जन-मन के लिए तो बस राम आ रहे हैं...!
अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार
सार
भारतीय संस्कृति में राम कई रूपों और प्रतीकों में मौजूद हैं। वो मूर्त भी हैं, अमूर्त भी। वो भाव भी हैं और अभाव भी। वो संस्कार भी हैं और विचार भी। वो आदर्श भी हैं और प्रादर्श भी। राम कथा भी हैं और व्यथा भी। राम युक्ति भी हैं और मुक्ति भी।
विस्तार
वोट बैंक पकाने, बनाने और बचाने के बीच सबसे अहम सवाल यह है कि राम मंदिर में राम लला की पुनः: प्राण प्रतिष्ठा को लेकर जन-मन क्या सोच रहा है, क्या देख रहा है, क्या सुन रहा है, क्या गुन रहा है, क्या गा रहा है, क्या पा रहा है, क्या मान रहा है, क्या जान रहा है? क्या वह राम लला को ऐतिहासिकता और पौराणिकता के द्वंद्व में देख रहा है, क्या वह राम मंदिर को वास्तु शास्त्र और इंजीनियरिंग के मापदंडों तौल रहा है या फिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह को कर्मकांड की परिपूर्णता अथवा अपूर्णता के कर्कश विवादों में तलाश रहा है?
क्या वह इसे धर्माधीशों के अहम और तार्किक गतकेबाजी में तलाश रहा है या फिर राजनीतिक दलों के युद्धकांड को ही राम कथा की विडंबना के रूप में देख रहा है? क्या रामलला की प्राण प्रतिष्ठा भर से आम लोगों के सारे दुख दूर हो जाएंगे? और यह भी कि क्या ऐहिक सुख दुखों का रामबाण इलाज आध्यात्मिक ट्रीटमेंट ही है?
अयोध्या में जो हो रहा है, वह एक राजनीतिक दल और एक हिंदू संगठन की महत्वाकांक्षा और संघर्ष का नया राजनीतिक बूस्टर है या फिर दुनिया भर के करोड़ों हिंदुओं के मन की महत आकांक्षा है कि वो राम कथा जो चाहे पौराणिक ही क्यों न हो, असीम आस्था के कैनवास पर एक अद्वितीय अनुभव और चिरकालिक हकीकत में बदले।
दसियों आशंकाओं, अड़ंगों, विघ्न प्रक्षेपों और कोपों के बीच इतना तय है कि सदियों बाद कुछ ऐसा मंगलकारी और अनुपम अनुभव देश को हो रहा है, जो धर्मप्राण जनता के रोम रोम को अभिभूत किए दे रहा है। राजनीति इसका बूस्टर हो सकती है, लेकिन उसका असली इंजन तो वो भावुकता है, जिसके आगे हर किंतु-परंतु बेमानी सा है। ऐसा ही एक क्षण सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के समय भी आया था, लेकिन वह दिल और दिमाग के अंतर्द्वंद्व में उतना प्रकाशित नहीं हो सका, जितना कि होना चाहिए था।
