..और वर्ष दर वर्ष बीत गए..! -सतीश जोशी, वरिषठ पत्रकार, इन्दौर
आलेख
...और वर्ष दर वर्ष बीत गए..!
-सतीश जोशी, वरिषठ पत्रकार, इन्दौर
विचारों का क्या... घुमड़-घुमड़ कर आते ही रहते हैं... कल रात कैलेण्डर पर नजर गई, नवंबर जा रहा है और दिसंबर आने को है। कैलेण्डर के बारह पन्नों में से ग्यारहवां पन्ना फड़ते ही एक पन्ना ही रह जाएगा, चालू वर्ष के खाते में। खर्च हो गए कैलेण्डर के पन्नों में क्या पाया, क्या खोया..? रुपया से रोमांस, ख्याति से अपयश, लाभ से हानि सुख से दुख सबका हिसाब कर लो।
क्या सिर्फ इसी चालू साल का हिसाब करना है.... जिन्दगी के बीते कैलेण्डर में ऐसे कितने ही कैलेण्डर दीवार से उतर गए.. एक और कैलेण्डर टांगने की तैयारी है। बीत गए वर्ष दर वर्ष। पता ही न रहा कैसे वे बीते? जीवन के स्वप्नोल्लास में बीते मृदु करुण हास में विलीन हुए वर्ष!
बीता जीवन कुछ ग्रहण किया, आयुष्यथ कभी स्मितयुक्त, कभी भयभरा समय! मानो सदा निंद्रा में ही डग भरता होऊँ, इसी प्रकार चलता रहा, अब तक तो। ये भी मेरा, वह भी मेरा। मेरे में बीत गया सारा रागरंग।
मद, नशा,आकर्षण, मदमाता यौवन सब मन में जो प्रणय-भार जमा हुआ है, वह हिसाब करने ही नहीं देता। वही मद क्षण-भर भी चैन नहीं लेने देता। अपने अच्छे, बुरे कार्य और जीवन काव्य में वह प्रकट हुआ है। आनंद, अय्याशी, लोभ, लाभ की जग-मधुरिमा पद-पद पर पीकर जीवन चलता ही रहा।
सोचता हूं तो बहुत विचार आते हैं। पर कुछ तो जमा किया अपने खाते में। जीवन भर सौहार्दो का मधुपुट रचकर अपना रचनाधर्म निभाया ही है। हां, यह भी है कि अविश्रांत रूप से विलसित भी होता रहा! यह भी है खाते में जमा।
तो फिर विचार आया, अरे यह हृदय, मेरा प्यारा ह्रदय, भाव से भरा, इसमें और भी कुछ है! मेरे समूचे आयुष्पथ को इसी ने तो रसमसा दिया है!ऐसा नहीं कि मार्ग में विष, विषम स्वन- भय असत् संयोगों की बेला नहीं आई। वह भी आई, खूब आई।
किंतु सभी ही संजीवन बन गए। अपने आचरण, भाव और ईश्वर की कृपा से अनेक काँटे कुसुम से हो गए! जीवन फुलवारी हो गया।
सब कुछ मीठा-मीठा ही नहीं रहा। जीवन के कुछ पल तिरस्कारों के मध्य में भी बीते, कभी रोया, कभी हंसा भी। उस पर अपने को ढ़ाढ़स बंधाया। फिर कहीं से तो गूढ़ करुणा भी प्रकट हुई! कृपानिधान कभी दीखते हैं। कभी डूबते हैं। वे अरुण शिवत्व के शृंग, जिनको मैं तो रटता ही रहा...।...और न जाने कैसे वर्ष दर वर्ष बीत गए...!