स्मृति शेष अशोक वक्त
अपनी शर्तों और जिदों पर जीनेवाला मेरा दोस्त चला गया
डॉ. अरूण वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
माधव कालेज में बीए करते वक्त मेरी सदाबहार मुलाकात अशोक दुबे से हुई तो जो समय के साथ-साथ अशोक वक्त हो गया था। अफसोस है कि आज उसके इस फानी दुनिया से कूच करने पर मुझे उसकी याद में लिखना पड़ रहा है।वो अपनी शर्तों, जिदों के साथ शिद्दत से जिंदगी जीने वाला यार था,मेरा दोस्त और हमसफ़र मगर बीच रास्ते ही उसने हाथ छोड़, दूसरी दुनिया के लिए दौड़ लगा ली।ऐसी भी क्या जल्दी थी अशोक,इस जमाने को शोक में डुबोने की। दुनिया को फतह करने वाले इंसान का केवल मौत पर ही कोई बस और काबू नहीं रहता।
साहित्य, कला और संस्कृति में सराबोर इस शख्सियत का जन्म 2 नवंबर 1952 को उज्जैन के जोशी घराने में हुआ, और वे बाद में अपने नाना श्रीकृष्ण दुबे के घर गोद चले गए।
सृजन की बेकली और बेताबी उसमें छात्र जीवन से रही। कविता, आलेख, समीक्षा,रिर्पोताज, कला समीक्षा में उसकी कलम ताउम्र चलती रही, मुझे फैज़ अहमद फैज़ की ये दो पंक्तियां बहुत मौजूं लग रही हैं -
हम परवरिश ए लौह ओ कलम करते रहेंगे,
जो दिल पर गुजरती है,रक़म करते रहेंगे।
(लेखनी और तख्ती का पालन-पोषण हम हमेशा करते रहेंगे,दिल पर जो गुज़र रही है उसे सदा कलम बद्ध करते रहेंगे)
डॉ शिवमंगल सिंह सुमन का अशेष आशीर्वाद और वरदहस्त अशोक को मिलता रहा,1968 की जुलाई में सुमन जी विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए तब उज्जैन और उसकी युवा शक्ति की दिवानगी देखते ही बनती थी, हम-दोनों भी पागल हो रहे थे, खुशी का इजहार लफ़्ज़ों में बयां नहीं हो रहा था।अगला ही साल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मशताब्दी वर्ष था, उनकी पोती सुश्री आभा गांधी के नेतृत्व में 'गांधी जन्मशताब्दी प्रदर्शनी रेलगाड़ी' कुछ दिन उज्जैन रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर रुकी, सुमन जी के साथ सैकड़ों छात्र छात्राएं उसे देखने गए। गांधी शताब्दी के असंख्य आयोजन और प्रतियोगिताएं हुई। अशोक दुबे वर्धा गये और अपनी अमर कविता "वर्धा आंसू से भीगा है,खून से सनी है साबरमती"पर पुरस्कृत होकर लौटे, मुझे भी निबंध में पुरस्कार मिला, वार्षिकोत्सव में अशोक और मैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के हाथों से पुरस्कृत हुए। विनोद पांडे,सुदीप बनर्जी के बाद आलोक मेहता, अशोक दुबे, अरविंद जैन आदि ने डिबेट में खूब नाम रोशन किया।हम दोनों अखिल भारतीय कालिदास समारोह की हिंदी वाद-विवाद में भी पुरस्कृत हुए। मैंने एम ए के दौरान हिंदी और संस्कृत डिबेट में भाग लिया और बाद में कालिदास समारोह की हिंदी डिबेट का बीस, बाईस साल निरंतर संचालन किया बाद में यह मोर्चा अशोक वक्त अभी तक संभालते रहे। माधव कालेज के दौर में ही उस समय हम जैसे उत्साही और प्रतिभाशाली युवा साथियों को डॉ चिंतामणि उपाध्याय, डॉ मदन व्यास,डॉ हरीश प्रधान, प्रो नवीन डेविड,डॉ शिव शर्मा, डॉ भगीरथ बडोले का प्रोत्साहन और प्रेरणा मिलती रही।
