बहुविद्य साहित्यकार अशोक वक्त
डॉ. देवेन्द्र जोशी
बहुविद्य साहित्यकार अशोक वक्त के समग्र व्यक्तित्व को समझने के लिए हमें करीब 72 वर्ष पीछे लौटना होगा। बात सन 1952 की है जब श्री भालचंद्र जोशी और उर्मिला जोशी के परिवार में एक सुयोग्य बालक का जन्म हुआ।नाम मिला अशोक। छोटी उम्र में ही नाना श्रीकृष्ण दुबे के यहां गोद चले गये तो अशोक दुबे नाम हो गया। आगे चलकर श्रेष्ठ वक्ता की उपाधि और ख्याति मिली तो अशोक वक्त नाम हो गया। सन् 1972 तक आते-आते 20 वर्ष की उम्र में यह नौजवान उज्जैन के अपने विद्यार्थी साथियों और शिक्षकों बीच कला साहित्य और संस्कृति के आकाश पर धूमकेतु की तरह छा जाता है। अपने कला मनीषी आचार्य ऋषि तुल्य प्राध्यापकोऔ और संस्कृति संपन्न परिवेश से अभिभूत हो यह नौजवान जाने - अनजाने कब साहित्य कला संस्कृति को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेता है कुछ पता ही नहीं चलता।
महाराजवाडा के छात्र रहे
उज्जैन के शासकीय महाराजवाड़ा हायर सैकेंडरी स्कूल के विद्यार्थी के रूप में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दे चुका यह तरुण जब माधव महाविद्यालय की दहलीज पर पहला कदम रखता है तो अपनी वक्तृत्व प्रतिभा और साहित्यिक मेधा से न केवल छात्र समुदाय अपितु प्राध्यापकों का भी दिल जीत लेता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अशोक वक्त की साहित्यिक प्रतिभा को सर्वाधिक निखरने का अवसर उज्जैन के माधव महाविद्यालय के तब के परिवेश में मिला।
माधव कॉलेज से पहचान मिली
हालांकि वे औपचारिक रूप से उज्जैन के माधव कॉलेज के केवल 3 वर्ष तक ही छात्र रहे क्योंकि उसके पश्चात उन्होंने शिक्षा से आजीवन स्वैच्छिक मुक्ति प्राप्त कर ली। संगीत कला नृत्य साहित्य अन्य दुर्लभ विधाओं में अपने शागिर्दों के लिए 10 से अधिक एचडी लिखने वाले अशोक वक्त अगर जीवन में चाहते तो ग्रेजुएशन से आगे की पढ़ाई तो क्या वे डिलीट तक की अनेक उपाधि हासिल कर सकते थे लेकिन वे जिस मिट्टी के बने हुए थे वह बताती थी कि वे इस फानी दुनिया से कुछ लेने के लिए नहीं कुछ देने आए थे। इस संसार क्षणभंगुरता की वास्तविकता को उन्होंने बहुत पहले समझ लिया था। वे इस दुनिया में कुछ हासिल करने के लिए नहीं बल्कि जो कुछ हासिल किया है उसे लुटाने के लिए आए थे। यही वजह थी कि अपनी साहित्यिक और वक्तृत्व प्रतिभा से उन्होंने सभी को चमत्कृत कर दिया ।
वक्तृत्व प्रतिभा से चमत्कृत किया
19 - 20 वर्ष की अवस्था में ही वे माधव महाविद्यालय के विद्यार्थी के रूप में देश भर के छात्रों के बीच एक आइकान बनकर उभरे । उन्होंने अपनी वक्तृत्व और काव्य प्रतिभा से सभी को बहुत प्रभावित किया। उनके तब के वाद - विवाद प्रतियोगिताओं के साथियों में आलोक मेहता, सुदीप बनर्जी, डॉक्टर राजेंद्र आर्य, डॉ अरुण वर्मा, प्रतीक पाठक अनेक ऐसे प्रतिभावान विद्यार्थी रहे ताउम्र अशोक वक्त की साहित्यिक मेधा का लोहा मानते रहे।
इसी दौरान गांधी शताब्दी का वर्ष आया तो युवा अशोक वक्त ने अपनी एक लंबी कविता वर्धा आंसू से भीगा है खून से सनी है साबरमती रच कर पूरे जोशोखरोश के साथ तरुणाई के बीच सुनाया तो उज्जैन से लेकर दिल्ली तक के छात्र और प्राध्यापकों के बीच एक धूम सी मच गई। अशोक वक्त रातों-रात साहित्य के सितारे बन गए। क्या कवि क्या लेखक क्या साहित्यकार सभी उनकी प्रतिभा के मुरीद हो गए और अशोक वक्त एक के बाद एक अपनी रचनात्मक सक्रियताओं से परिवेश को आलोकित करते रहे। वे इन साहित्यिक गतिविधियों में इतने रच बस गए की करियर पढ़ाई - लिखाई परिवार बसाने आदि की प्राथमिकताएं पीछे छूटती चली गई। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन कला साधना, साहित्यिक लेखन, रंग कर्म आदि को समर्पित कर दिया। माधव कॉलेज के तब के प्राध्यापकों प्राचार्य, विक्रम विद्यालय के कुलपति और तमाम साहित्यिक समाज के बीच अशोक वक्त एक सृजनशील युवा के रूप में अपनी पहचान बन चुके थे। उनकी सुबह माधव कॉलेज से और शाम विक्रम विश्वविद्यालय परिसर में ही बीती थी।
