प्रेस-पुलिस मैत्री के बीच आया हमारे शहर का ट्रैफिक पुलिस बूथ
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
लेडीज एण्ड जेन्टिल मेन- योर अटेंशन प्लीज। हाँ तो मैं क्या कह रहा था.............खैर छोड़िए। अब जो बताने जा रहा हूँ उसे ध्यान से सुनिए। मैं ठहरा प्रेस वाला- इसलिए पुलिस के काफी करीब रहा लेकिन दूरी बनाकर- ठीक उसी तरह वयस्क होने के पश्चात् बूथों से लगाव रहा- सीमा उल्लंघन करना दण्डनीय अपराध होता है- इसका हमेशा खयाल रखा और बूथ कैप्चरिंग जैसे मामलों से दूर रहा। प्रेस- पुलिस और बूथ की बात चल निकली है तो हमारे शहर के पुराने ट्रैफिक पुलिस बूथ जो इस समय काफी चर्चा में है को याद करके जो कुछ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपा कर उसे न चाहते हुए भी ग्रहण करें। आजकल गुलाबी जाड़ा है सब कुछ डायजेस्ट हो जाएगा।
हमारा शहर उत्तर प्रदेश के एक बीस वर्षीय जनपद का मुख्यालयी शहर है। इसी शहर के पुरानी तहसील तिराहा पर स्थित ट्रैफिक पुलिस बूथ को लेकर अखबारी हलकेे में तरह-तरह की बातें हो रही हैं जिसे सुनकर बड़ा अजीब सा लगता है। यातायात नियंत्रण के लिए बने ट्रैफिक पुलिस बूथ पर मुश्तैद होकर अपनी ड्यूटी देता है- एक आरक्षी जवान- जिसे कहते हैं ट्रैफिक पुलिस जवान............अपनी ड्यूटी में वह क्या-क्या करता है........? इस पर अधिक नहीं कहना है। जो भी ओवर लोडेड ट्रक, बस, टैक्सी चलवाता है वही अच्छी तरह जानता है, अपुन तो नंगा पैदा हुआ था- पैदल चलता हूँ- सामान्य मौत मरा तो चार लोगों के कंधों पर त्रिभुवन घाट जाने की तमन्ना है।
एक्स्क्यूज मी- कम टू द प्वॉइन्ट। अकबरपुर पुरानी तहसील तिराहे का ट्रैफिक पुलिस बूथ- गजब- प्रेस पुलिस विवाद की जड़। पुलिस कहती है कि अखबारी एजेन्ट, हाकरों द्वारा इस बूथ पर 4 बजे प्रातः से 10 बजे पूर्वान्ह तक अवैध कब्जा जमा रखा जाता है- कौन रोके- किसमें है दम- तब क्या करोगे भाई जी इधर-उधर खड़े होकर ट्रैफिक कन्ट्रोल करते हैं। एक दरोगा जी ने सर्द महीने मे थर्मोकाट सी गर्मी दिखाने का प्रयास किया- प्रेस एकजाई हो गया- फलाँ दरोगा मुर्दाबाद...................
मैं बहकने क्यों लगा हूँ-- ठण्ड रख यारों। प्रेस मीन्स संभ्रान्त, प्रेस मीन्स सब कुछ--- मैं जब पत्रकार बना तब और कुछ बनने का अवसर नहीं था, यदि था भी तो मैं बनना नहीं चाहता था। बनना चाहता भी था तो योग्यता ही नहीं थी वर्ना हम भी वर्दी पहनकर पुलिस वाला बनकर नौकरी करते और आज से 4-5 बरस पहले रिटायर होकर घर-परिवार में बुढ़ापा काटते। ‘बंधे हाथ’ एक फिल्म देखी थी। ..............ठीक उसी तरह आज हमारी पुलिस के भी हाथ बंधे हैं- चाहकर भी कुछ ऐसा नहीं कर सकती जो सर्वमान्य हो- और यदि किया भी तो- पुलिस पदनाम के आगे पूर्व लग जाएगा। विशुद्ध लोकतंत्र है- व्यवस्था गजब की है, लोकतंत्र में जीवन जी पाना कितना मुश्किल है इसे मुझसे बेहतर और कौन जान सकता है।
प्लीज कीप इट अप टू यू थैंक्स।
