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भारत : सब पंथों का देश


ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार

सब पर फैली धूप एक
सबके पंथ अनेक
भारत! सब पंथों का देश

हम भारत के लोग भलीभांति जानते हैं कि यहां बसने वाले हिन्दू ,मुसलमान, ईसाइयों के साथ रहने वाले और भी कई लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होकर सदियों से जी रहे हैं अन्यथा हम कबके मिट गये होते। अगर फिर भी लोकतंत्र का मन अशान्त है तो हमें मिलकर उसका कारण जानना चाहिए। अविवेकी मीडिया कल्पित अशांति का ढोल पीटकर हमें एक-दूसरे के प्रति भ्रमित करने पर उतारू है। पर हम तो आज भी मिलकर ईद मना रहे हैं, ईसा को याद कर रहे हैं और रंगों से फाग खेलकर एक-दूसरे के रंग में रंगे हुए हैं। 

हम भारत के लोग जानते हैं कि भारत ऋत की प्रज्ञा का देश है। प्रत्येक संवत्सर में बीतते ऋतुकाल इस देश में बसे सबके जीवन को सदियों से पालते-पोसते आ रहे हैं। जो भी यहाॅं आया उसे इस देश की प्रकृति की गोद में जगह मिली। ये ऋतुकाल बिना किसी भेदभाव के भारत में बसे बहुविश्वासी जीवन के अन्नमय, मनोमय, प्राणमय कोषों को तृप्त करते रहते हैं। यह ऋतुकालों में बार-बार होता जीवन-यज्ञ ही राष्ट्र को उस प्राणिक एकता में बांधे हुए है जिसमें सबके जीवन का कोई सनातन उत्प्रेरक अपना डेरा डाले हुए है। प्रकृति ही उसका निवास स्थान है जिसमें बहुरंगे जीवन के बीज बोये जाते हैं। इन बीजों से अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप ही सबका जीवन उत्पन्न होता रहता है। यही सनातन धर्म है। जीवन की इस सनातन खेती को मिलकर बचाये रखना ही हम भारत के लोगों का नागरिक धर्म भी है। 

हम भारत के लोगों को पूर्वज आज भी याद दिला रहे हैं कि समग्र जीवन-यज्ञ को उन्नत किये रहने की मिली-जुली  जिम्मेदारी देश के राज्यकर्ताओं और सभी नागरिकों की है। उन साधुजनों की भी है जो तीर्थों में डेरा डाले हुए हैं। वर्षाचक्र ही कामधेनु है जो इस देश में बसे सभी जातियों और कौमों के मानव समुदायों और सभी प्राणियों को बिना किसी भेदभाव के मनवांछित फल देती रहती है। देवता यह कहां जानते हैं कि भारत में किस कौम की सरकार चल रही है। राजा तो प्रतीकमात्र ही माने गये हैं और राष्ट्र के समूचे अस्तित्व के प्रति उत्तरदायी भी हैं।

हम भारत के लोगों को स्मरण होगा कि बीते समय में राज्य और प्रजा के लिए नीति सुनिश्चित करने वाले पूर्वजों ने हमें यही निर्देश किया है कि वर्षाचक्र के मार्ग को स्वच्छ रखने के लिए वनों, पर्वतों, नदी-सरोवरों और ओषधियों की सदा रक्षा करना चाहिए। पर देश की वनराजि और जलवायु अब अरक्षित और असहाय जान पड़ती है। शान्त पर्वतों के शिखर दरक रहे हैं पर इनके अस्तित्व के पक्ष में समूचे भारतीय समाज की कोई व्यावहारिक भूमिका नहीं दीखती। क्यों यह संभव नहीं हो पा रहा कि राम,रहीम और ईसा की वैश्विक एकता का स्वप्न देखने वाले हम लोग क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर के पक्ष में सबको साथ लेकर कोई आंदोलन छेड़ने में असमर्थ दिखायी पड़ते हैं? लोग बदलें चाहे न बदलें, प्रकृति किसी राजनीति और कौम के पक्ष में अपना धर्म नहीं बदल सकती। प्रकृति से प्रेम के बिना समभाव की संस्कृति नहीं बचायी जा सकती।

हम भारत के लोग सदियों से जानते हैं कि तीर्थों में मंदिरों के स्थापत्यों में प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा करके उन्हें श्रद्धा और आत्मज्ञान के केन्द्रों के रूप में गढ़ा जाता रहा है। देश में जितने व्यक्ति हैं, उनके उतने ही स्वभाव हैं। कहना चाहिए कि पृथ्वी पर मनुष्य सहित जितने प्राणी हैं, उतने धर्म हैं। वे प्रतिदिन अपने स्वभाव के अनुरूप अपना अच्छा-बुरा सोचकर धर्म प्रवर्तन करते ही रहते हैं। इसी कारण मंदिरों को ऐसे स्वास्थ्य केन्द्रों के रूप में ही तो गढ़ा गया कि उनके मार्गदर्शन से देश के जीवन में आपसी असंतोष को अपने संयम से त्यागकर सबके दुख को परखने वाली आध्यात्मिक समता विकसित हो सके। मस्जिदों के विशाल स्थापत्य और गिरिजाघर भी इसी समता को पाने के लिए गढ़े गये होंगे। इस दिशा में धर्मपीठों और शरीयतों की कोई सजग भूमिका दिखायी नहीं पड़ती। 

