‘भारत रत्न’ में घुली ‘चुनावी चमक’ के नरेटिव का धुंधला सच
अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार
मोदी सरकार द्वारा हाल में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से दो राजनीतिक विभूतियों को सम्मानित करने ऐलान के बाद एक नैरेटिव यह बनाने की कोशिश हो रही है कि इसके पीछे सम्मान और कृतज्ञता का भाव कम और सियासी एंगल ज्यादा है।
दरअसल, लोकसभा चुनाव से पहले शीर्ष पुरस्कारों की इस कवायद के पीछे नीयत भाजपा के पक्ष में वोटों को खींचना है। गौरतलब है कि बीते एक पखवाड़े में देश की दो अजीम सियासी हस्तियों समाजवादी नेता और बिहार के दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर को पिछड़ी जातियों के सामाजिक राजनीतिक उत्थान के लिए मरणोपरांत तथा भाजपा के वरिष्ठतम नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रीय एकता, देश के सांस्कृतिक उत्थान व अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भारत रत्न देने का ऐलान हुआ। घोषित तौर पर दोनों को यह पुरस्कार उनकी अन्यतम देश सेवा के लिए दिया गया है। ‘भारत रत्न’ ऐसा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है, जो राष्ट्रपति सीधे प्रधानमंत्री की सिफारिश पर देते हैं। पहले यह कला, साहित्य, विज्ञान और लोकसेवा को लेकर ही दिए जाते थे। बाद में नियमों में संशोधन कर इसे अन्य क्षेत्रों के लिए विस्तारित कर दिया गया है। हालांकि देश का यह सबसे बड़ा नागरिक सम्मान कई बार सवालों के घेरे में रहा है। खासकर राजनेताओं को ये पुरस्कार देने के पीछे मंशा को लेकर।
पुरस्कार पर सियासत और चुनाव
इस बार भी इस पुरस्कार की टाइमिंग और पात्र चयन के संदर्भ में यह नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई कि कर्पूरी ठाकुर के रूप में पहली बार देश में किसी अति पिछड़ी जाति के व्यक्ति को सबसे बड़े सम्मान से नवाजा गया है, जबकि आडवाणी के बारे में कहा गया कि कभी हाशिए पर पड़ी भाजपा उन्हीं के भागीरथ प्रयासों से आज दिल्ली के तख्त पर काबिज है और देश के बहुसंख्यक हिंदुओं की आकांक्षा अयोध्या में राम मंदिर ने आकार ग्रहण किया है।
जाहिर है कि इसमें निहित राजनीतिक संदेश यही है कि इन भारत रत्नों के जरिए मोदी सरकार ने बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में भी अति पिछड़ी जातियों तथा आडवाणी के माध्यम से कट्टर हिंदुत्ववादी वोटों को साधने की कोशिश की है। माना जा रहा है कि ‘भारत रत्न’ दिए जाने की खुशी कहीं न कहीं वोटों में तब्दील हो सकती है। अपेक्षा और अनुमान के स्तर पर यह बात सही हो सकती है, लेकिन अगर भारत में पिछले पचास सालो में दिए गए भारत रत्न सम्मानों, इस सम्मान से सम्मानित होने वाली हस्तियों और इस सम्मान की घोषणा के सालभर के अंदर देश में होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनावों के नतीजों को परखें तो तस्वीर कुछ और ही नजर आती है। ज्यादातर मामलों में भारत रत्न घोषित करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी को इसका चुनावी लाभ अपवाद स्वरूप ही मिला है।
अगर वो चुनाव जीती भी है तो उसके कारण दूसरे हैं न कि किसी फलां जाति, धर्म, प्रदेश अथवा समुदाय के व्यक्ति को भारत रत्न देने के कारण। इसका सीधा अर्थ यह है कि भारत रत्न जैसा सर्वोच्च पुरस्कार इस सत्ताकांक्षी संकुचित सोच से कहीं ऊपर है और देश की जनता भी अमूमन उसे उसी रूप में लेती है, यह मानकर कि भारत रत्न जैसे राष्ट्रीय गौरव के मुद्दे को वोटों के क्षुद्र अंकगणित में नहीं तौला जाना चाहिए, भले ही सरकारें इस पुरस्कार के पीछे प्रतिभा के सम्मान के साथ वोटों की गोलबंदी का अघोषित तड़का लगाने की कोशिश करती महसूस हों। अगर हम पिछले पचास सालों में घोषित भारत रत्न पुरस्कारों और इस घोषणा के सन्निकट लोकसभा व विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करें तो कई बातें साफ हो जाएंगी। इस तरह की पहली धुंधली कोशिश देश के पूर्व प्रधानमंत्री और सादगी की प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री को मरणोपरांत भारत रत्न देने की मानी जा सकती है। तब देश में कांग्रेस की सरकार थी। शास्त्री जी का निधन 1966 में हुआ और 1965 के भारत- पाक युद्ध में भारत की जीत के चलते उन्हें भारत रत्न मरणोपरांत दिया गया। उसके अगले ही साल 1967 में देश में लोकसभा के चुनाव हुए। तब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। उस चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आने के लिए जैसे- तैसे बहुमत जुटा पाई। उसकी जीती हुई सीटों का आंकड़ा अब तक न्यूनतम था। यानी कांग्रेस को शास्त्रीजी को भारत रत्न देने का कोई विशेष राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। बल्कि कांग्रेस उस उत्तर प्रदेश, जो शास्त्री जी का गृह प्रदेश भी था, में 1967 के विधानसभा चुनाव में बहुमत का आंकड़ा भी नहीं छू पाई।
भारत रत्न और राजनीतिक यात्रा