एक राज की बात बताऊँ- मैं जिस दौर से गुजर रहा हूँ ऐसे में मुझे भी अब पुलिस और प्रेस वालों के सहारे की जरूरत आ पड़ी है, यदि इन दोनों ने मुझे सहयोग दे दिया तो मैं भी उसी ट्रैफिक पुलिस बूथ के आस-पास एक अण्डा-ऑमलेट, जलपान की टाटपट्टी ब्राण्ड दुकान करके जीविकोपार्जन करना शुरू कर दूँगा और यदि धन्धा चल निकला तो दोनों को सौहार्द शुल्क के रूप में एक-एक कप चाय और एक-एक उबला अण्डा जरूर दूँगा यह मेरा वादा है। (कृपया इसे नेताओं द्वारा जनता को दिया जाने वाला लालीपाप न समझें)।
उधर छपते-छपते पता चला कि प्रेस जगत के इकजाई होने और भविष्य में महकमें के ‘गुडवर्कस’ का प्रमुखता से प्रकाशन न होने की आशंका से त्रस्त पुलिस प्रमुख ने ट्रैफिक बूथ पर काबिज होने वाले अखबारी लालों के साथ सख्ती बरतने का दोषी मानते हुए कस्बा चौकी इंचार्ज उक्त दारोगा को लाइन हाजिर कर दिया। उधर इसकी खबर होते ही शहर की सड़कों पर ढोल-नगाड़े की तेज आवाजें सुनाई पड़ने लगी।
मैंने पुलिस कप्तान को फोन किया- तीन चार बार के प्रयास पर जब काल रिसीव की गई तो जोरदार आवाज में पूँछा गया कौन है? कहना पड़ा बन्दा परवर- आप को फोन करने की जुर्रत करने वाला यह बन्दा एक पत्रकार है। वह बोले हाँ कहो क्यों डिस्टर्ब किया- मैंने कहा मुआफी चाहूँगा हुजूर वो क्या है कि आज कल आप के जलवे ने जिला वासियों के मुँह पर ताले लगा दिए हैं,- आप इस मक्खनबाजी से खुश हुए कि नहीं- यह मक्खन मिलावटी हो सकता है लेकिन अपने राम पुराने मक्खनबाज हैं- इसलिए कहता हूँ कि हमारी मक्खनबाजी आप को खुश अवश्य ही करेगी।
सर जी क्या आपने कस्बा चौकी इंचार्ज को सबक सिखा दिया, अजीब अहमक हो- एक तो अपने को पत्रकार कहते हो दूसरी तरफ पत्रकारों द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली खुशी- ढोल नगाड़े की आवाज भी नहीं सुन पा रहे हो। जहाँ तक मेरा एक्सपीरियंस कहता है- वह यह कि तुम उस दारोगा से मिले हुए हो- इसलिए ट्रैफिक पुलिस बूथ- पत्रकार- हाकर और पुलिस के बीच की अन्दरूनी खबरों को चटखारे लेकर सोशल साइट्स पर वाइरल कर रहे हो।
भला बताओ- आज के युग में जो दारोगा मीडिया वालों को प्रसन्न रखने में कामयाब न हो सके वह थाना क्षेत्र में पड़ने वाले अपने हलकों में लोगों को कैसे खुश रख पाएगा और कानून व्यवस्था कैसे चुस्त रख पाएगा? यदि कामयाब होना है तो मीडिया मैनेज करना ही पड़ेगा। वह दारोगा तो एकदम से अक्षम निकला-। लाइन हाजिर कर दिया है- यदि दो-चार दिन में अक्ल ठिकाने आ गई तो किसी ऐसे थाने का इंचार्ज बनाऊँगा जहाँ अपराध नियंत्रण उसके लिए एक चैलेंज हो।
यार- तुम पत्रकार ही हो न अब बस करो मुझे और भी काम करने हैं- क्या नाम बताया अपना। हजूर- आप आजाद भारत के पुलिस अधिकारी हैं- अंग्रेजों के जमाने के जेलर की भूमिका और संवाद वर्तमान में प्रासंगिक नहीं। मेरा नम्बर आप के सी.यू.जी. पर है- उसके जरिए पता कर लें कि मेरा क्या नाम है- बस रिलैक्स करो- ज्यादा तेज आवाज में बोलना सेहत के लिए लाभकारी नहीं होता। और ऐज आय थिंक दैट यू आर फिफ्टी प्लस। डोंट वी हाइपर, अदरवाइज.......। दैट्स ऑल- नथिंग टू से मोर, अवसर आने पर बीच-बीच में कभी-कभी ऐसा ही। व्हिच यू हैव टू लिसेन अदरवाइज आय विल नॉट हेजिटेट टू राइट एबाउट यूअर ऐटीट्यूट एण्ड वायरलिंग द आर्टिकिल्स।