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रानी लक्ष्मीबाई के शव की रक्षा के लिए बलिदान हुए थे 745 साधु


ग्वालियर। लक्ष्मीबाई कॉलोनी स्थित गंगादास की बड़ी शाला देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना लक्ष्मीबाई की पार्थिव देह की रक्षा करने वाले 745 साधुओं के पराक्रम की गवाह है, जो शहीद हो गए। यह शाला रामनंदाचार्य संप्रदाय के निर्मोही अखाड़े से संबद्ध है। इतिहास के मुताबिक इस शाला के साधुओं ने जहां स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया, तो इस पीठ की स्थापना करने वाले महंत परमानंद गोसांई ने अकबर को भी सिर झुकाने पर मजबूर कर दिया था। आज भी इस शाला में साधुओं के पराक्रम की गाथा कहने वाली पुरा महत्व की कई चीजें मौजूद हैं। इन्हें देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं।

इस शाला में मुगल सम्राट अकबर की रत्न जड़ित टोपी रखी हुई है। इसके पीछे प्रचलित कथा के मुताबिक महंत परमानंद गोसांई यहां आरती व शंख ध्वनि करते थे। इसकी आवाज से अकबर के किलेदार की नींद में खलल पड़ता था। उसने जब कुछ सैनिकों को भेजा, तो महंत ने योग क्रिया के माध्यम से अपने शरीर के हिस्से अलग-अलग कर दिए। सैनिकों ने इसे देखा और वापस लौट गए। बाद में जब दोबारा शंख और घंटे की आवाज हुई, तो किलेदार ने घबरा कर अकबर तक सूचना भिजवाई। अकबर ने ग्वालियर आकर महंत की चरण वंदना की और अपनी टोपी भेंट कर दी।

 

इसी शाला में 745 साधुओं की समाधियां भी बनी हुई हैं। लक्ष्मीबाई समाधि के नजदीक ही मौजूद यह समाधियां स्वाधीनता संग्राम में संतों के पराक्रम की याद दिलाती हैं। वीरांगना और इन साधुओं के बलिदान की याद में यहां अखंड ज्योति भी प्रज्जवलित की जाती है। प्रतिवर्ष 18 जून को यहां संत शहीदी दिवस भी मनाया जाता है, जिसमें देशभर से साधु-संत इकट्ठे होकर वीर संतों को श्रद्धांजलि देते हैं।

 

इस शाला में वर्तमान तलवार, भाले, नेजे , चिमटे जैसे हथियारों का संग्रह है। इसके अलावा 1857 के युद्ध में इस्तेमाल की गई एक तोप भी मौजूद है। प्रतिवर्ष विजयादशमी पर इस तोप को चलाया जाता है। यह तोप 17वीं शताब्दी के अंत में निर्मित बताई जाती है।

 

1857 की क्रांति के समय इस शाला के नौवें महंत गंगादास महाराज की अगुवाई में 1200 साधुओं ने वीरांगना लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर की रक्षा के लिए अंग्रेज सेना से युद्ध किया था। मरने से पूर्व लक्ष्मीबाई ने गंगादास महाराज से दो वचन लिए थे। पहला वचन था अपने पुत्र दामोदर की रक्षा करना और दूसरा वचन था कि वीरांगना का शव भी अंग्रेज सैनिकों को न मिल पाए। इसी वचन के पालन के लिए साधुओं ने युद्ध किया था। इस दौरान 745 संतों ने वीरगति प्राप्त की थी।

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