55 वर्षों की अनवरत यात्रा
माधव कॉलेज से शुरू हुई यह कला संस्कृति यात्रा विक्रम कीर्ति मंदिर, कालिदास समारोह, कालिदास अकादमी, विक्रम विश्वविद्यालय, आकाशवाणी और दूरदर्शन होते हुए 27 जनवरी 2024 को चक्रतीर्थ पर उनकी देह के पंचतत्व में विलीन होने के साथ थम गई। लेकिन वक्त कब थमता है ।अशोक वक्त ने अपनी करीब 55 वर्षों की सांस्कृतिक यात्रा के दौरान लेखन, वक्तृत्व, कला समीक्षा, रंग कर्म संपादन और नई पीढ़ी में व्यक्तित्व विकास के संरक्षण पर केंद्रित रखा। वह दौर लेखन और पठान - पठान का दौर था। कंप्यूटर क्रांति और डिजिटल टेक्नोलॉजी का आविष्कार नहीं हुआ था । इस कारण पत्र - पत्रिकाओं और छपे हुए अक्षर का बड़ा महत्व था। लिखा हुआ एक-एक अक्षर पत्थर की लकीर माना जाता था। ऐसे समय में उज्जैन का अखिल भारतीय कालिदास समारोह सारे भारतवर्ष में सांस्कृतिक चेतना का एक बड़ा केंद्र था। अशोक वक्त आरंभ से ही उससे जुड़े। जब कालिदास समारोह के मंच पर सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का दौर शुरू हुआ तो वह आरंभ में ही रंग कर्म और फिर कला समीक्षाओं की ओर मुड़ गए ।
नई दुनिया के कला समीक्षक रहे
सबसे पहले उन पर प्रख्यात कला मनीषी और नई दुनिया के साहित्य संपादक श्री राहुल बारपुते की नजर पड़ी। उन्होंने अशोक वक्त को नई दुनिया के लिए अखिल भारतीय कालिदास समारोह की कला समीक्षाएं लिखने का अवसर प्रदान किया। हर शाम मंच से होने वाली प्रस्तुति को देखकर हाथों-हाथ उसकी समीक्षा लिखकर नई दुनिया कार्यालय को प्रेषित करना यह क्रम पूरे सात दिन तक जारी रहता था। अगले दिन सुबह के अखबार में प्रकाशित होने वाली अशोक वक्त की लेखनी से निकली हुई सधी हुई समीक्षाएं न केवल सुधी पाठकों अपितु आमजन को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहती थी।
यह आप देख ही चुके हैं कि वह एक कवि के रूप में अपनी एकमात्र कविता वर्धा आंसू से भीगा है खून से सनी है साबरमती के जरिए सारे देश में धूम मचा चुके थे तो माधव कॉलेज और विक्रम विद्यालय की वाद - विवाद प्रतियोगिताओं में अपनी वक्तृत्व प्रतिभाओं का लोहा मानव कर वे पहचान स्थापित कर चुके थे। अब बारी थी एक समीक्षक के रूप में अपने झंडे गाड़ने की। राहुल बारपुते जैसे कला मनीषी की कसौटी पर खरे उतरते हुए अशोक वक्त ने आजीवन नई दुनिया के लिए कला समीक्षा लिखी। जब नई दुनिया ने समीक्षाएं प्रकाशित करना बंद कर दी तब भी एक मात्र अशोक वक्त ही थे जिनकी समीक्षाएं समीक्षाएं नई दुनिया के अन अल्टर पेज पर निरंतर प्रकाशित होती रहती थी और पूरे प्रदेश के पाठकों तक पहुंचती थी। उस दौर के तमाम कालजयी कवियों साहित्यकारों जैसे प्रभाकर माचवे , नागार्जुन, अज्ञेय, मुक्तिबोध, जगदीश चतुर्वेदी, डॉक्टर शिवमंगल सिंह सुमन आदि के साथ उनका निरंतर संवाद जारी रहता था।
कालिदास समारोह की स्मारिका का किया संपादन
