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हम जीवन के प्रति धन्यता का अनुभव करें


 
ललित गर्ग
 
आज यह तय करना जरूरी है कि जीवन धन्य है। हमारे स्वयं के प्रति जब धन्यता का भाव होगा तभी हम वास्तविक सफलताओं को सृजित कर सकेंगे। हम जो उद्देश्य लेकर घर से बाहर कदम रखते हैं उससे कभी विचलित नहीं होना चाहिए। डाॅ. अब्दूल कलाम की जिसने जीवनी पढ़ी है तो उसमें उन्होंने लिखा है कि जो हम सोचते है वह अवश्य पूर्ण होता है। 
हर व्यक्ति की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने जीवन में सफलता की उच्चतम ऊंचाइयों को छूना चाहता है। उसकी यह नैसर्गिक आकांक्षा होती है कि उसे मनचाही वस्तु मिले, मनचाहा पद मिले, मनचाहा जीवन साथी मिले, मनचाहा मान-सम्मान प्राप्त हो, मनचाही गाड़ी, बंगला कोठी, कार का सुख मिले इत्यादि। किन्तु ऐसा सौभाग्यशाली व्यक्ति कोई बिरला ही होता है जिसकी अधिकांश कामनाओं की पूर्ति संभव हो जाए। पर मेरी दृष्टि में वह व्यक्ति ज्यादा सौभाग्यशाली है जो इन सब चीजों के न होने पर भी जीवन के प्रति धन्यता का भाव लिये होता है। हमारी दृष्टि ‘लेने’ या ‘भोगने’ से ज्यादा देने या त्यागने में होनी चाहिए। बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा ने कहा भी है कि इस जीवन का प्रथम लक्ष्य है दूसरों की सहायता करना। और यदि आप दूसरों की सहायता नहीं कर सकते तो कम से कम उन्हें आहत तो न करें। 
‘देने का सुख’ सचमुच अद्भुत होता है। किसी के लिये कुछ करके जो संतोष मिलता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। फिर वह कड़कती ठंड में किसी गरीब को एक प्याली चाय देना ही क्यों न हो और इसके साथ मन में ‘जो मिला बहुत मिला- शुक्रिया’ के भाव हों तो जिन्दगी बड़े सुकून से जी जा सकती है, काटनी नहीं पड़ती। महान् संत तुकाराम का मार्मिक कथन है कि यदि किसी को दूध नहीं दे सकते, तो मत दो। मगर छाछ देने में क्या हर्ज है? यदि किसी भूखे को अन्न देने में समर्थ नहीं हो तो कोई बात नहीं, पर प्यासे को पानी तो पिला सकते हो।
देना और लेना हमारी सांस की लय की तरह स्वाभाविक होता है-अंदर और बाहर, बार-बार यही क्रम। दुनिया की सभी प्रमुख परम्पराओं में देना एक अभिन्न अवधारणा है-हिन्दू धर्म में दान, ईसाई धर्म में टाइदिंग, यहूदी धर्म में जदाबा, सिख धर्म में सेवा और इस्लाम में ज़्ाकात। जैसा कि असीसी के सेंट फ्रांसिस ने कहा-‘‘हम देने में ही प्राप्त करते हैं।’’ हम ब्रह्माण्ड को बताते हैं कि धन सिर्फ ऊर्जा है और हम सिर्फ उस ऊर्जा के माध्यम हैं। इसलिए हम उसे जितना छोड़ते हैं, उतना ही हमें मिलता है-संपत्ति बनाना इतना ही सरल है। 
जब हम जीवन के प्रति धन्यता का अनुभव करते है तभी हमें जिन्दगी खुशनुमा लगती है। तब हम सौभाग्यशाली  महसूस करते हैं जो मिला है उसमें। ये सब क्या कम है कि हमारे पास परिवार है, दोस्त है, स्वास्थ्य है, घर है,सकारात्मक सोच है, आत्मविश्वास है, पुरुषार्थ है, भगवान पर भरोसा है, ऊंचा लक्ष्य है। असल में जीवन में जो है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव होना जरूरी है। इसीलिए जार्ज बरनार्ड शा ने कहा है कि कमाए बगैर धन का उपभोग करने की तरह ही खुशी दिए बगैर खुश रहने का अधिकार हमें नहीं है।
आखिर क्यों हम नकारात्मक सोच से घिरे रहते हंै। क्यों हर व्यक्ति को यही लगता है कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? दुनिया के सारे दर्द मेरे लिये ही क्यों बने हैं? क्यों मैं ही अभावों में जीने को विवश हॅू? क्यों सारी अफलताएं मेरे मार्ग में ही आती हैं? जबकि अगर सोचा जाए तो महत्वपूर्ण यह नहीं होता कि हमारे पास पीड़ाएं, असफलताएं, दर्द और निराशाएं कितनी हैं, जरूरी यह होता है कि आप उस दर्द, पीड़ा, असफलता के साथ किस तरह खुश रह पाते हैं। इसलिये जो कुछ मिला है या जो कुछ बचा है, उसे गले लगाएं बजाय असफलता या दर्द का गम मनाने के। 
असल में जीवन के प्रति कृतज्ञ होना जरूरी है। सभी धर्मों में कृतज्ञता का एक महत्वपूर्ण स्थान है। कृतज्ञता धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करती है। सिसरो से लेकर बुद्ध तक और अन्य कई दार्शनिक व आध्यात्मिक गुरुओं ने भी कृतज्ञता को भरपूर बांटा है और उससे प्राप्त खुशी को उत्सव की तरह मनाया है। दुनिया के सभी बड़े धर्म- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और बौद्ध मानते हैं कि किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना एक भावनात्मक रवैया है और अंत में इसका अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। बड़े-बड़े पादरी और पंडितों ने इस विषय को लेकर बहुत-सा ज्ञान