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सोशल मीडिया में जजों की ट्रोलिंग और कुछ नैतिक सवाल


अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार

बात अब मीडिया ट्रायल और अदालती फैसलों की आलोचना से कहीं आगे फैसले देने वाले जजों की ट्रोलिंग तक आन पहुंची है। यही कारण है कि हाल में भोपाल में आयोजित दसवें मप्र न्यायाधीश सम्मेलन में जिला न्यायालयों के जजों ने यह मुद्दा जोर शोर से उठाया और वरिष्ठ जजों से मार्गदर्शन मांगा कि न्यायाधीशों की ट्रोलिंग पर उन्हें क्या करना चाहिए? सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों की ट्रोलिंग भी अदालती अवमानना हो सकती है या नहीं?

सोशल मीडिया में किसी खास वैचारिक एजेंडे अथवा पूर्वाग्रह दुराग्रह के चलते गढ़े जाने वाले नरेटिव, न्यूसेंस और जजों की व्यक्तिगत आलोचना को किस रूप में लिया जाना चाहिए? क्योंकि भारत में सोशल मीडिया की नकेल कसने के लिए बहुत कड़े कानून नहीं है। ऐसे कानून बन भी जाएं तो फिर व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  के मौलिक अधिकार का क्या होगा? वैसे भी कई लोगों का मानना है कि सोशल मीडिया दरअसल जनता की आवाज है। लाख आलोचना के बावजूद इसे दबाया नहीं जा सकता। सम्मेलन में शामिल देश के सुप्रीम कोर्ट के ज्यादातर न्यायाधीशों की राय यही थी कि जजों की सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग के मामलो को फिलहाल इग्नोर (अनदेखा) करना ही बेहतर है। भाव यही कि ऐसे तत्वों के मुंह लगने से कोई फायदा नहीं है। हालांकि यह उत्तर भी कई सवालों से भरा है। यूं न्यायपालिका के सामने नई चुनौती आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( एआई) की भी है, लेकिन उसका मामला थोड़ा अलग है। 

न्यायाधीशों पर सोशल मीडिया के हमलों का मामला ज्यादा संवेदनशील इसलिए है क्योंकि अदालती फैसले समाज में न्याय की रक्षा का काम करते हैं। इसी से समाज को संचालित करने का दिशानिर्देश और सुसूत्रता भी मिलती है। अदालती फैसले हमेशा निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रतीत हों, ऐसा जरूरी नहीं है, लेकिन उन फैसलों की आलोचना तार्किक और कानूनी आधार पर ही की जा सकती है। लेकिन जब ऐसे फैसलों के पीछे न्यायाधीश के विवेक, न्यायिकता अथवा पूर्वाग्रह को लेकर सवाल उठाए जाने लगें, उनकी भद्दे ढंग से ट्रोलिंग की जाए तो तब न्यायाधीशों का विचलित होना स्वाभाविक है। 

सम्मेलन में शामिल कई जजों ने कहा कि वर्तमान में लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफार्म जैसे कि वाट्सएप ग्रुप और फेसबुक पर हमारे विरुद्ध अमर्यादित बातें होती हैं। जिन्हें फैसला पसंद नहीं आता, वे भ्रम फैलाते हैं। भद्दे कमेंट करते हैं। क्या ऐसा करने वालों पर हम (न्यायाधीश) कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट (अदालत की अवमानना) की कार्रवाई कर सकते हैं?

इन सवालो के जवाब में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अभय एस ओक ने कहा कि न्यायाधीश सोशल मीडिया की ट्रोलिंग से न तो डरें और न हीं किसी एजेंडे के तहत गढ़े जाने वाले नैरेटिव से प्रभावित हों। इसे सिर्फ इग्नोर करें, क्योंकि सोशल मीडिया की कोई अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) नहीं है। 
जस्टिस ओक ने बताया कि मुंबई में तो जजों को प्रभावित और परेशान करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल इतना बढ़ गया है कि कई जजों के खिलाफ ही पिटीशन दायर हो जाती है।

इस सम्मेलन में यह बात साफ झलकी कि आज न्यायाधीश समुदाय अगर किसी बात से सर्वाधिक चितिंत है तो वो है, सोशल मीडिया। ऐसा मीडिया जिसके हजारों मुंह, आंखें और कान हैं लेकिन कहीं कोई रिमोट कंट्रोल नहीं है। और शायद मस्तिष्क भी नहीं है। इस मीडिया ने अब मानव जीवन में इतनी भीतर तक घुसपैठ कर ली है कि किसी का इससे बचना लगभग असंभव है। यदि कोई बचा हुआ भी है तो उस पर आदिम सभ्यता का होने का टैग लग सकता है। 

सोशल मीडिया में जजों की ट्रोलिंग और कुछ नैतिक सवाल -
यूं सोशल मीडिया पर जजों को लेकर अमर्यादित प्रतिक्रियाओं को लेकर पहले भी चिंता जाहिर की जाती रही है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने अपना पद ग्रहण करते हुए कहा था कि फिलहाल सुप्रीम कोर्ट सोशल मीडिया में अनियंत्रित आलोचना पर काबू करने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता है।

उन्होंने कहा, 'हम इस तरह की मीडिया के लिए अभी कुछ भी नहीं कर सकते हैं। हम नहीं जानते हैं कि हमें क्या कदम उठाना है। वे न केवल लांछन लगा रहे हैं बल्कि लोगों और न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा को प्रभावित कर रहे हैं। ऊपर से यह शिकायत भी है कि बोलने की स्वतंत्रता नहीं है। उन्होंने कहा कि दरसअल फैसले की नहीं न्यायाधीश की आलोचना करना मानहानि है।

