आतंकवादियों की पैरवी करने वाले प्रशात भूषण और राम जेठमलानी जैसो को शर्म नही आनी चाहिए ?
डाॅ. चन्दर सोनाने
12 मार्च 1993 को मुंबई में श्रंखलाबद्ध हुए विस्फोटों में 257 बेगुनाह लोग मारे गए थे। लंबी न्यायिक प्रक्रिया चलने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा आतंकवादी एवं हत्यारें याकूब मेमन को फाँसी की सजा सुनाई गई। वरिष्ठ अधिव्यक्ता श्री प्रषांत भूषण तथा उन जैसे अन्य वकिलों द्वारा निर्लज्जता पूर्ण ढंग से उसकी पैरवी की गई। न्यायिक प्रक्रिया के सुरंगांे का लाभ लेते हुए इन वकीलांे ने याकूब मेमन को ऐन केन प्रकारेण फाँसी के फंदे से बचाए रखा। आखिरकार न्याय की जीत हुई और 30 जुलाई 2015 को याकूब मेमन को फाँसी दी गई।
इसी प्रकार पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की हत्या में ष्षामिल सात हत्यारों संथन, श्रीहरन उर्फ मुरूगन, पेरारिवलन, नलिनी, रार्बट पायस, रविचंद्रन, और जयकुमार को भी फाँसी की सजा होने के बावजूद ये सब न्यायिक प्रक्रिया का लाभ लेते हुए अभी तक बचे हुए हैं। इन हत्यारों की भी पैरवी रामजेठमलानी जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा बेषर्मी के साथ की जा रही हैं।
नेषनल क्राइम रिकार्ड के अनुसार मात्र पिछले दस सालांे में ही 1303 मुजरिमों को मौत की सजा सुनाई गई थी, किंतु उसमें से सिर्फ तीन को ही फाँसी दी गई। न्यायिक प्रक्रिया का लाभ लेते हुए 3751 मुजरिमो की फाँसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया।
क्या ऐसा नही हो सकता कि देष के विरूद्ध देषद्रोह का कार्य करने वाले, आतंकवादियों, जघन्य अपराधियों, दुष्कर्मियों की पैरवी ही नही करने का निर्णय देष भर के वकीलों के द्वारा लिया जाए, ताकि कम से कम समय में न्यायपालिका ऐसे जघन्य अपराधियों व आतंकवादियों को फाँसी की सजा सुना सके। और उनकी मौत दूसरो के लिए नसीहत बन सके। इसके लिए करना सिर्फ यह हैं कि प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों के द्वारा एकमत से यह निर्णय लिया जाए कि वे आतंकवादियों, दुष्कर्मियों और जघन्य हत्यारों की पैरवी ही नही करेंगे, ताकि न्यायालय अपना काम करें और न्याय प्रक्रिया में उलझकर प्रकरण वर्षो लंबा नही चले। इसके साथ यह भी निर्णय लिए जाने की आवष्यकता हैं कि, जो भी वकील आतंकवादियों, दुष्कर्मियों और हत्यारों की पैरवी करने का प्रयास करेगा उसका बायकाट किया जाएगा, ताकि वे षर्म महसूस करें तथा ऐसे लोगो की पैरवी करने से पहले दस बार सोंचे।