किसानों को बार-बार दिल्ली कूच क्यों करना पड़ता है? अजय बोकिल वरिष्ठ पत्रकार
किसानों को बार-बार दिल्ली कूच क्यों करना पड़ता है?
अजय बोकिल वरिष्ठ पत्रकार
किसान संगठन अपनी मांगों को लेकर तीसरी बार देश की राजधानी दिल्ली की अोर कूच कर रहे हैं। हालांकि दिल्ली कूच के पहले ही आंदोलनकारी किसान संगठनों में फूट पड़ गई है। उधर केन्द्र व भाजपाशासित राज्य सरकारें किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेजरित मानकर खारिज करती रही हैं तो किसानों का मानना है कि सरकार उनकी मांगों को मानना ही नहीं चाहती। देश की राजधानी के पास तीसरी बार हो रहे, इस किसान आंदोलन के औचित्य को लेकर पहले भी कई सवाल उठते रहे हैं, लेकिन हाल में देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में केन्द्रीय कृषि मंत्री से जवाब तलब कर नई सरकार को कटघरे में खड़ा किया कि किसानों की मांगों को लेकर आखिर सरकार कर क्या रही है? मुंबई में केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान के शताब्दी समारोह में उपराष्ट्रपति ने कहा कि किसान संकट में है और आंदोलन कर रहे हैं। यह स्थिति देश के लिए अच्छी नहीं है। सरकार को आत्मावलोकन की जरूरत है। क्या किसानों से कोई वादा किया गया था? क्या वह पूरा नहीं हुआ? इसी कार्यक्रम में केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराजसिंह चौहान भी मौजूद थे। किसान आंदोलन के पीछे कौन से तत्व हैं, इसे समझने के साथ साथ इस बात का विश्लेषण भी जरूरी है कि किसान जो मांगें लगातार करते आ रहे हैं, उनका स्थायी समाधानकारक हल क्यों नहीं होता, किसानों को बार बार दिल्ली कूच क्यों करना पड़ता है और यह भी कि क्या इस तरह तकरीबन हर साल किसानों का आंदोलन करना सुनियोजित एजेंडे का हिस्सा बन चुका है?
देश में किसान आंदोलन की शुरूआत 2020 में कोरोना प्रकोप के दौरान ही मोदी सरकार द्वारा लागू तीन कृषि कानूनों के विरोध में हुई थी। यह देश में अब तक का सबसे लंबा चला आंदोलन था। नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार को कृषि कानून वापस लेने पड़े। हालांकि सरकार का एक कदम पीछे खींचना राजनीतिक दृष्टि से भाजपा के लिए फायदेमंद ही साबित हुआ, क्योंकि इसने कृषि कानून विरोधी आंदोलन की धार को ही कुंद कर दिया। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं था कि किसानों की सारी समस्याअों का समाधान हो गया है।
दरअसल किसानों की जायज समस्याएं और उनका निदान ऐसे आंदोलनों तथा उस पर होने वाली राजनीति के धुंध में खो जाता है। किसानों का हफ्तोंु धरने पर बैठना, रास्ते रोकना, आंदोलन का किसानों की आंतरिक राजनीति का शिकार होना, सत्तापक्ष और विपक्षी सरकारों द्वारा इसका ट्रीटमेंट अपने अपने राजनीतिक हितों के नजरिए से करना, एक आम और गरीब किसान का ऐसे आंदोलनों से दूर ही रहना, प्रशासन द्वारा आंदोलनकारी किसानों से कभी नरमी तो कभी सख्तीा से निपटना, केन्द्र सरकार द्वारा इस तरह के आंदोलन को प्रायोजित मानकर इसकी उपेक्षा करना, इन किसान आंदोलन के स्थायी बिंदु बन चुके हैं। सवाल यह भी उठते रहे हैं कि खेती के मौसम में किसान इतनी लंबी अवधि तक धरने पर कैसे बैठे रह सकते हैं? उनके आंदोलन का हिस्सा बनने पर खेती का काम कौन संभालता है? आंदोलन के चलते अगर खेती पर ध्यान न दिया तो उससे होने वाला नुकसान एमएसपी ( न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर खरीदी नहीं होने से होने वाली हानि की तुलना में अधिक नहीं है? इसी के साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि किसान को लगातार मुश्किल में डालकर सरकार आर्थिकी को बुलेट की रफ्तामर से आगे कैसे ले जाएगी?