पिछले साल व्हाट्सएप से जुड़े एक मामले में दलीलें सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश दीपक गुप्ता ने टिप्पणी की थी कि कैसे निर्दोष लोगों को ऑनलाइन ट्रोल किया जा रहा था और कैसे गुमनाम संस्थाओं ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल प्रतिष्ठा को कीचड़ में धकेलने के लिए किया था। कुछ महीने पहले, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की एक अलग पीठ ने बताया था कि कैसे न्यायाधीशों को भी सोशल मीडिया का खामियाजा भुगतना पड़ता है।

इसी तरह एक मामले में फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं पर एक ऑनलाइन व्याख्यान के दौरान, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने न्यायपालिका के खिलाफ सोशल मीडिया द्वारा फैलाई जा रही असहिष्णुता और  खासकर न्यायपालिका के खिलाफ लगाए जा रहे आरोपों की प्रवृत्ति के खिलाफ अपनी बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने कहा था कि अब न्यायाधीश "अपमानजनक सोशल मीडिया पोस्टिंग" का निशाना बन रहे हैं। 

एक तर्क दिया जा सकता है कि चूंकि भारतीय न्यायपालिका आम तौर पर पारंपरिक मीडिया में ज्यादा आलोचना की आदी नहीं रही है, इसलिए सोशल मीडिया में इस तरह अतिवादी और अमर्यादित प्रतिक्रियाएं उसके लिए परेशानी का बायस बन रही हैं। यानी सोशल मीडिया के रूप में न्यायपालिका का मीडिया से सामना एक नए किस्म का और एकतरफा टकराव है। इसमें एक हद तक सच्चाई हो सकती है।

अब तक मीडिया और खासकर प्रिंट मीडिया अपने संवैधानिक और पेशेवर दायित्वों के मद्देनजर न्यायिक फैसलों की मर्यादित और तार्किक आलोचना करने तक सीमित रहा है। अमूमन चौथा स्तम्भ माने जानी वीली खबर पालिका (मीडिया) का लोकतंत्र के तीसरे स्तम्भ न्यायपालिका के प्रति सम्मान का भाव ही रहा है। हालांकि इस सदी के शुरू में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के प्रसार ने न्यायिक फैसलों के पहले ही आरोपियों के मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। इससे भी आगे जाकर अब सोशल मीडिया उससे भी आगे जाकर सीधे न्यायाधीशों पर ही हमले करने लगा है, जोकि बेहद गंभीर और घातक है।

इससे न्याय व्यवस्था पर से ही लोगों का विश्वास उठने का खतरा है। क्योंकि अगर न्यायाधीश की नीयत, नरेटिव और वैचारिक रूझान के आधार पर फैसलों की आलोचना की जाएगी तो कोई भी न्यायाधीश अपने विवेक से निष्पक्ष फैसले कैसे दे पाएगा। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायाधीश भी अंतत: मनुष्य ही हैं।

व्यक्तिगत राग द्वेष वहां भी काम कर सकते हैं। मानवीय गलतियां उससे भी हो सकती है। लेकिन कोर्ट के फैसले भी अनंतिम हैं और उनकी समीक्षा और पुनर्विचार का प्रावधान हमारी न्यायिक व्यवस्था में है। उन रास्तों को अपनाने के बजाय  किसी जज को उसकी विचारधारा, धर्म, व्यक्तिगत आग्रह के आधार पर आलोचना और निंदा का निशाना बनाना परोक्ष रूप से समूची न्यायिक और प्रकारांतर लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उंगली उठाना भी है। 
अब सवाल यह है कि महासागर की तरह अथाह महसूस होने वाले सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने का कोई प्रभावी उपाय है या हो सकता है? क्या इसे कानून के जरिए प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है? क्या इसे पूरी तरह इग्नोर करना न्यायपीठ पर बैठे व्यक्ति के लिए संभव है?

दरअसल विश्व में सोशल मीडिया का पहला प्रतिनिधि तो रामायण काल के उस धोबी को माना जाना चाहिए, जिसने राजा राम द्वारा लंका में रावण की कैद से मुक्त सीता माता को पुन: पत्नी के रूप में स्वीकारने और उनकी  पवित्रता को लेकर सवाल उठा दिया था और प्रभु राम भी उस धोबी की आवाज को अनदेखा नहीं कर पाए थे। भगवान राम ने सीता का त्याग कर सही किया या नहीं, यह हमेशा बहस का मुद्दा रहा है, लेकिन यहां बात जनमानस में चल रहे द्वंद्व और विचारों की है।

अमूमन सामाजिकता से दूर रहने वाले न्यायाधीश भी क्या सोशल मीडिया से पूरी तरह अप्रभावित रह सकते हैं? यदि नहीं रह सकते तो उन्हें अपने कर्तव्य को सोशल मीडिया से अप्रभावित रह कर कैसे पूरा करना चाहिए, यह बहुत बड़ा और अब वैश्विक सवाल बन चुका है। हालांकि कई देशों में  सरकारों ने सोशल मीडिया पर अंकुश के लिए कुछ कानून बनाए हैं, लेकिन उसका असर महासागर में दो चार मछलियां पकड़ पाने जैसा ही है।

बतौर एक लोकतंत्र न्यायपालिका और न्यायाधीश की विवेकशीलता पर विश्वास कायम रखने तथा सोशल मीडिया के रूप में व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी बनाए रखने के बीच आदर्श संतुलन कैसे बनाएं रखें, यह देश और दुनिया के सामने भी बड़ी चुनौती है।

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