बिकाऊ चेहरों का बाजार...!!
तारकेश कुमार ओझा
दुनिया को बदल कर रख देने वाले कंप्यूटर- इंटरनेट और स्मार्ट फोन बनाने वालोॆं ने क्या कभी हाथों में माइक पकड़ कर भाषण दिया। अविष्कार से पहले कभी दावा किया कि उसकी क्या योजना है , अथवा अविष्कार के बाद भी कोई सामने आया कि उसने किस तरह ये चीजें बना कर मानवता पर उपकार किया। आज से महज एक दशक पहले तक सेलफोन के तौर पर चुनिंदा हाथों तक सीमित रहने वाला मोबाइल आज यदि हर हाथ की जरूरत बन गया है तो उसे इस मुकाम तक पहुंचाने वालों ने क्या कभी ऐसा दावा किया था या लंबे - चौड़े भाषण दिए थे। टेलीविजन पर जब कभी किसी को लच्छेदार बातें करता देखता हूं तो मेरे मन में यही सवाल बार - बार कौंधने लगता है। बेशक लुभावनी बातें मुझे भी लुभाती है। लेकिन दिमाग बार - बार चुगली करता है कि ऐसी लच्छेदार बातें पहले भी बहुत सुनी। लेकिन दुनिया अपनी तरह से आगे बढ़ते हुए चलती है। सिर्फ बोलने - कहने से कुछ नहीं हो सकता। लेकिन बिकाऊ चेहरों के बाजार को क्या कहें जिसे हमेशा ऐसे चेहरों की तलाश रहती है जो बाजार में बिक सके। वह चेहरा किसी क्रिकेटर का हो सकता है या अभिनेता का अथवा किसी राजनेता का। बाजार में बिकाऊ चेहरों की मांग इस कदर है कि अब इसे उन चेहरों को भु नाने से भी परहेज नही जो गलत वजहों से चर्चा में आए । बिकाऊ चेहरों के इस बाजार को पोर्न स्टार को भी सेलिब्रेटी बनाने में कोई हिचक नहीं। पिछले कुछ दिनों से टेलीविजन चैनलों पर कन्हैया कुमार को छाया देख मुझे भारी आश्चर्य हुआ। मैं खुद से ही सवाल पूछने लगा कि कहीं जनलोकपाल बिल वाला 2011 का वह ऐतिहासिक आंदोलन वापस तो नहीं लौट आया। क्योंकि ऐसा लग रहा था जैसे अन्ना हजारे या अरविंद केजरीवाल का कोई नया संस्करण हमारे हाथ लग गया हो। जब देखो किसी न किसी बहाने कन्हैया की चर्चा।कोई उसके गांव - गली की खबरें दिखा रहा है तो कोई एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में पूछ रहा है कि शादी कब रह रहे हैं। ऐसे सवाल तो साधारणतः फिल्मी हीरो या हीरोइनों से ही पूछे जाते हैं। न कोई ब्रेक न व्यावसायिक व्यवधान। जब लगता कि यह कन्हैया डोज कुछ ज्यादा हो रहा है और दर्शक शायद इसे पचा नहीं पाए तभी बताया जाता कि फलां - फलां ने कन्हैया के समर्थन में ट्वीट किया है। आश्चर्य कि जेएनयू में विवादास्पद नारे दूसरे छात्रों ने भी लगाए। लेकिन छाया सिर्फ कन्हैया है क्योंकि उसे बोलना आता है। बेशक उससे पहले कुछ ऐसा ही हाइप उमर खालिद ने भी लेने की कोशिश की। लेकिन वह ज्यादा सफल नहीं हो पाया। फिर पता चला कि वामपंथी कन्हैया से चुनाव प्रचार कराने की भी सोच रहे हैें। सही - गलत तरीके से रातोरात मिली इस प्रसिद्धि पर कन्हैया का खुश होना तो स्वाभाविक है। लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि बिकाऊ चेहरों का यह बाजार हर किसी को भुनाने में माहिर है। मंडल कमीशन के बाद 80 के दशक का आरक्षण विरोधी आंदोलन जिन्हें याद होगा, वे राजीव गोस्वामी को शायद नहीं भूलें होगे जो आरक्षण के विरोध में अपने शरीर पर सार्वजनिक रूप से आग लगा कर कन्हैया कुमार की तरह ही देश - दुनिया में छा गया था। तब चैनलों का कोई प्रभाव तो नहीं था। लेकिन तत्कालीन पत्र - पत्रिकाओं में राजीव की खूब तस्वीरें और खबरें छपी थी। लेकिन कुछ साल बाद आखिरकार राजीव गोस्वामी एक दिन गुमनाम मौत का शिकार बना। 2008 से 2009 तक माओवाद प्रभावित जंगल महल में छत्रधर महतो को भी बिकाऊ चेहरों के बाजार ने जम कर भुनाया। चैनलों पर हर वक्त किसी न किसी बहाने छत्रधर महतो का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू हमेशा दिखाया जाता। लेकिन पकड़े जाने के बाद से छत्रदर महतो का परिवार आज गुमनाम जिंदगी जी रहा है। जिसकी ओर देखने तक की फुर्सत आज उन्हीं के पास नहीं है जिसने कभी उसे हीरो की तरह पेश किया था। सही या गलत तरीके से हीरो बनने या बनाने से बेशक किसी को फर्क नहीं पड़ता, लेकिन डर इसी बात का है कि इसके चलते समाज में बदनाम होकर नाम कमाने का नया ट्रेंड न चल निकले।
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।