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कब पूरा होगा पूर्ण साक्षर होने का सपना!


-जगजीत शर्मा
पिछले साल मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हर परिवार से एक लड़की के लिए प्रगति छात्रवृत्ति की घोषणा की है। इस योजना का उद्देश्य लड़कियों को कॉलेज में दी जाने वाली तकनीकी शिक्षा से जोडऩा है। इस योजना के तहत सालाना छह लाख से कम आय वाले हरेक परिवार से एक लड़की को यह छात्रवृत्ति दी जाएगी। यह तो हुई लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास की बात। केंद्र और राज्य सरकारें लड़के-लड़कियों और प्रौढ़ों को भी शिक्षित करने की दिशा में काफी सक्रिय हैं। ये सरकारें खुद तो प्रयास कर ही रही हैं, इससे साथ-साथ काफी संख्या में गैर सरकारी संस्थाएं भी अशिक्षा के कलंक को धोने के प्रयास में जुटी हुई हैं। इसके बावजूद अशिक्षा के मामले में भारत काफी पिछड़ा हुआ है। इस मामले में नाइजीरिया के बाद भारत का ही नंबर आता है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन इस मामले में हमसे आगे हैं यानी इन देशों में अशिक्षितों की संख्या भारत के मुकाबले में कम है। भारत में जो शिक्षा दी जा रही है, उसका स्तर क्या  है, यह भी किसी से छिपा नहीं है।
भारत में कम से कम 41.5 करोड़ लोग अशिक्षित हैं। यह एक बहुत बड़ी आबादी है। इतनी बड़ी आबादी देश के किसी भी शैक्षिक संस्थान का हिस्सा नहीं है। इसमें से 42 प्रतिशत (17.3 करोड़) पुरुष हैं। इनमें वयस्क अशिक्षितों की संख्या 28.7 करोड़ है। यह आबादी पूरी दुनिया के कुल वयस्क अशिक्षितों का 37 प्रतिशत है। यूनेस्को द्वारा तैयार की गई 'ईएफए ग्लोबल मॉनीटरिंग रिपोर्ट 2013-14 के मुताबिक, दस देशों (जिनमें भारत भी शामिल है) में दुनिया की 72 फीसदी वयस्क अशिक्षित आबादी निवास करती है। जनवरी 2010 में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया की कुल आबादी में अशिक्षितों की संख्या लगभग 75.9 करोड़ है। आज भी भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश में सबसे ज्यादा अशिक्षित रहते हैं।
आजादी के समय भारत की अधिसंख्य आबादी अशिक्षित थी। आजादी के 68 साल बाद भी अशिक्षितों की संख्या 1947 की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। अगर आंकड़ों की बात की जाए, तो 1961 में सिर्फ 28 प्रतिशत भारतीय शिक्षित थे। 1991 में यह प्रतिशत बढ़कर 48 हो गया था। केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ गैर सरकारी संस्थाओं की मेहनत रंग लाई और यह आंकड़ा सन् 2006 में 66 प्रतिशत जा पहुंचा।  तमाम प्रयासों के बाद निस्संदेह अशिक्षितों के प्रतिशत में बदलाव आया, लेकिन संख्या के रूप में वे पहले की तुलना में ज्यादा ही रहे।
आज हालात यह है कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो जाने की वजह से देश में 99 प्रतिशत बच्चे स्कूलों तक पहुंच रहे हैं, लेकिन उनमें से कितने प्राइमरी, माध्यमिक या कॉलेज स्तर तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं, यह शोध का विषय है। प्राथमिक स्तर पर नामांकन 99 प्रतिशत है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही 10 फीसदी बच्चे स्कूली शिक्षा छोड़ कर बाहर हो जाते हैं। माध्यमिक स्तर पर पूरे भारत का सकल नामांकन अनुपात 78 फीसदी है यानी आयु वर्ग 15-16 वर्ष के 22 फीसदी बच्चे माध्यमिक स्तर पर स्कूल नहीं जाते हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियों की माध्यमिक स्कूल शिक्षा पूरी करने की संभावना 45 फीसदी कम होती है। केवल 66 फीसदी लड़कियों की सफलतापूर्वक माध्यमिक शिक्षा पूरी की है, जबकि लड़कों के लिए यही आंकड़े 77 फीसदी दर्ज की गई है।