इसी तरह 1990 में तत्कालीन जनता दल सरकार और उसके प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर की जन्म शताब्दी पर उन्हें तथा महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस को मरणोपरांत भारत रत्न देने का ऐलान किया ( सुभाष बाबू को मरणोपरांत भारत रत्न देने पर भी सवाल उठा था, क्योंकि उनकी मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है)। लेकिन अगले ही साल 1991 में हुए आम चुनाव में वीपी सिंह की पार्टी सत्ता से बेदखल हो गई। ऐसा ही एक नैरेटिव 2013 में बनाने का प्रयास हुआ जब केंद्र में प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व कार्यरत यूपीए- 2 सरकार ने महान क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने का ऐलान कर दिया। सचिन बहुत कम उम्र में यह नागरिक सम्मान पाने वाले व्यक्ति हैं। तब अघोषित तौर पर यह नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई थी कि चूंकि सचिन देश के युवाओं के आइकन है, अत: उन्हें भारत रत्न देने से युवा आम चुनावों में बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट देंगे।
इस भारत रत्न सम्मान की घोषणा के अगले ही साल 2014 में आम चुनाव हुए और कांग्रेस आजादी के बाद अपने न्यूनतम स्कोर 44 पर जा पहुंची। दूसरी तरफ हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का झंडा थामे भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपने दम पर ही सत्ता में आ गई। इतना ही नहीं जिस महाराष्ट्र से सचिन आते हैं, वहां भी कांग्रेस 2014 के विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर हो गई। उत्तर भारत से उसका सफाया हो गया। मोदी सरकार ने 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देने का ऐलान किया। माना गया कि यह उस पश्चिम बंगाल के लिए भी संदेश है, जहां भाजपा अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है। लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस फिर भारी बहुमत से सत्ता में आ गई और भाजपा महज 3 सीटें ही जीत पाई। अलबत्ता प्रणब दा जरूर इस सम्मान से गदगद दिखे। मोदी सरकार द्वारा 2019 में असम के महान संगीतकार डाॅ: भूपेन हजारिका को भारत रत्न देने की घोषणा हुई। उसके दो साल बाद 2021 में हुए असम विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में लौट आई। लेकिन उसके पीछे असली कारण वोटों का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण और प्रतिदंद्वी कांग्रेस में अंतर्कलह होना ज्यादा था न कि भूपेन दा को भारत रत्न देना।
सी तरह 2019 में पहली बार एक राष्ट्रवादी नेता और समाजसेवी नानाजी देशमुख को भारत रत्न दिया गया। नानाजी महाराष्ट्र से थे। महाराष्ट्र में उसी साल विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बाद भी भाजपा शिवसेना से झगड़ों के कारण सत्ता से बेदखल हो गई। जबकि लोकसभा चुनाव में उसकी सहयोगी रही शिवसेना ने कांग्रेस व राकांपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। वैसे सवाल तो प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए पं.जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी को भारत रत्न देने को लेकर भी उठे थे। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपतियों डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद और वी.वी.गिरी ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए कहा था कि यह ‘उनका’ निर्णय है।
अब मोदी सरकार ने कर्पूरी ठाकुर और लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देने की घोषणा की है। आमतौर पर उसका स्वागत ही हुआ है। लेकिन इन ‘भारत रत्नों’ की चुनावी चमक भी दिखेगी, कहना मुश्किल है। कर्पूरी ठाकुर के संदर्भ में एक अटकल यह है कि चूंकि बिहार में 36 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग ( ईबीसी) हैं, इसलिए यह वर्ग एनडीए को समर्थन देगा। कर्पूरी ठाकुर भी नाई समाज से थे, जो ईबीसी में आता है। लेकिन यह वर्ग पहले से नीतीश कुमार यानी एनडीए के पक्ष में है।
कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने से इसमें और ज्यादा वृद्धि की गुंजाइश कम ही है। राष्ट्रीय स्तर पर ईबीसी जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन अगर हम बिहार में ईबीसी आबादी के प्रतिशत को राष्ट्रीय संदर्भ में अप्लाई करें तो देश में इन जातियों की आबादी करीब 50 करोड़ होती है ( ईबीसी से तात्पर्य वो पिछड़ी जातियां जिनकी वार्षिक आय 1 लाख रू. वार्षिक से कम है और किसी और श्रेणी में आरक्षित नहीं हैं)।
अगर कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न का अनुकूल संदेश ईबीसी में गया तो पूरे देश में भाजपा को आम चुनाव में इसका भारी लाभ मिल सकता है। लेकिन यह केवल अनुमान है। इसी तरह आडवाणी को किसी समुदाय के दायरे में बांधकर देखना सही नहीं होगा। फिर भी वो जिस सिंधी समुदाय से आते हैं, उनकी देश की आबादी में हिस्सेदारी महज 0.23 प्रतिशत है और इनमें से भी ज्यादातर भाजपा के साथ ही हैं। हालांकि इससे उन भाजपाइयों में जरूर सकारात्मक संदेश गया है, जो अपेक्षाकृत उदार हिंदुत्ववादी हैं। अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वंस को उन्होंने अपने जीवन का सबसे दुखद दिन बताया था। आडवाणी पर अपने उत्तर काल में सेक्युलरवाद की तरफ झुकने का आरोप लगा था। फिर भी आडवाणी को भारत रत्न दिया गया है तो कुछ लोगों का मानना है कि यह उनके राजनीतिक शिष्य नरेन्द्र मोदी द्वारा देर से ही सही मगर दी गई ‘गुरु दक्षिणा’ है और पूर्व में की गई उपेक्षा की मीठी नुकसान भरपाई है।
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