आज की शब्दावली में कहें तो वह ‘इवेंट’ नहीं बन पाया था। अब सत्ता शास्त्र, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र और नीतिशास्त्र कुछ भी कहें, दावे करें, लेकिन जो होता दिख रहा है, वह करोड़ों जनो के मन की आकांक्षा और सपनो का सजीव प्रतिफलन है। इसे इतिहास कभी खारिज नहीं कर सकेगा।अयोध्या में बहुप्रतीक्षित रामलला की पुनः प्राणप्रतिष्ठा से किसे कितना राजनीतिक लाभ होता है, किसे राजनीतिक मूर्छा मिलती है, यह बात एक आम राम भक्त की निगाह में गौण है। कोई अगर राजनीतिक लाभ ले भी लेगा तो वह कुछ समय के लिए होगा। अंत तो भगवान राम का भी हुआ था, क्योंकि वो मनुष्य रूप थे और हर मनुष्य का, जो खुद को खुदा ही क्यों न समझ ले, अंत निश्चित है। शरीर रूपी राम का भले अंत हुआ हो, लेकिन रामचरित के रूप में वो सदा विद्यमान हैं और रहेंगे।
रामराज की स्थापना हमेशा एक परिकल्पना-सी लगे, लेकिन कायम रहेगी। वस्तुत: रामराज एक अति आदर्श स्थिति है, जिसे कुशा की तरह हाथ में लेकर राजनीतिक दल उसे जमीन पर उतारने का वचन देते और दंभ पालते रहेंगे। इतिहास क्षण- क्षण आगे सरकेगा, लेकिन राम की लौकिक लीलाएं मनुष्यत्व और देवत्व की लक्ष्मण रेखा को मिटाती रहेंगी। शायद इसीलिए राम मंदिर और उसमें भगवान का राम का प्रतिष्ठापन तो काल की सीमा से परे है।
कोई इसे भले ही एक प्रायोजित महाविराट उत्सव के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश माने, लेकिन अयोध्या में राम के रूप में सनातन हिंदू धर्म की पुन:प्रतिष्ठा हो यह करोड़ों हिंदुओं के मन की सुप्त आकांक्षा है, इसमें दो राय नहीं। यदि कोई इसे खारिज करे, कम आंके तो यह उसका दृष्टि दोष है। जबकि बहुतों की नजर में यह राम रथ पर सवार होकर इतिहास के बोझ से मुक्त होने का पावन क्षण है।
एक तरफ मंदिर बनाने, उसके निर्माण के श्रेय का मोर पंख अपने मुकुट में खोंसने तो दूसरी तरफ इसे खारिज कर अपना राजनीतिक पूंजी निवेश बचाने के मकसद से जो घट रहा है, जो घटित कराया गया है और जो आगे घटित होना है और उसे दीर्घकालिक राजनीतिक प्रसाद में बदलने की जो मैराथन दौड़ चल रही है, वह भी क्षणिक ही है। याद रह जाने वाली बात केवल एक भव्य मंदिर और उसमें राम लला की प्राण प्रतिष्ठा है।
यह पुनीत कार्य कौन करता है, कैसे करता है, किन धर्माचार्यों और मठाधीशों के सान्निध्य में होता है, किनकी आपत्तियों के बावजूद होता है, किस प्रविधि एवं विधि विधान से होता है, किन की मौजूदगी में होता है, कौन रूठता है, कौन गदगद होता है, किसकी जेब भरती है, कौन फकीर बनता है, कौन आता है, कौन जाता है, किसकी मंगल कामना से कौन- सा राजनीतिक मंत्र सिद्ध होता है या नहीं होता, मंदिर की पूर्णता- अपूर्णता का भावनात्मक पैमाना क्या है?