ऐसा नहीं है कि सरकार ने किसानों की कोई मांग नहीं मानी हो, लेकिन देश में किसी एक वर्ग को ही सर्वस्व मानकर उसे संतुष्ट करने की राह पर तो कोई सरकार आगे नहीं बढ़ सकती। इस समूची व्यवस्था का किसान एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटक हैं, इससे इंकार नहीं, लेकिन किसान और वो साधन सम्पन्न किसान ही सब कुछ हों, ऐसा भी नहीं है।
ऐसा लगता है कि तीन विवादित कृषि कानूनों की वापसी के बाद किसान आंदोलन अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार ज्यादा हो गया है। इस बार भी 40 किसानों के छाता संगठन संयुक्त किसान मोर्चे (एसकेएम) ने किसान आंदोलन से दूरी बना ली है। उसका कहना है कि जो कुछ हो रहा है, इसमें उनकी राय नहीं ली गई है। इसी तरह किसान नेता राकेश टिकैत भी इस आंदोलन से दूर है। हरियाणा के किसान संगठनों ने भी अपने हाथ खींच लिए हैं। हालांकि इस बार भी किसानों की मुख्य मांग फसलों पर एमएसपी की कानूनी गारंटी देने की है।
आंदोलनकारी किसानों की एक बड़ी समस्या, इस आंदोलन की ताकत का राजनीतिक रूपातंरण न होने की है। मोदी सरकार और भाजपा आंदोलन की इस कमजोरी से वाकिफ हैं। यह भी अपने आप में आश्चर्यजनक है कि जो किसान धूप, बारिश और सर्दी में भी डटकर आंदोलन में खड़ा होता है, चुनावी राजनीति में उसका व्यवहार कुछ और होता है। मसलन तीन कृषि कानून वापसी के पीछे भाजपा का यह भय था कि इसका असर 2022 में हुए यूपी के विधानसभा चुनाव पर न पड़े। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भी इसमें शामिल थे। लेकिन चुनाव नतीजे में भाजपा फिर सत्ता में लौट आई। सबसे हैरान करने वाला परिणाम तो पंजाब विधानसभा चुनाव का था, जहां किसानों के संगठन संयुक्त समाज मोर्चा ने 104 प्रत्याशी चुनाव में खड़े किए, लेकिन इनमें कोई भी जमानत भी नहीं बचा पाया। यह मोर्चा भी किसान आंदोलन में सक्रिय था हालांकि संयुक्त किसान मोर्चे ने चुनाव से दूरी बना ली थी। हाल में हरियाणा के विधानसभा चुनाव ने भी यही साबित किया। बाकी राज्यों के किसानों की इस आंदोलन में भागीदारी नहीं के बराबर है, जबकि समग्रता में देखें तो देश में किसानों की समस्याएं लगभग एक जैसी हैं।
अब सवाल यह है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने किसानों की समस्या का मुद्दा उठाकर केन्द्र सरकार को कठघरे में खड़ा क्यों किया? क्या उन्हें लगता है कि मोदी सरकार किसानों की मांगों को केवल राजनीतिक चश्में से देखती है या फिर उन्हे लगा कि किसानो की जायज मांगों के हल के लिए कोई ठोस उपाय अभी भी नहीं किए गए हैं? उपराष्ट्रपति की पीड़ा इसलिए भी वाजिब है, क्योंकि उन्हें कोई चुनाव नहीं लड़ना। यह भी संभव है कि वो सरकार पर दबाव बनाना चाहते हों कि उन्हें इसी पद पर दूसरा कार्यकाल मिले। लेकिन इससे यह सवाल डायल्यूट नहीं होता कि किसान आंदोलन पूरी तरह प्रायोजित है और इसका एक मात्र मकसद सरकार को ब्लैकमेल करते रहना है। उपराष्ट्रपति के कहने का आशय यही है कि सरकार किसान संगठनों से बात तो करे। पूर्वाग्रह रखने से तो कोई बात नहीं बनेगी। संवाद से ही कुछ समाधान निकलने की संभावना है। इस बीच यूपी सरकार ने किसानों के मुद्दे के निराकरण के लिए पांच सदस्यीय समिति गठित कर दी है। समिति एक माह में अपनी रिपोर्ट देगी। उधर केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराजसिंह चौहान के सामने भी चुनौती है कि वो किसानों की समस्या का निदान कैसे करते हैं? कर भी पाते हैं या नहीं?
कार्यकारी प्रधान संपादक
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 6 दिसंबर 2024 को प्रकाशित)