जब अखिल भारतीय कालिदास समारोह की स्मारिका के संपादन का अवसर आया तब अशोक वक्त ने अपने परिश्रम से समारोह की अनेक यादगार स्मारिकाएं संपादित की जिनमें रजत जयंती स्मारिका अनेक ग्रंथ आज भी कालिदास समाज अकादमी के अभिलेखागार में सुरक्षित है ।कालिदास समारोह का संचालन हो, आकाशवाणी से नियमित कालिदास समारोह की कमेंट्री करना, हो दूरदर्शन से महाकाल की शाही सवारी का प्रसारण हो उज्जैन की एकमात्र परिष्कृत और सनी हुई आवाज के रूप में अशोक वक्त उज्जैन से लेकर दिल्ली तक अपने होने का एहसास कराते थे । जब विक्रम विश्वविद्यालय के विक्रम स्मृति ग्रंथ को पुनः सामने लाने का अवसर आया तब अशोक वक्त की सेवाएं ली गई। उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय के प्रौढ़ सतत शिक्षा विभाग के लिए नव साक्षरों हेतु अपना अखबार शीर्षक से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक समाचार पत्र का डॉ प्रभात कुमार भट्टाचार्य के साथ मिलकर कई वर्षों तक संपादन किया। वे कालिदास अकादमी के वृतांत के भी संपादक रहे। पिछले 50 वर्षों में उज्जैन की साहित्यिक सांस्कृतिक प्रत्येक गतिविधि में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे।
पहचान के मोहताज नहीं
ठीक ही कहा पूर्व कुलपति डॉ राम राजेश मिश्रा ने चक्रतीर्थ पर कि अशोक वक्त कभी अपनी पहचान के मोहताज नहीं रहे। वह हर जगह मौजूद होकर भी नहीं रहते थे ।वह भरी सभा में अकेले सबसे अंतिम पंक्ति में कहीं विराजित होते थे ।क्योंकि उन्हें प्रचार -प्रसार, झांकी बाजी, फोटो खिंचवाना मंच पर छा जाना इस सब का कोई शौक नहीं था।वे अपने नाम के अनुरूप अशोक थे। वह तो इस उज्जैन में एक ऐसे साहित्यिक समाज को बनाना चाहते थे जहां परिष्कृत युवाओं की फौज चारों तरफ संस्कार की सुरभि बिखेरती हुई दिखाई दे रही हो। इसके लिए उन्होंने अपने आरंभिक दिनों में एक रंग आंदोलन भी चलाया। अशोक टॉकीज के पीछे रामनिवास लॉज में टॉप फ्लोर पर उनका एक छोटा सा कमरा था जहां से वे अपनी साहित्यिक गतिविधियां संचालित करते थे। तमाम युवा वहां उनके नेतृत्व में जुटते थे और अशोक वक्त उन सभी की प्रतिभाओं को निखारने उनके व्यक्तित्व को संवारने का दायित्व पूरी लगन और संजीदगी जी से किया करते थे ।जो जिस योग्य होता था उसको उसके अनुरूप मार्गदर्शन देने में वह कभी पीछे नहीं रहते थे । वह अत्यंत स्पष्टवादी व्यक्ति थे साफ बोलने और सुखी रहने में उनका भरोसा था ।झूठी लल्लो - चप्पो वह कभी नहीं करते थे।
कालिदास स्मरण
उनके अभिनव नवाचारों की बात करें तो 80 के दशक में उन्होंने कविता का रंग आंदोलन खड़ा किया। जिसमें रंग कर्म के जरिए वे कविताओं की प्रस्तुति लेकर जनता के बीच पहुंचाते थे तो आगे चलकर उन्होंने तरुणाई में महाकवि कालिदास के प्रति अलख जगाने के लिए कालिदास स्मरण का आयोजन किया। इसके अंतर्गत वे नगर के विद्यालयों में अपनी टीम के साथ पहुंचते थे और स्कूल विद्यार्थियों के बीच विद्यार्थियों को कालिदास स्मरण करवाते हुए अत्यंत सरल भाषा में आज की पीढ़ी को महाकवि कालिदास के साहित्य से जोड़ने की कोशिश किया करते थे सन 1970 80 के दशक में उन्होंने शुरुआत 1979,1980 और 81 के नाम से कला संस्कृति का अलख जगाने की एक पहल शुरू की। सालाना जलसा प्रतिवर्ष साल के आरंभ में विभिन्न ललित कलाओं को समर्पित नगर स्तर का आयोजन होता था । कुल मिलाकर संस्कृति साहित्य कला और अपने परिवेश से जुनून की हद तक जुड़ने की ऐसी प्रतिबद्धता मैंनै आज के पहले कहीं और नहीं देखी।
सफेद दाढ़ी के रूप में अशोक वक्त के आभामंडल पर जो एक विराट छाया दिखाई देती थी यह दिखावे का आवरण नहीं अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रता और संस्कृति के संरक्षण में बाधक तत्वों के प्रति विरक्ति भाव था जो संकल्प के राही को अपने लक्ष्य से भटकने से रोकना था। उनसे जुड़ी अनेक स्मृतियां है लेकिन लेखन की अपने मर्यादा है अतः उनके पांच तत्व में विलीन होने के अवसर पर फिलहाल इतना ही। उनकी स्मृति को प्रणाम ओम। शांति सादर नमन
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