श्रद्धा तथा आस्था की लहरों की ऊंचाई क्या है, गहराई क्या है, यह तमाम बातें इस वक्त बेमानी सी हैं, क्योंकि आस्था की उड़ान में सवारी के लिए किसी तरह का बोर्डिंग पास नहीं लगता। यह भी हो सकता है कि जो दिमाग के कंप्यूटर से दिल की स्कैनिंग करें वो पीछे ही छूट जाएं। भावी इतिहास कुछ सवाल जरूर पूछेगा, लेकिन फिलहाल उसका लोड लेने के लिए कोई तैयार नहीं है।
भारतीय संस्कृति में राम कई रूपों और प्रतीकों में मौजूद हैं। वो मूर्त भी हैं, अमूर्त भी। वो भाव भी हैं और अभाव भी। वो संस्कार भी हैं और विचार भी। वो आदर्श भी हैं और प्रादर्श भी। राम कथा भी हैं और व्यथा भी। राम युक्ति भी हैं और मुक्ति भी। वो लोकाधिराज भी हैं और राजाधिराज भी। संक्षेप में कहें तो अपने चरित्र और स्वभाव के कारण ही राम तर्कातीत भी हैं। प्रश्न राम पर भी उठाए गए हैं और राम भक्तों पर भी। लेकिन राम लोकमन और लोकनीति के अवगाहक हैं। उनके लिए नैतिकता और जनापेक्षा ही सर्वोपरि है।
यही राम का संविधान और वैचारिक परिधान है। जो दिख रहा है, जो अनुभूत हो रहा है, वह सचमुच अद्भुत और अकल्पनीय है। कम से उस पीढ़ी के लिए जो स्वतंत्रता के बाद जन्मी है, उस पीढ़ी के लिए भी जो तांत्रिक ज्ञान और एकाकीपन को ही जीवन समझ बैठी है। देश को सदियों की गुलामी के बाद मिली आजादी के समय भी काफी कुछ अघटित भी घटा था, लेकिन आस्था के विश्व में स्थायी स्मृति अगर कुछ बनी तो वह भारत माता के बेड़ियों से मुक्त होने की थी।
यह सवाल तो आने वाले समय में भी इस देश के जनमानस को मथता रहेगा कि यह प्राचीन देश गुलाम क्यों हुआ, क्यों हमारा सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक पतन हुआ, लेकिन यह भी सच है कि आस्था और उमंग की शहनाइयों के सुर कर्कश नगाड़ों को व्याप लेते हैं। याद रहते हैं मंगल स्वर और मंगलाष्टक। मनुष्य मूलत: इन्हीं मंगल स्वरों में जीना चाहता है। उसे ही ओढ़ना और बिछाना चाहता है। यही आकांक्षा जीवन जीने को प्रेरित करती है। यही जीवन का परम सत्य है। अयोध्या में जो रहा है, उसे कोई चाहे तो कम आंक सकता है। उसका भगवान राम भी कुछ नहीं कर सकते।
करोड़ों हिंदुओं की निगाह में अयोध्या ही ‘राम राज’ की राजधानी है। राजनीतिक दल उसे हस्तिनापुर में बदलना भी चाहें तो नहीं बदल सकते। क्योंकि यह लोक आस्था का, अनंत और अप्रश्नांिकत श्रद्धा का मामला है। यह अंधश्रद्धा नहीं है। कथित काल्पनिक ( जैसे कि कई लोगों का मानना है) को अकाल्पनिक सिद्ध करने का अट्टहास भी नहीं है। यह तर्क और प्रमाणों को खारिज करने का दुराग्रह भी नहीं है। अलबत्ता यह राम और उनके मूल्यों, आदर्शों और जन मन में बसी रामराज की परिकल्पना को साकार होते देखने का महास्वप्न जरूर है।
ऐसे में रामलला के लिए लोग क्या- क्या नहीं कर रहे? वंदना के करोड़ों सुरों में हर कोई अपना सुर मिलाने को बेताब है। रामलला का गृह आगमन हर रामभक्त को बेकल किए है। मानो उसके अपने घर का उत्सव है। व्याकुलता यही कि इस महोत्सव में वो अपना योगदान कैसे दे? अपने दुखों, पीड़ाओं को क्षणभर भुलाकर राम भक्ति की गंगा में कैसे डुबकी लगाए? प्रश्न पूछा जा सकता है कि जब भगवान स्वयं दाता है तो मनुष्य रूप में हमारी उन्हें देने की क्या हैसियत है? शायद कुछ भी नहीं।
फिर भी मन है कि मानता नहीं। वह यह भी नहीं जानता कि भगवान तक यह तुच्छ भेंट पहुंचेगी भी या नहीं, भगवान उसे स्वीकारेंगे भी या नहीं, लेकिन मन के संतोष के लिए इस भावधारा में बहे जा रहा है। यह भाव धारा पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक हिलोरें ले रही है। क्योंकि अवध में राम आ रहे हैं। बस आम लोगों के राम आ रहे हैं...।
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