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जबरा करे तो दिल्लगी, गबरू का गुनाह..!!


 

तारकेश कुमार ओझा

तब साझा – चूल्हा और संयुक्त परिवार की खासी महत्ता थी। गांव हो या शहर  हर तरफ यह गर्व का विषय होता था। बड़े – बुजुर्ग बड़े अभिमान से कहते थे बड़ा परिवार होने के बावजूद उनके यहां आज भी एक ही चूल्हा चलता है।  लेकिन इस विशेषता का एक विद्रूप पक्ष भी था। क्योंकि तब पढ़ी भले रामायण जाती हो  लेकिन घर – घर में होता महाभारत था। जिसकी एक कॉमन वजह होती थी परिवार के मुखियाओं का परिवार के कुछ सदस्यों के प्रति साफ्ट कार्नर रखना तो कुछ के प्रति असहिष्णु रवैया । तत्कालीन परिस्थितियों  में किसी को भी कुरदने पर वह तत्काल शुरू हो जाता कि भैया हम थे तो बड़े काम की चीज, लेकिन अपनों के चलते लूट गए। आज हम बड़ी हस्ती होते, लेकिन क्या करें हमारे फलां – फलां ने हमारे साथ बड़ा अन्याय किया। उन्होंने हमारे लिए कानी कौड़ी नहीं छोड़ी औऱ जीवन भर की जमा पूंजी बड़े या छोटे के हवाले कर दिया। तब संयुक्त परिवारों में नजर भी आती थी कि किसी की सात गलती माफ तो किसी की बगैर गलती लानत – मलानत।बड़े बुजुर्गों की इस मनमानी की वजह से घर – घर में कलह मची रहती थी। कहना गलत नहीं होगा कि कालांतर में इसी पक्षपातपूर्ण रवैये की वजह से संयुक्त परिवारों का विघटन शुरू हुआ। समय के साथ समझ बढ़ने पर हमने यह विसंगति समग्र देश के मामले में देखी। 80 के दशक में जवान हो रही पीढ़ी के लिए कम्युनल फोर्सेस या सेक्यूलिरिज्म शब्द बिल्कुल नया और अबूझ था। सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ समझने में इस पीढ़ी को खासी मगजमारी करनी पड़ी थी। तब देश में राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद का विवाद पूरे उफान पर था। लेकिन हमारे राजनेताओं की कोशिशों के फलस्वरूप देखते ही देखते समूची राजनीति इन्हीं दो खेमों में विभक्त होकर रह गई। जब भी कोई राजनेता कहता है कि सेक्युलर फोर्सेस को मजबूत  और कम्युनल ताकतों को परास्त करने की जरूरत है  हमें अजीब लगता है। समझ में नहीं आता कि ऐसी कौन सी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है कि महंगाई – बेरोजगारी जैसे मुद्दों को दरकिनार कर सांप्रदायिकता को ही बड़ा मुद्दा बनाया जाए। पूरी राजनीति और राज – काज इसी के इर्द – गिर्द केंद्रित हो जाए। एकबारगी ऐसा लगता है कि देश में सांप्रदायिकता का जहर जितना सही मायने में सांप्रदायिक शक्तियों ने नहीं घोला , उससे कई गुना  ज्यादा धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वालों ने। जो  सांप्रदायिकता का  मतलब नहीं जानता या जानने की जरूरत भी नहीं समझता, वह भी समझ जाए कि उसकी जाति या धर्म कौन सा है। उसे किस खेमे में रहना है और किसके खिलाफ।  आलम यह कि एक लोमहर्षक घटना पर करुण क्रंदन शुरू हो जाता है लेकिन ऐसी ही दूसरी घटना पर जिम्मेदार तबका ऐसे चुप्पी साध जाता है मानो उसे पता ही नहीं हो । बार – बार कुरदने के बावजूद कहते फिरेंगे... मुझे इस घटना की अभी कोई जानकारी नहीं है... मैं पहले तथ्यों से परिचित हो जाऊं .. फिर टिप्पणी करूंगा। जबकि दूसरे घटनाक्रम पर यही लोग छाती पीट रहे थे। सच्चाई जाने बगैर शोर – शराबा करते रहे। यह भी नहीं सोचते कि उनकी ऐसी हरकतों से  देश – समाज में कैसा जहर घुलेगा। जाने – अनजाने वे सांप्रदायिक ताकतों को और ताकतवर करने का काम ही करते हैं। वर्ना क्या वजह है कि दादरी कांड पर  वाइलेंट होने वाला वर्ग आज मालदह – पूर्णिया कांड पर साइलेंट बना रहता है। कुछ बोलते भी हैं तो तमाम किंतु – परंतु के साथ । आखिर इस वर्ग को किस बात का डर है जो गलत को गलत कहने का साहस भी इनमें नहीं है। आखिर आपको कौन फांसी पर चढ़ा रहा है। जिम्मेदार व्यक्ति होने के नाते आपमें यह कहने का नैतिक साहस क्यों नहीं है कि अगर दादरी गलत है तो मालदह और पूर्णिया में जो हुआ  उसका वे समर्थन कतई नहीं कर सकते। जबकि कुछ दिन पहले तक आपमें असहिष्णुता के मुद्दे पर शोर मचाने की होड़ मची थी। तब आपको देश – समाज के वर्गीकरण और विदेशों में देश की छवि खराब होने का डर भी नहीं लगा।
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

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