सुमन जी के बाद डॉ बी एन लुणिया और डॉ ब्रजबिहारी लाल निगम हमारे प्राचार्य रहे। हमारे साथियों में सुभाष दशोत्तर, निरंजन गुप्ता,प्रतीश पाठक, मुरलीधर चांदनीवाला आदि प्रमुख थे।अशोक और मैं रतलाम महाविद्यालय के युवा उत्सव में शामिल हुए तब जयकिरण और विजय वाते होस्टल में रहते थे। बहुत ही यादगार मस्ती,रस रंजन के माहोल में हमारा समय गुजरा।उसी दौर में हम दोनों माधव कालेज की ओर से लखनऊ में आयोजित अखिल भारतीय राष्ट्रीय युवा महोत्सव में शामिल हुए, अस्सी वर्षीय प्रशांत पांडेय उस समारोह के संयोजक थे।रेल यात्रा में ही अशोक और मैंने तय कर लिया था कि मैं भारतीय वेषभूषा कुर्ता पायजामा पहनुंगा और अशोक ठेठ विलायती वेषभूषा सूट पैंट टाई और हैट में रहेगा। जबकि प्रतियोगिताओं में हम अपनी अपनी ड्रेस के विपरीत अपने विचार और तर्क रखेंगे।
छात्र जीवन के बाद अशोक और मैं दोनों ही उज्जैन के सबसे बड़े सांस्कृतिक महोत्सव कालिदास समारोह और रंगमंच से जुड़े। अशोक हिंदी रंगमंच से और मैं संस्कृत नाटकों और रंगमंच से जुड़े। कालिदास समारोह के अनेक संयोजकीय दायित्व हमने पचास पचपन साल तक निबाहे। कालिदास अकादमी की पत्रिका वृत्तांत का लगभग बीस साल तक कुशल संपादन अशोक वक्त ने किया।अशोक उज्जैन की रंग चेतना के महत्वपूर्ण प्रेरणा बिंदु रहे। छात्र जीवन के बाद नईदुनिया के राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के दौर में अशोक वक्त ने कालिदास समारोह से जुड़ी कला समीक्षा की एक अनवरत यात्रा शुरू की जो अभी तक जारी रही, और वे सफल कला समीक्षक के रूप में यादगार भूमिका निभाते रहे। साहित्य सृजन के साथ ही पत्रकारिता का जूनून और प्रकाशनों की ओर भी वे शिद्दत से जुटे उन्होंने कश्मकश, पुरुषार्थ प्रताप और विक्रांत भैरव दर्शन अखबारों में अपने चमत्कारी लेखन का लोहा मनवाया। सुमन जी, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे की जन्म शतियों पर उन्होंने पूरे साल लिखा। कालिदास समारोह के साथ ही रंग प्रभात, मध्यप्रदेश नाटक लोककला अकादमी और अन्य संस्थाओं के साथ अपनी सक्रिय रंगयात्रा जारी रखी। राष्ट्रीय सेवा योजना,टैग इंडिया, से जुड़े युवा उत्सवों में भागीदारी की। अपने हुनर और फन से शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता, रंगमंच के क्षेत्रों में धीरेन्द्र परमार, शाहिद मिर्ज़ा, परवेज अहमद,जफर महमूद, प्रकाश कड़ोतिया जैसी प्रतिमाओं को निखारा और संवारा। अशोक उज्जैन नगर की साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों के केंद्र में बने रहे।सुमन रचनावली 'सुमन समग्र'के संपूर्ण संचयन और संपादन का काम निस्वार्थ भाव से उन्होंने अपने नामोल्लेख के बिना किया।
वे सारी जिंदगी दूसरों के उत्सव, आरती, अभिनन्दन में लगे रहे अपने लिए कुछ नहीं किया, दूसरों को सम्मानित करने में ही उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। उनकी मयकशी के शौक ने उन्हें सांसारिक फर्ज और जिम्मेदारियों से लापरवाह भी रखा यह उनकी जिंदगी का एक स्याह पक्ष भी रहा है लेकिन फिर भी अपने फकीराना ख्याल, फक्कड़ तबीयत के धनी,रोशन ख्याल अशोक ने अपने तरीके से जिंदगी की सबसे जुदा इबारत लिखी। साहित्य की इबादत उनकी सांस सांस में रवां थी। फैज़ अहमद फैज़ की यह कविता वे खुद बहुत सुनाते थे -
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे,
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया।
अशोक वक्त अधूरा काम नहीं पूरी विरासत छोड़ गए हैं उसे समेटना बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।यह भी संयोग ही है कि डॉ सुमन 27 नवम्बर को, डॉ हरीश प्रधान 27 अगस्त को और इन दोनों के शिष्य अशोक वक्त 27 जनवरी को इस दुनिया से विदा हुए। अशोक की अनंत और अक्षय स्मृति को मेरा नमन।