैं और 120 लोग नेत्रदान का संकल्प ले चुके हैं। इन युवाओं के जज्बे  को देखते हुए बाहर के लोगों ने भी इनसे नेत्रदान के लिये संपर्क किय़ा और इन्होने वहां पर भी नेत्रदान का सफल आयोजन किया।

                                        नेत्रदान में सबसे बड़ी दिक्कत थी आंखों के कॉर्निया को निकालने की। क्योंकि इसके लिये टीम उज्जैन से आती थी जिसमें काफी समय जाया होता था। इस समस्या का हल निकालने की ठानी शहर के एक व्यस्त कारोबारी शिवम मित्तल ने। जिन्होने अपना प्रतिष्ठित फैला हुआ कारोबार छोड़कर कॉर्निया निकालने की ट्रेनिंग लेने का दृढ़ संकल्प लिया। कारोबार से तीन मिनट निकालने में दिक्कत महसूस करना वाले शिवम ने तीन महिने हैदराबाद के प्रसिद्ध एल.वी. प्रसाद आई हॉस्पीटल से कॉर्निया को निकालने की ट्रेनिंग ली। और ट्रेनिंग में होने वाला सारा खर्च आर एस एस के सेवा विभाग के साथ खुद ने वहन किया। इस तरह से तराना में कॉर्निया के निकालने का काम भी सफलतापूर्वक होने लगा। मृतक के कॉर्निया को निकालने के बाद इनको एम. के. इंटरनेशनल आई बैंक इंदौर में भेजा जाता है। जहा पर जरूरतमंदों को कॉर्निया का प्रत्यारोपण किया जाता है। एम. के. इंटरनेशनल आई बैंक से कॉर्निया ज्यादातर चित्रकूट और उसके आसपास के इलाकों में भेजे जाते हैं जहां पर गरीब लोगों को आई बैंक अपने खर्च पर कॉर्निया का प्रत्यारोपण करता है। यह जोश, जज्बे और जीत की वो कहानी है, जिसमें कामयाबी का जश्न है, किसी की जिंदगी में रंग बिखेरने की खुशी है, किसी के सपनों को हकीकत में साकार करने का सुकून है और अंधेरी रोशनी को उजाले से रोशन करने के जज्बात है।

 

 

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