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प्राण-प्रतिष्ठा के बाद भी जान इतनी साँसत में क्यों है ?


श्रवण गर्ग ,वरिष्ठ पत्रकार

प्रधानमंत्री को उनके ही मंत्रिमंडल ने एक प्रस्ताव पारित करके ‘जननायक ‘ घोषित कर दिया है। जनता को भी अब ऐसा ही प्रस्ताव पास कर देना चाहिए ! देश में इस समय क्रांतिकारी परिवर्तनों की बयार बह रही है ! स्वीकार कर लिया जाना चाहिये कि पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी नहीं बल्कि 22 जनवरी अब नये भारत देश के जन्म और उसके गणतंत्र बनने की तिथि है। प्रधानमंत्री ने देश और दुनिया को जानकारी दी है कि 22 जनवरी का सूरज एक अद्भुत आभा लेकर उदित हुआ है और एक नए कालचक्र का उद्गम है। उसके उत्सव के शुभ क्षण से आगे आने वाले हज़ार वर्षों के लिए भारत की नींव रखी जानी है।

प्रधानमंत्री के उद्बोधन के बाद यह नहीं बताया गया कि वर्तमान के जिस कालचक्र में एक सौ चालीस करोड़ हाड़-मांस के पुतले साँस ले रहे हैं वह क्या है और जिस ‘रामराज्य’ के आगमन की ओर (राष्ट्रीय स्वयंसेवक) संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने अयोध्या में इशारा किया है उसकी संरचना किन शिल्पियों द्वारा सत्ता के गुप्त तहख़ानों में की जा रही है ?

हो रहे परिवर्तनों की आहटों को संकेतों में समझना हो तो सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन की पूर्व संध्या पर तत्कालीन प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के प्रमुख के तौर पर धर्मविशेष के श्रद्धा स्थल को महिमामंडित करने वाले आयोजन में अपनी उपस्थिति दर्शाने के प्रति आगाह किया था। राजेंद्र बाबू नहीं माने। अब 22 जनवरी केवल एक तारीख़ ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक क्षण इसलिए है कि न सिर्फ़ प्रधानमंत्री स्वयं ने ही एक यजमान के रूप में सोमनाथ  की तरह के ही एक मंगलप्रसंग पर उपस्थित रहने का निर्णय लिया संवैधानिक तौर पर नियुक्त भारत गणतंत्र की प्रथम नागरिक ने मोदी के अयोध्या-प्रस्थान की पूर्व संध्या पर उन्हें अपना शुभकामना संदेश भी प्रेषित किया। 

राष्ट्रपति ने अपने शुभकामना संदेश में कहा: हम सब सौभाग्यशाली हैं कि राष्ट्र के पुनुरत्थान के नए चक्र के शुभारंभ के साक्षी बन रहे हैं। राम मंदिर के शुभारंभ अवसर पर व्याप्त देशव्यापी उत्सवी वातावरण को राष्ट्रपति ने भारत की चिरंतन अन्तरात्मा की उन्मुक्त अभिव्यक्ति निरूपित किया। ‘आपके द्वारा किया गया 11-दिवसीय कठिन अनुष्ठान ,पवित्र धार्मिक परंपराओं का अनुसरण मात्र नहीं बल्कि त्याग की भावना से प्रेरित सर्वोच्च धार्मिक कृत्य है तथा प्रभु श्री राम के प्रति संपूर्ण समर्पण का आदर्श है,’ राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र में कहा।

मुड़कर देखा जाना चाहिए कि राम लला के लिए हज़ारों करोड़ की लागत से बने भव्य मंदिर के परिसर में बैरिकेड्स के पीछे शांत भाव से सजे-धजे और मूक बने बैठे वे सात-आठ हज़ार प्राणी कौन थे ? क्या देश ये अतिमहत्वपूर्ण चेहरे केवल राम-लला के दर्शनों के लिए ही अपना क़ीमती वक्त और धन खर्च करके अयोध्या पहुँचे थे ? या देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति को मुँह दिखाने के लिए उनका वहाँ जमा होना ज़रूरी हो गया था ? क्या इन लोगों को राम लला के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो पाया ? ये लोग उन करोड़ों लोगों से निश्चित ही अलग थे जो 22 जनवरी को तो अनामंत्रित थे पर इस समय अपने असली राम के दर्शनों के लिए क़तारों में धक्के खा रहे हैं।

साधुओं, संतों, बड़े-बड़े उद्योगपतियों , नायकों, सदी के महानायकों , राजनेताओं की जिस चुनी हुई जमात को अयोध्या में आमंत्रित किया गया था वही देश और सरकारों को चलाती है। दिल्ली में सरकार चाहे जिस भी पार्टी की बने, प्रत्येक प्राण-प्रतिष्ठा में केवल इन लोगों की उपस्थिति ही सत्ता के भगवानों द्वारा स्वीकार की जाती है। मीडिया के कैमरों की आँखों की मदद से देश की जनता इसी जमात के वस्त्रों, आभूषणों ,मेक-अप और सजी-धजी मुद्राओं को निहारती हुई अपने सारे दुख-दर्दों को भूल जाती है। सरकार भी जनता को स्पष्ट संदेश देना चाहती है कि वे तमाम लोग जिनकी ज़रा सी भी हैसियत है इस समय उसका साथ दे रहे हैं। जो समारोह में अनुपस्थित हैं उन्हें सरकार अपने साथ नहीं मानती।

स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास की शायद पहली घटना है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रि-परिषद ने अयोध्याधाम में हुई राम लला की  प्राण-प्रतिष्ठा के लिए एक अभूतपूर्व प्रस्ताव पारित कर मोदी को बधाई दी है। प्रस्ताव में कहा गया है : ‘1947 में तो देश का शरीर ही स्वतंत्र हुआ था, 22 जनवरी को उसमें आत्मा की प्राण प्रतिष्ठा हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए नियति ने आपको चुना है। जनता का जितना स्नेह आपको मिला है उसे देखते हुए आप जननायक तो हैं ही, अब इस युग प्रवर्तन के बाद आप नवयुग प्रवर्तक के रूप में भी सामने आए हैं।’

इसमें कोई दो मत नहीं कि शंकराचार्यों के मुखर विरोध के बावजूद की गई राम लला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के समारोह को भाजपा 2024 के लोकसभा चुनावों में जनता के समर्थन में तब्दील करना चाहती है।  जनता भी समझ रही है कि पिछले दस सालों के कामों की उपलब्धियों के नाम पर सरकार के पास या तो कोरोना के टीकों की गिनती है या फिर अयोध्या में राम लला का भव्य मंदिर ! तो क्या केवल अयोध्या में मंदिर के निर्माण भर से लोकसभा में भी पार्टी के बहुमत की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाएगी ? राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से अगर राजनीतिक सफलता के प्रति ‘जननायक’ को इतना ज़बरदस्त आत्मविश्वास था तो फिर अयोध्या से बाहर निकलते ही उनकी पार्टी इतनी डरी-सहमी क्यों नज़र आ रही है ?

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