चुग्गा दाढ़ी वाले जीवन काका
कीर्ति राणा ,वरिष्ठ पत्रकार
दशकों पहले प्रभु दा ने ही परिचय कराया था ‘कीर्ति मामा ये जीवन काका हैं’। बस मेरे लिए भी वो जीवन काका हो गए। काफी पहले अरोड़ वंशीय धर्मशाला में अनिता दीदी के गुरु बैतूल वाले सांईदास बाबा (जिनका जबलपुर में आश्रम है) आए थे। तब प्रभुदा और उनके दोनों दोस्तों (तिकड़ी) के साथ मैं भी खूब देर साथ में रहा था। फिर इंदौर जब भी आते, किसी कार्यक्रम में मुलाकात होती भी तो कभी प्रभु दा साथ रहते या कभी प्रकाश कांत भैया।
देवास सिर्फ टेकरी वाली माताजी या बैंक नोट प्रेस की वजह से ही नहीं, साहित्य-संस्कृति की बात छिड़ने पर कुमार गंधर्व, नईम साब, तीन दोस्तों (तिकड़ी) प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर और प्रकाश कांत के कारण भी पहचाना जाता रहा है।प्रभु दा की जलरंग वाली पेंटिंग का ऐसा मोह जागा कि कोरोना उन्हें अपने साथ ही ले गया, उनका दूसरा दोस्त जीवन काका भी आज उनसे मिलने निकल गया।
स्वतंत्रता के बाद भारत का दौरा करने वाले पहले रूसी प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन (निधन 24 फरवरी ‘75) की बकरा (चुग्गा) दाढ़ी से प्रभावित होकर ही वामपंथी विचारधारा के अधिक नजदीक रहे जीवन काका ने वैसी ही दाढ़ी अपना ली थी।जीवन सिंह ठाकुर साहित्यकार-शिक्षाविद-इतिहासविद सब कुछ होने के साथ संवेदनशील इंसान तो थे ही।जो बकरा (चुग्गा) दाढ़ी उनकी पहचान रही, उस दाढ़ी ने मुझे पर भी ऐसा असर डाला कि अपन ने भी अपना ली।
प्रभु दा की एक खासियत यह भी रही कि पुत्र गुड्डू (पुनर्वसु) उनके मित्रों को जिस संबोधन से पुकारता वे भी ताउम्र जीवन काका, कीर्ति मामा बुलाते रहे। दादा बालकवि बैरागी हों, प्रभुदा हों या जीवन काका ये मिट्टी पकड़ साहित्यकार रहे, अपनी जड़े अपने गांव-शहर में रह कर ही मजबूत करते रहे, बाहर रहे भी तो यह मन बना कर रहे कि यहां टिकना नहीं है, वापस अपने घर-गांव जाना है।मुंबई-दिल्ली में बस जाते तो अपने काम से खुद का और शहर का नाम और ऊंचा कर सकते थे लेकिन जड़ों से जुड़े रहने की जिद ऐसी कि अपने शहर में रहते हुए भी खूब नाम कमाया और सम्मानों का तांता भी लगा रहा। शिक्षक पेशे को विविध रूपों में कैसे विस्तार दिया जा सकता है यह जीवन काका ने भी देवास में रहते हुए कर दिखाया। उन्हें मेरा प्रणाम