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दर्द सहा... अब दर्द दो...!!



​तारकेश कुमार ओझा
आप चाहे जितने शांत व सरल हो , लेकिन जटिल और कुटिल स्वभाव वालों से निपटने के लिए वैसा ही बनना पड़ता है। अन्यथा आप अधिक दिनों तक सहज बने नहीं रह सकते।मेरे परिजनों को अक्सर मुझसे शिकायत रहती है कि  अभिभावक होने के नाते मैं अपने  बच्चों के प्रति ज्यादा कठोर नहीं हो पाता। कई बार जरूरी हो जाने पर भी  आक्रोशित होना तो दूर उनके लिए कड़वे शब्द भी मेरे मुंह से नहीं निकल पाते। हालांकि मुझे लगता है परिजन सही है। क्योंकि कई बार आक्रामक और कठोर होना अनिवार्य हो जाता है। प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है कि परिस्थितियां वश प्रतिकार के लिए कठोर और निष्ठुर बनना ही पड़ता है। इसी तरह अनचाहे ही कभी  नजर आने पर  बलि प्रथा की घटना  मुझे लगातार कई दिनों तक विचलित किए रहती है। मैं समझ नहीं पाता कि अहिंसा को परमो धर्म और कण - कण में ईश्वर देखने वाले हमारे देश व समाज में किस प्रकार यह कुप्रथा अस्तित्व में आई होगी और किन वजहों से यह अब तक कायम है। जिसके तहत  सब कुछ जानते हुए भी एक निरीह - बेजुबान की जान ले ली जाती है।क्या उनमें भावनाएं  नहीं थी। या बेवजह किसी की जान लेने में उन्हें कुछ भी गलत नहीं लगा होगा। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि शुरू से  हमलावरों के आक्रमण झेलने को अभिशप्त रहने के चलते हमारे पूर्वजों ने इस वजह से इस कुप्रथा को स्वीकार किया होगा ताकि आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए आवश्यक हिंसक प्रवृति हमारे अंदर उत्पन्न हो सके। क्योंकि हम चाहे जितने अहिंसक व शांत हों , लेकिन जब हम पर कोई बेवजह हमला करता है तो उसके प्रतिकार के लिए हमारे भीतर भी हिंसक प्रवृत्ति का होना अनिवार्य है अन्यथा अपना अस्तित्व कायम रख पाना मुश्किल हो जाएगा। खेलों में भी किलर स्टिंक्स यानी मारक प्रवृत्ति काफी मायने  रखती है।  आधुनिक समाज में भी आज देश - समाज कुछ ऐसी ही परिस्थितियों  से गुजर रहा है। हम पर लगातार हमले हो रहे हैं। हम शांति चाहते हैं। सुख - शांति के लिए हम किसी को भी गले लगाने को हमेशा तैयार रहते हैं। लेकिन इसके बावजूद  देश पर लगातार हमले होते रहते हैं। कभी कांधार तो कभी पठानकोट में। कदाचित मनी और हनी ट्रैप के चलते गद्दारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जिन पर नागरिकों की सुरक्षा का दायित्व है वे ही देश के लिए खतरा बन रहे हैं। हर तरफ सरसो में भूत वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। इसके बावजूद क्या कोई हमसे शांत - सहज बने रहने की अपेक्षा कर सकता है।क्या देश के रणबांकुरे इसी तरह अपनी जान देते रहेंगे। क्या इसका प्रतिकार करना जरूरी नहीं। दुनिया का कोई भी देश हमसे दोस्ती और कुश्ती का दोहरा खेल आखिर कब तक खेलता रहेगा और हम कब तक उसे मूकदर्शक बने स्वीकार करते रहेंगे। पड़ोसी देश में चल रहे आतंकवादी शिविरों में जब नेता खुलेआम भारतीयों का कीमा बनाने की बात कहें, जिन्हें दहशतगर्द कहलाने में कोई गुरेज नहीं। जिस देश के समाचार चैनल ही इस बात की लानत - मलानत करें। उससे हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह हमारे दर्द को महसूस करेगा। ऐसे में हमारे रक्षामंत्री का यह बयान सामयिक और जरूरी है कि कोई यदि हमें दर्द देगा तो हम भी उसके साथ वैसा ही सलूक करेंगे। इसलिए देश के वीरों ... उठो और टूट पड़ों ... उन्हें दर्द का अहसास कराओ जिन्होंने हमें दर्द दिया है...।
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

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