मुखर - मुखिया, मजबूर मार्गदर्शक
तारकेश कुमार ओझा
तेज - तर्रार उदीयमान नेताजी का परिवार वैसे था तो हर तरफ से खुशहाल, लेकिन गांव के पट्टीदार की नापाक हरकतें समूचे कुनबे को सांसत में डाले था। कभी गाय - बैल के खेत में घुस जाने को लेकर तो कभी सिंचाई का पानी रोक लेने आदि मुद्दे पर पटीदार तनाव पैदा करते रहते। इन बातों को लेकर गांव में लाठियां तो बजती ही दोनों पक्षों के बीच मुकदमेबाजी भी जम कर होती।
पूरा परिवार परेशान। उदीयमान नेताजी पटीदार को सबक सिखाने में सक्षम थे, लेकिन समस्या यह थी कि घर के मालिक के दिल में पटीदार के प्रति साफ्ट कार्नर था। बात बढ़ती तो मालिक बोल पड़ते । अरे रहने दो ... उसे औकात बताना कौन सी बड़ी बात है, लेकिन जाने दो ... है तो आखिर अपना ही खून...।
इस पर परिवार के लोग मन मसोस कर रह जाते। उधर पटीदार की पेंच परिवार को लगातार परेशानी में डालती जा रही थी। रोज - रोज के लड़ाई - झगड़े और पुलिस - कचहरी का चक्कर। आखिर एक दिन ऐसा आया जब परिवार के लोगों की एकराय बनी कि घर का मालिक - मुख्तार यदि उदीयमान नेताजी को बना दिया जाए तो वे पटीदार को छटी का दूध याद करा देंगे। क्योंकि उनकी पुलिस वालों के साथ गाढ़ी छनती है और सत्ता के गलियारों में भी गहरी पकड़ है। आखिरकार परिवार वालों के दबाव के आगे मालिक ने हथियार डाल दिए और भविष्य के लिए उन्होंने मार्गदर्शक की भूमिका स्वीकार कर ली।नेताजी को घर का मालिक बना दिया गया।
रहस्यमयी मुस्कान के साथ उदीयमान नेता ने अपनी पारी शुरू की। उधर गांव में तनाव चरम सीमा पर जा पहुंचा।
सभी को लगा ... बस अब तो आर या पार...
नेताजी के परिजनों को यही लगता रहा कि बिगड़ैल पटीदार की अब खैर नहीं। पटीदार का परिवार भी सशंकित बना रहा।
एक दिन उदीयमान नेता ने बिगड़ैल पटीदार को न्यौते पर घर बुला लिया। पूरा परिवार सन्न। नेताजी के चेहरे पर वही रहस्यमय मुस्कान। सब को लगा यह शायद नेताजी की कोई कूटनीति है। उधर पटीदार के परिवार को भी सांप सूंघ गया।
आखिरकार भारी तनाव व आशंका के बीच तय तारीख पर पटीदार नेता के घर पहुंचे। आशीष - पैलगी का लंबा दौर चला।
नेता ने पूरा सम्मान देते हुए हाल - चाल लिया। लेकिन दोनों पक्ष लगातार सशंकित बने रहे।
नेताजी ने पटीदार से पूछा... दद्दा आपके ब्लड प्रेशर के क्या हाल है। काबू में न हो तो जान - पहचान वाले शहर के बड़े डॉक्टर के पास ले चल कर दिखाएं।
इस पर पटीदार के चेहरे पर कृतज्ञता के भाव उभरे जबकि दोनों पक्ष सन्न।
क्योंकि कहां तो आशंका तनातनी की थी, लेकिन यहां तो भलमनसाहत दिखाने की होड़ शुरू हो चुकी थी।
कुछ देर बाद पटीदार ने देशी घी का डिब्बा नेताजी के हवाले करते हुए बोले... बचवा ई कल्लन की ससुरारी से आवा रहा, जा घरे दई आवा...
अब कृतज्ञता के भाव नेताजी के चेहरे पर थे।
घर पर घी का डिब्बा रख कर नेताजी लौटे तो उनके हाथ में कुछ था।
सदरी भेंट करते हुए नेताजी बोले... दद्दा दिल्ली गा रहे तो तोहरे लिए लावा रहा, लया रख ल्या । जाड़े में आराम रही...।
फिर अपनत्व दिखाते हुए बोले ... दद्दा अगले महीने अजिया की बरसी करब , सब तोहरेय के देखए के पड़े...
स्नेह उड़ेलते हुए पटीदार ने कहा... अरे काहे ना देखब बचवा , तू का कोनो गैर हवा...
दोनों पक्ष एक बार फिर सन्न। क्योंकि सब कुछ अप्रत्याशित हो रहा था।
पटीदार और भावुक होते हुए बोले... बेटवा अगहन में अजय नारायण का ब्याह है... पूरा सहयोग करे के पड़ि...
नेताजी ने जवाब दिया... दद्दा शर्मिंदा न करा... अब तू निश्चिंत रहा...
बिसात पर खेले जा रहे शह और मात के इस खेल से नेताजी और पटीदार का परिवार ही नहीं बल्कि पूरा गांव सन्न था।
दोनों पक्ष के मुखिया दरियादिली पर मुखर थे, जबकि दूसरे मूकदर्शक बने रहने को मजबूर ...।
लगता है भारत - पाकिस्तान संबंधों के मामले में नमो और उनके समकक्ष मवाज का मसला भी कुछ ऐसा ही अबूझ है।
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।