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उसका घर, मेरा घर....और ये दो खोली -सतीश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार, इन्दौर


आलेख

उसका घर, मेरा घर....और ये दो खोली

-सतीश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार, इन्दौर

सबके अपने-अपने घर हैं, घर का नाम सुनते ही आँखों में चमक आ जाती है। अपने गांव के घर को याद करता हूँ जो कभी दो पैसे कमाने के लिए पीछे छोड़ आया हूँ... शहर की इस मलिन बस्ती में दो खोली के घर में अपना संसार बसाकर खुश हूँ... या खुश रहने का अभिनय कर रहा हूँ।

तभी सामने बबूल के पेड़ के नीचे थका, हारा हाड़, मांस का पुतला सा, कमजोर आदमी कभी दो पैसे कमाने के लिए शहर आया होगा। देखकर मन बैचेन हो जाता है। दिल बैठ जाता है... इसका अपना घर कहाँ है..सोचता हूँ.. ख्यालों में आता है कि जैसे वह कह रहा हो.....ऐ, घर तुम इतने दूर क्यों हो? क्यों मुश्किल है तुम तक आना? भूखा थका प्यासा दमियल मैला घामड़ गंधैला, बेघर आदमी ऐसा ही सोच रहा होगा।

घुटने पे सूजन है, एड़ी में कंकड़ की चुभन से घाव हो गए हैं। बमुश्किल हाथ में झोली न उठा पाता है। ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर टूटे हुए पीढ़े पर चलता होगा।बबूल के नीचे की घास पर बैठा यह पथिक सोचता होगा कि ऐ घर, मैं फसक जाता हूँ तब तुम्हें थोड़ी भी दया नहीं आती। 

घर से कल्पना में कहता है तेरे पनसाल में मटकी है। तुम्हारे छीके में रोटी है।तुम्हारी कोठरी में खटिया है।तुम्हारे चबूतरे पर चौकी है। तुम्हारे टोड़े पर बारीक नजर की चिड़िया है तुम्हें मैं वहां कहीं नहीं दिखता? कभी दिखूं ऐसा मेरा भाग्य कहाँ..? क्या सोचकर गांव का घर छोड़ आया और... यहाँ क्या पाया है।

तभी उसे अपने गांव का घर याद आता है। मलिन बस्ती की उस खोली में..अपने गांव के घर से मन ही मन कहता है, इससे तो तुम अच्छे ही होंगे..? फिर पूछता है घर, तुम तो ठीक हो ना? 

ओ, मेरे घर दीवार के रंग की पपड़ियाँ उखड़ नहीं रही ना? दरवाजे किचुड़ते नहीं हैं ना? खिड़की की चटकनियाँ सटकी नहीं ना? छप्पर रिसता नहीं ना? फर्श पर धूल चिपकी नहीं ना? पानी का नल टपकता नहीं ना? 

फिर पूछता है, बिजली का बिल समय से चुकाया जाता है ना? डाकिया चिट्ठी लाता है ना? अखबार आता है ना? जान-पहचान के अनजान देर-सवेर घंटी बजाते हैं ना? तभी दरवाजे पर दस्तक हुई और ख्याली लहरें ओझल हो गई...।

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