बांटा है, लेकिन आज तक इन विद्वानों ने इसे विज्ञान का रूप नहीं दिया है। वाल्मीकि ने रामायण में भी इस बात का उल्लेख किया है कि परमात्मा ने जो कुछ तुमको दिया है, उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। हालांकि इसका विज्ञान बस छोटे से वाक्य में समाहित है कि जितना आप देंगे, उससे कहीं अधिक यह आपके पास लौटकर आएगा, लेकिन इसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। ‘कितना दें और क्यों’ इस बात में बिल क्लिंटन ने देने का गणित बखूबी समझाया है। जैसा कि श्री श्री रविशंकर ने कहा है-‘‘मानव जीवन एक महान और दुर्लभ  उपहार है और इस धरती के सभी लोगों को अपने जीवन के द्वारा अपनी मानवीयता की पूर्ण क्षमता प्रदर्शित करने का मौका मिलना चाहिए।’’ हम इस महत्वपूर्ण कार्य को तभी पूरा कर सकते हैं, यदि हम दूसरों की मदद करें। दूसरों की मदद करते हुए वास्तव में हम अपनी ही मदद करते हैं। किसी ने बहुत ठीक कहा है-‘‘मैं एक दोस्त ढूंढने गया, लेकिन वहां किसी को नहीं पाया। मैं दोस्त बनने गया और पाया कि वहां कई दोस्त थे।’’
जीवन में कई ऐसी घटनाएं होती हैं जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। हालांकि हमारे पास विकल्प जरूर होता है- हम समय और घटनाओं को सहते हुए आगे बढ़ते रहें या फिर हार मान जाये। 
सफलता का दूसरा सूत्र है-पुरुषार्थ। भाग्य और पुरुषार्थ जिंदगी के दो छोर हैं जिसका एक छोर वर्तमान में है तो दूसरा अतीत में। भाग्य के कोष में संचित कर्मों की विपुल पूंजी है, संस्कारों की अकूत राशि है, प्रवृत्तियों एवं प्रारब्ध का अतुलनीय भंडार है जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा। भाग्य के व्यापक आकार को देखकर सामान्यजन की क्या कहें, कभी-कभी तो विज्ञ, विशेषज्ञ और वरिष्ठजन भी भाग्य के बलशाली होने की गवाही देने लगते हैं। बुद्धि के  जिस तरह छोटे से दिखने वाले सूर्यमंडल के उदय होते ही तीनों लोकों का अंधेरा भाग जाता है ठीक उसी प्रकार पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भाड़ी पड़ता है। वस्तुतः भाग्य भी तो विगत में किए गये पुरुषार्थ का ही फल है जो वर्तमान में फलदायी हो रहा है। पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरंतर, अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो भाग्य के मिटने व मनचाहे नये भाग्य के निर्माण मंे देर नहीं लगती। पुरुषार्थ का प्रचंड पवन आत्मा पर छाये भाग्य के समस्त आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देता है। तभी तो ऋषिवाणी कहती है-‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं आप है।’’ शेक्सपीयर ने इसी सन्दर्भ में कहा है कि बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी अपने वर्तमान दुखों के लिए रोया नहीं करते, अपितु वर्तमान में दुख के कारणों को रोका करते हैं।
 अक्सर हमारे अन्दर अनजाने ही यह धारणा बन जाती है कि यदि हमें इच्छित नहीं मिला तो हम सुखी नहीं रह पायेंगे। यह धारणा निराधार है। कई बार वर्तमान में हमें जो असफलता अथवा विपत्ति दिखलाई पड़ती है, वही हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होती है, जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। डाॅ. राधाकृष्णन ने कहा भी है कि सबसे अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है, भले ही वह कितना ही कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो। 
माइकल केन ने अपनी सफलता का रहस्य उद्घाटित करते हुए अपनी पुस्तक ‘एक्टिंग इन फिल्म’ की एक भूमिका में खूबसूरत पंक्तियां लिखी थीं कि -‘‘मेरे इस पुस्तक को लिखने की एक वजह है। बहुत से अभिनेता हैं, जो मेरे जितना या मुझसे अधिक जानते हैं। लेकिन इस व्यवसाय का एक हिस्सा व्यवसाय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं-वह एक समुदाय है। एक समुदाय वह होता है, जहां लोग एक-दूसरे के साथ अपने अनुभव बांटते हैं। आज मैं जो भी जानता हूं, वह उस अनुभव का परिणाम है जो सफल अभिनेताओं ने मेरे साथ बांटा है। मैं बस इस मशाल को आगे बढ़ा रहा हूं।’’ दूसरों की मदद करने का कितना अद्भुत तर्क है। 
पेशा हम कोई भी चुनें लेकिन उसका उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों की सेवा करना होना चाहिए। इसका सीधा लाभ मन की शांति और संतोष के रूप में मिलेगा तथा उपफल के रूप में पैसा भी मिलेगा। जीवन को किसी महान उद्देश्य के लिए समर्पित करना ही परमानन्द का मार्ग है। परमानन्द से ही महान जीवन का उद्देश्य फलित होता है और इसे ही सफल जीवन कहा जा सकता है। प्रेषक 

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