शहरी आबादी की अपेक्षा आज भी गांवों की हालत खराब है। मीडिया के विभिन्न माध्यमों, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयास के बावजूद गांवों में शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव देखने को मिल रहा है। लोग यदि बहुत ज्यादा उत्साहित होते हैं, तो अपने लड़कों को तो स्कूल भेज देते हैं, लेकिन लड़कियों के मामले में  अकसर चुप्पी साध जाते हैं। यदि आंकड़ों के हिसाब से बात की जाए, तो प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले में 837 महिलाएं ही स्कूलों तक जा रही हैं। प्रति एक हजार पुरुष के मुकाबले में 163 महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों में इतने प्रयास के बाद भी अशिक्षित रहने को अभिशप्त हैं। हालांकि शहरी इलाकों की भी स्थिति कोई संतोषजनक नहीं कही जा सकती है। प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले 861 महिलाएं स्कूल-कॉलेज जा रही हैं। यदि हम गांव और शहरों में स्कूल-कालेज जाने वाली महिलाओं और पुरुषों का अनुपात निकालें, तो पता चलता है कि प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले में केवल 845 महिलाएं ही शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।
केंद्र  और राज्य सरकारों के प्रयासों को कटघरे में खड़ा करने से पहले हमें यह भी देखना होगा कि भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है। जब देश आजाद हुआ था, तब बमुश्किल चार या पांच प्रतिशत आबादी ही साक्षर थी। देश गुलामी की बेडिय़ों में बंधा हुआ था। अंग्रेज शासकों की भारतीयों को शिक्षित करने में रुचि भी नहीं थी। जो शिक्षा पद्धति देश में लागू थी, उसका उद्देश्य ही अंग्रेजपरस्त भारतीय पैदा करना था। आजादी के बाद शिक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करने के गंभीर प्रयास शुरू हुए, लेकिन एक तो संसाधनों का अभाव और दूसरे लोगों की अरुचि के चलते बहुत ज्यादा बात बन नहीं पाई। हालात ऐसे बने कि सरकार एक को शिक्षित करने का प्रयास करती, तो चार लोग उस व्यक्ति को शिक्षा से विमुख करने और काम-धंधे पर लग जाने की सलाह देने वाले आ खड़े होते। तब देश को आजाद हुए कुछ ही साल बीते थे। जरूरतें मजबूर कर रही थीं कि लोग शिक्षा के बजाय पेट भरने के लिए खेती-किसानी, मजदूरी या कोई छोटा मोटा उद्योग धंधा अपनाएं। पंचवर्षीय योजनाओं के सहारे देश की शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ उद्योगों को साधने की कोशिश शुरू हुई, तो आर्थिक संकट खड़े होने लगे। इसके बावजूद सरकारों ने जो प्रयास किए, उसी का नतीजा है कि आज देश के 70-75 प्रतिशत आदमी शिक्षित हैं। इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अभी बहुत कुछ करने की गुंजाइश है, बहुत कुछ करने की दरकार है। वर्तमान सरकार भी शिक्षा के प्रति जागरूक है। मेक इन इंडिया, ्स्किल इंडिया, ग्रामीण कौशल विकास जैसी योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार पैदा करने के प्रयास किए जा रहे हैं, ताकि लोगों की आय बढ़ सके और वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने की दिशा में भी सोच सकें। जब तक गरीबी और बेरोजगारी के राक्षस का वध नहीं किया जाता है, तब तक शत-प्रतिशत साक्षरता की बात बेमानी होगी। जिन देशों ने शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य हासिल कर लिया है, उन देशों में प्रति व्यक्ति आय की दर काफी ऊंची है। ऐसे देशों के लोग इतनी कमाई कर लेते हैं कि वे अपने बच्चों की शिक्षा पर एक अच्छी खासी रकम खर्च कर सकें। हमारे देश में भी ऐसा ही होने पर साक्षरता का शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।

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