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हांफती जिंदगी और त्योहार...!!


तारकेश कुमार ओझा
काल व परिस्थिति के लिहाज से एक ही अवसर किस तरह विपरीत रुप धारण कर सकता है, इसका जीवंत उदाहरण हमारे तीज - त्योहार हैं। बचपन में त्योहारी आवश्यकताओं की न्यूनतम उपलब्धता सुनिश्चित न होते हुए भी दुर्गापूजा व दीपावली जैसे बड़े त्योहारों की पद्चाप हमारे अंदर अपूर्व हर्ष व उत्साह भर देती थी। पूजा के आयोजन के लिए होने वाली बैठकों के साथ पंडाल तैयार करने की प्रारंभिक तैयारियों को देख हम बल्लियों उछलने लगते थे। दुर्गा पूजा के चार दिन हम पर त्योहार की असाधारण खुमारी छाई रहती थी। विजयादशमी के दिन एक साल के इंतजार की विडंबना से हम उदासी में डूब जाते थे। लेकिन मन में एक उम्मीद रहती थी कि चलो दुर्गापूजा बीत गया, लेकिन अब दीपावली  के चलते फिर वैसा ही उत्साहवर्द्धक माहौल बनेगा। बेशक असमानता की विडंबना तब भी थी, लेकिन शायद तब त्योहारों पर बाजार इस कदर हावी नहीं हो पाया था। बड़े होने पर जरूरी खर्च की जद्दोजहद के चलते त्योहार की परंपरा का निर्वाह
मजबूरी सी लगनी लगी। क्योंकि बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद त्योहार के अतिरिक्त खर्च के लिए पाई - पाई जुटाना एक मुश्किल व दुरुह कार्य साबित होता है। अक्सर तमाम प्रयासों के बावजूद इतनी राशि का जुगाड़ नहीं हो  पाता कि खुद नहीं तो कम से कम परिवार के सदस्यों को त्याहोर के दौैरान अवसाद की त्रासदी  से बचा सकें। इसी के साथ बड़े त्योहारों के दौरान असमर्थ, असहाय व वंचित लोगों खास कर बच्चों की बेबसी इस मौके पर मन में असह्य टीस व बेचैनी पैदा करने लगी। इसकी बड़ी वजह शायद दिनोंदिन त्योहार पर बाजार का हावी होते जाना है। एेसे मौकों पर बाजार की ओर से  एेसा परिदृश्य रचने की कोशिश होती है कि मानो पूरा देश त्योहार की खुशियों से झूम रहा है। लेकिन क्या  सचमुच एेसा है। सच्चाई यह है कि  बमुश्किल 25 प्रतिशत अाबादी ही बड़े त्योहारों का खर्च वहन कर पाने की स्थिति में है। खास तौर से सरकारी कर्मचारियों का वह वर्ग जो इस अवसर पर बोनस व एरियर समेत तमाम मद की मोटी राशि के साथ लंबी छुट्टियों की सौगात से भी लैश रहता है। इनके लिए त्योहार एक अवसर है  जिसका भरपूर भोग कराने के लिए बाजार  तैयार खड़ा है। भ्रमण , सैर - सपाटा व मनोरंजन समेत तमाम विकल्प इस वर्ग के सामने उपलब्ध है। लेकिन शेष आबादी के लिए त्योहार तनाव व असवाद का कारण  बनते जा रहे हैं। क्योंकि न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए हांफती जिंदगियों के पास  त्योहार काअतिरिक्त खर्च जुटाने का सहज साधन नहीं है। बड़े त्योहारों के दौरान बड़ी संख्या में होने वाली आत्महत्या की घटनाएं भी शायद इसी वजह से होती हैं। बेशक एेसे मौकों पर सामाजिक संस्थाओं की ओर से गरीबों के बीच वस्त्र वितरण आदि कार्य़क्रम भी आयोजित किए जाते हैं, लेकिन जो सार्वजनिक मंचों से एेसे दान लेने का साहस नहीं जुटा सके, उनका क्या।
 इस एकपक्षीय परिवर्तन का असर समाज के हर वर्ग के साथ मीडिया में भी दिखाई देता है। ज्यादा नहीं दो दशक पहले तक एेसे मौकों पर मीडिया का पूरा फोकस समाज केउस वंचित तबके की ओर रहता था , जिसके लिए त्योहार मनाना आसान नहीं। जो चाह कर भी इस खुशी में शामिल नहीं हो पाता। लेकिन बदलते जमाने में मीडिया भी एेसा माहौल तैयार करने में लगा है कि देखो , दुनिया कैसे त्योहार की खुशियों में डूब - उतरा रही है। बात
 दुर्गापूजा की हो या दीपावली की रंग - बिरंगे कपड़ों से सजे लोग बाजारों में खरीदारी करते दिखाए जाते हैं। कहीं गहने खरीदे जा रहे हैं तो कहीं एेशो - आराम का कोई दूसरा साधन।विशेष अवसर पर विशेष खरीदारी के लिए विशेष छूट के वृहत विवरण से बाजार अटा - पटा नजर आता है। हर तरफ अभूतपूर्व उत्साह - उमंग  का परिदृश्य रचा जाता है। लेकिन क्या सचमुच एेसा है...। समाज के कितने फीसद लोग त्योहारों पर एेसा कर पाते हैं। त्योहारों की खुशियों से वंचित तबके की अब कोई चर्चा न होना किसी वि़डंबना से कम नहीं।

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