हम भारत के लोगों से यह तथ्य छिपा नहीं है कि पूरे संसार में आर्थिक और सामाजिक समता लाने में राजनीति अभी भी सफल नहीं हो पा रही है और केवल जात-पांत-संप्रदाय, मज़हब के भेदभाव के आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधि चुनते रहने से प्रजातंत्र कमजोर होता जा रहा है। जीवन बेबस दिखाई देता है। जैसे स्वराज्य का कोई अर्थ ही नहीं रहा। इसी कारण करोड़ों लोग तीर्थों में जाकर प्रतिमाओं को अपना दुख सुनाते हैं। कल्पित ख़ुदा और भगवान के आगे अपना रोना रोते हैं। आर्त्तजनों को यह सहज विश्वास होता है कि प्रतिमाएं उनकी बात सुनती हैं जबकि उनके ही चुने हुए प्रतिनिधियों को उनकी आवाज अक्सर सुनायी नहीं देती। 

हम भारत के लोग सदियों से यह गीत गाते रहे हैं कि भारत माता ग्रामवासिनी है। धर्म-चिन्तन समृद्ध अरण्यों में और राजनीति समृद्ध जनपदों में फलती-फूलती है। विश्व बाज़ार के जाल में फंसकर दोनों का क्षय हो रहा है। अब शहरी हो गये तीर्थों में धर्म संसद होने लगी है क्योंकि अरण्य और वनग्रामों से विस्थापित धर्म केंद्रों को अब शहरों की व्यापारिक राजनीति ने घेर लिया है। वनवासी भी विस्थापित किये जा रहे हैं। पतित राजनीति के आगे राम, रहीम और ईसा अकेले पड़ गये हैं।

अनेक अज्ञातकुलशील साधुवेशधारियों की वाणी विकृत हो रही है और वे राजनीति को धर्म का दुर्विनियोजन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। बाजारू विज्ञापन देश के मानस को कामुकता और लोभ में फांस रहे हैं। हमने तो हर्षवर्धन के काल में सातवीं सदी तक काशी में होने वाली धर्म सभा का नाम ज़रूर सुना है। व्यथित होकर कहने का मन होता है कि हम भारत के लोग धर्म-मज़हब और रिलीजन के सूक्ष्म भेदों को परखकर लोकतंत्र में इन्सानी बिरादरी के अहसास से भरी संवैधानिक नागरिकता की रचना क्यों नहीं कर पा रहे हैं?

हम भारत के लोगों से यह तथ्य भी नहीं छिपा है कि आधुनिक विश्व में बहुविश्वासी आबादियां साथ रहकर जीवनयापन करती हैं। हम उन्हें किसी देश से निकाल बाहर नहीं कर सकते। उन्हें अपमानित करना भी हमारी संस्कृति के विपरीत माना जायेगा। इतिहास की उलझनों के हल संवाद से ही संभव होते हैं। भारत की सनातन दृष्टि तो हजारों साल से इंसानी बिरादरी( 'सब साथ रहें' का वैदिक आह्वान) के पक्ष को मजबूत रखने की साधना ही विकसित करती रही है। पर आज यह अनुभव मन को व्यथित करता है कि भारत अपना प्रण ही भूलता जा रहा है और उसे तत्काल याद दिलाने की ज़रूरत है।

हम भारत के लोग श्रीकृष्ण को नहीं भूले हैं  जिन्होंने भारत को भूले हुए योग की याद दिलायी और ज्ञान-कर्म-भक्ति का वह महान उपदेश किया जिसे अपनाकर और देह के धर्मों से लिपटे राग-द्वेष को त्यागकर सबके साथ चला जा सकता है। परस्पर आश्रय ही वास्तविक शरणागति है। सनातन धर्म इसी आश्रय पर टिका हुआ है। इस भूले हुए योग को याद करने और उसे अपनाने का समय फिर आया है। हमें उस प्राचीन वचन का स्मरण करना चाहिए कि--- सत्य के लिए किसी से न डरना --- लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, गुरु से भी नहीं।

हम भारत के लोगों ने सनातन प्रकृति से सबके जीवन को सौन्दर्य प्रदान करने का वरदान पाया है  फिर भी भारत माता का मुख मलिन लग रहा है। इस संकट के निवारण का उपाय तो करना ही होगा। हमें एक-दूसरे के अतीत को कोसने की बजाय अपने वर्तमान को शान्त,सहज और सुंदर बनाने के लिए कौमपरस्त गोलबंदिया छोड़ना होंगी। यह समझना ही होगा कि योग और भोग, अहिंसा और हिंसा, राग और द्वेष, राज्य और बहुविश्वासी जनता के बीच संयम की रेखा कहां खिंची है। यह समय गहन आत्मसमीक्षा का है, उसे एक-दूसरे के निन्दित अतीत को कोसने में बिता देने से भारत का भला कैसे हो सकेगा? सबके साथ रहते हुए अनुभव में तो यही आता है---

सबके सुर में तान अनेक
सबकी लय में गान अनेक
सबकी सांसों में प्रान अनेक
सबके पंथ अनेक
भारत!सब पंथों का देश

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