राजनीति और शिक्षा पर क्या कहा था ‘गुरूजी’ ने ?
निरुक्त भार्गव,वरिष्ठ पत्रकार
वर्ष 2024 वाकई कई कारणों से महत्वपूर्ण हो चला है. अयोध्या में आदर्श पुरुष भगवान श्री रामचंद्र जी के बाल स्वरूप की स्थापना के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा-नीत एनडीए सरकार की लगातार तीसरे बार केंद्र की सत्ता में वापसी के जनादेश देने की प्रक्रिया पास आती जा रही है. और इसीलिए 2025 का साल अहम हो जाएगा कि श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन और भाजपा के संस्कारों के पीछे अडिगता से खड़ी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना को 100 वर्ष पूर्ण हो जाएंगे. संघ की कार्यप्रणाली के सन्दर्भ में उसके जन्म से लेकर आज तक किस्म-किस्म के प्रश्न लगातार उठाये जाते रहे हैं. बहरहाल, संघ के दूसरे और सबसे लम्बी अवधि तक प्रमुख यानी ‘सरसंघचालक’ रहे गुरू गोलवलकर द्वारा शिक्षा, लोकतंत्र और राजनीति जैसे आम इंसान से जुड़े मुद्दों पर जो बातें रिकॉर्ड में दर्ज हैं, वो अब ध्यान खींच रही हैं।
माधवराव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें आम तौर पर गुरूजी और आरएसएस के प्रमुख कर्ता-धर्ता के रूप में जाना जाता है, संयोग से उनकी जन्मतिथि 19 फरवरी निकट है. प्रसंगवश, संघ के वर्तमान सुप्रीमो मोहन भागवत अपनी पूरी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के साथ इन दिनों उज्जैन में डेरा डाले हुए हैं. सो, मैंने सोचा “गुरूजी” को पिक्चर में लाया जाए. ये मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे पिता स्वर्गीय डॉ रामस्वरूप भार्गव (जो उस समय विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के माधव कॉलेज के राजनीति विज्ञान विभाग के प्राध्यापक थे) ने गुरूजी से कोई 90 मिनट तक संवाद किया था. दरअसल, गुरूजी स्वास्थ्य लाभ के लिए इंदौर संघ कार्यालय में ठहरे हुए थे और उन्हीं दिनों में से एक दिन यानी 28 जुलाई 1968 को पूज्य पिताश्री को अनुपम अवसर मिल गया. दिल्ली और अन्य स्थानों से प्रकाशित “दैनिक वीर अर्जुन” ने ये साक्षात्कार अपने 10 अगस्त 1968 के अंक में विस्तार से प्रकाशित किया था।
गुरूजी प्रचलित संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली के पक्ष में खड़े दिखाई नहीं दिए. वे मानते थे कि संसद में ठोस कार्य होने की बजाय बौद्धिक मनोरंजन ज्यादा होता है. अंग्रेजी कवि लार्ड टेनिसन की एक कविता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था, “प्राचीन व्यवस्था जब समाप्त होती है तो वो अपना स्थान नवीन व्यवस्था को देती है.” उनका स्पष्ट मानना था कि संसदीय प्रजातंत्र की व्यवस्था, अव्यवस्था में बदल गई है. अब संसदीय प्रजातंत्र का स्थान नई व्यवस्था को लेना चाहिए।
उन्होंने चुनाव प्रणाली पर निशाना साधते हुए कहा था, “चुनाव के दौरान प्रत्याशी गण दो ही बात करते हैं: खुद की प्रशंसा और प्रतिस्पर्धी की निंदा.” गुरूजी का कहना था कि इस प्रकार की अनुचित और अनावश्यक प्रतिस्पर्धा ‘मनोमालिन्य’ और ‘कटुता’ पैदा करती है. इससे सत्ता से स्वयं चिपके रहने और दूसरों को सत्ता में न आने देने की भावना पैदा होती है, जो अंततः ‘राजनीतिक अस्थिरता’ को जन्म देती है।
गुरूजी ने विकल्प भी सुझाया था: “संसद अवश्य हो, लेकिन संसद सदस्यों का चयन क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा न होकर व्यावसायिक निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा होना चाहिए.” उन्होंने कहा कि प्राचीन हिन्दू-राज पद्धति में ‘पञ्च जन’ द्वारा प्रतिनिधि का चयन होता था जिसमें वर्ण-व्यवसायों के आधार पर पञ्च जन होते थे. प्रत्येक दल, वर्ग और व्यवसाय अपने-अपने प्रतिनिधियों का मनोनयन स्वयं करे क्योंकि वे अपने हितों को अच्छी तरह जानते हैं. ये मनोनीत प्रतिनिधि देश का व्यवस्थापन और प्रशासन करें. गुरूजी का मत था कि इस तरह के उपाय करने से सुयोग्य प्रतिनिधियों द्वारा सयोग्य प्रशासन संभव हो सकता है और समय का निरर्थक अपव्यय और वाणी-शक्ति का क्षय रुक सकता है।
विश्वविद्यालयों की कार्यविधि और महत्व के संबंध में गुरूजी का कहना था कि भारतीय विश्वविद्यालय कूड़ा साफ़ करने के स्थान पर कूड़ा पैदा कर रहे हैं. अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का जिक्र करते हुए उन्होंने टिप्पणी की थी कि बेशक वहां से विद्यार्थी बुद्धिमान होकर निकलते हैं, पर शेष विश्वविद्यालय केवल औपचारिकताओं का निर्वहन कर रहे हैं. गोलवलकर जी ने परीक्षा कक्षों में छात्र-छात्राओं द्वारा पुस्तकें ले जाने और पुस्तकों को पढ़कर प्रश्नोत्तर लिखने की प्रणाली का समर्थन किया. उनका तर्क था कि इस प्रणाली को लागू करने से चोरी से नकल करने की प्रवृत्ति मिटेगी और परीक्षकों द्वारा परीक्षार्थियों की पात्रता का अंकन भी ठीक प्रकार से किया जा सकेगा।
महज 67 वर्ष की आयु में गुरूजी का प्राणांत 05 जून 1973 को हो गया, लेकिन वो ठेठ क्रांतिवादी शख्सियत थे. रामटेक में जन्मे और नागपुर में प्राण छोड़ने वाले माधव सदाशिव गोलवलकर ज्ञान-विज्ञान-विधि-कानून के क्षेत्र के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं के निष्णात ज्ञाता थे. गांधी वध के सिलसिले में आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगने, सरदार पटेल द्वारा संघ का कांग्रेस में विलय करने जैसे मुद्दों पर उनसे जुड़े कथानक बेहद ऐतिहासिक और मील के पत्थर के समान हैं. वक़्त न केवल उनके अवदान को रेखांकित करने का है, पर उनके द्वारा व्यक्त अमूल्य और सर्वथा उपयोगी विचारों को अमलीजामा पहनाने का भी है।