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अपना एमपी गज्ज़ब है.. ये कौन सी "कोटि" के मामा का घर है ?


अरुण दीक्षित,वरिष्ठ पत्रकार
                      शीर्षक पढ़कर चौंकिए मत !आप कह सकते हैं कि इसमें नया क्या है,सबके मामा के घर होते हैं। हां कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके अपने मामा नहीं  हैं।लेकिन फिर भी उनके मामा होते हैं। सगे न सही...धर्म के ही सही पर मामा तो होते ही हैं!फिर ऐसी कौन सी बात हो गई जो मैं मामा के घर पर लिख रहा हूं? चलिए आपकी जिज्ञासा शांत किए देता हूं।दरअसल भोपाल में हमारे मुहल्ले में अभी अभी एक नया घर आबाद हुआ है।उस घर में रहने आए हैं प्रदेश के "रिकॉर्डमेकर" पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान!भाग्य का खेल है कि शानदार जीत के बाद भी उनकी कुर्सी जाती रही।उनसे कुर्सी छीन मोदी ने मोहन को उस पर बैठा दिया।अब कुर्सी गई तो वह घर भी गया जो अब तक उनका ठिकाना था।भारी  साजो - सामान के साथ वे फिर उस बंगले में आ गए जिससे वे मुख्यमंत्री निवास में गए थे।हालांकि यह बंगला हमेशा उन्ही के पास रहा।भले ही शिवराज सिंह चौहान से मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन गई हो पर इस घर की तरक्की हो गई है।साल 2018 में कुछ महीने के लिए फिर से इस घर में रहे शिवराज ने पड़ोस के बंगले को जमींदोज कराके उसे भी अपने पुराने बंगले में मिला लिया है।सरकार ने अपने खजाने से इस काम पर कितने करोड़ खर्च किए,यह बताने को वह अब तक तैयार नहीं थी।आगे की राम जाने।
                 खैर.. तो बात "मामा के घर" की चल रही थी। पिछले सप्ताह जब शिवराज इस "नए - पुराने" बंगले में रहने आए तो इसकी रौनक लौट आई।सामने की सड़क पर गाड़ियों की भारी भीड़ अब रोजमर्रा की बात हो गई है।इसी वजह से आते जाते इस बंगले पर नजर चली जाती थी।दो तीन दिन पहले इस बंगले पर एक बोर्ड टंगा दिखा!उस पर लिखा था - मामा का घर! चलते चलते आपको एक बात और बता दूं!शिवराज जब सांसद बने थे तब से गरीब लड़कियों के सामूहिक विवाह कराते थे।मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने यह काम सरकारी खजाने से कराया।उन्होंने गरीब घरों में पैदा होने वाली बच्चियों के जन्म से लेकर उनकी पढ़ाई लिखाई और शादी तक की व्यवस्था सरकारी खजाने से कराई।इसी क्रम में वे प्रदेश की बेटियों के स्वयंभू मामा बन गए।वे खुद को मामा कहलाने में गर्व महसूस करते हैं,ऐसा उनका दावा है।पिछले साल विधानसभा चुनाव से पहले वे सरकारी खजाने की दम पर लाड़ले मामा से लाड़ले भाई भी बने।उन्होंने लाडली बहना योजना शुरू की।करीब सवा करोड़ से ज्यादा महिलाओं के खातों में हर महीने एक हजार रुपए डलवाए।साथ ही वायदा किया कि जीत गए तो हजार तीन हजार हो जाएंगे।वे भारी बहुमत से जीते भी।लेकिन जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी ले गए।हालांकि कांग्रेस रो रही है कि ईवीएम वजह से वह हारी!बहरहाल भारी जीत के बाद भी शिवराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी नही मिली।जब कुर्सी गई तो बंगला भी जाना ही था।वह भी चला गया।
                      वे फिर पुराने वाले बंगले में आ गए।इस बार उन्होंने इस बंगले पर अपने नाम के अलावा "मामा का घर" भी लिखाया।खुद इस बात की जानकारी प्रदेश की जनता को ट्वीटर के जरिए दी।
 उन्होंने प्रदेश के अपने भांजे भांजियों को बताया कि तुम्हारे "मामा का घर" हमेशा तुम्हारे लिए खुला रहेगा! इस नए बोर्ड को देख कर पहला सवाल जो मन में आया वह था - इससे पहले वाले घर पर यह बोर्ड क्यों नही लगवाया था? दूसरा सवाल यह कि इन मामा को किस श्रेणी में रखा जाए? इस पर बात करने से पहले एक और बात! मामा के घर का बोर्ड पढ़ने के बाद मैंने कई समकालीन मित्रों से पूछा - मामा के घर के बारे में आपकी क्या राय है?ज्यादातर ने कहा - हमने तो नाना का घर सुना है।ननिहाल सुनी है।नाना के घर बचपन में गए भी खूब हैं।नाना नानी तो अब नही हैं।मामा भी कम ही बचे हैं।लेकिन आज भी हम कहते ननिहाल ही हैं।एक मित्र ने तो ननिहाल का महत्व विस्तार से बताया।उन्होंने कहा कि हमारे इलाके में शादी ब्याह में ननिहाल की बड़ी भूमिका रहती थी।लड़के वाले सबसे पहले पूछते थे कि लड़की की ननिहाल कहां है।और लड़की वाले...वे रिश्ते की बात करने से पहले ही पता कर लेते थे कि लड़के की ननिहाल कहां है।मामा का नाम तो बाद में आता है।उसकी भूमिका भी शादी ब्याह में "भात" देने तक सिमट गई है।नाम नाना का ही चल रहा है।कहावत यह भी है कि बिना नाना नानी के ननिहाल कहां!और बिना मां बाप के मायका कैसा!मामा के घर का जिक्र भी नही आता।
                  एक ज्ञानी मित्र ने मेरे सवाल पर मुझसे ही सवाल कर लिया!उन्होंने मुझसे पूछा  - कौन से "कोटि" मामा के घर की बात आप कर रहे हो?क्योंकि हमारे देश में अब तक करीब आधा दर्जन मामा ऐसे हुए हैं जो अक्सर याद किए जाते हैं।पहले कंस! दूसरे शकुनि!तीसरे कृष्ण! मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उन्होंने इन तीनों "मामाओं" की व्याख्या भी कर डाली।उन्होंने कहा कंस मामा के बारे में तो दुनियां जानती है।उसने जबरन अपने घर में अपने भांजे भांजियों के जन्म की व्यवस्था की।फिर पैदा होते ही उन्हें मार दिया। दूसरे शकुनि..जिनकी महाभारत में अहम भूमिका थी।कहते हैं कि शकुनि ने अपने भांजों को गलत रास्तों पर चलने को प्रेरित किया। हर गलत काम में उनका साथ दिया।परिणामस्वरूप  महाभारत  हुआ और  सब कौरव नष्ट हो गए।अब भले ही कहानी यह सुनाई जाए कि वह अपनी बहन गांधारी की शादी नेत्रहीन धृतराष्ट्र से किए जाने से नाराज था।इसी वजह से उसने यह किया।लेकिन कौरवों का नाश तो उनके मामा ने करा दिया।तीसरे जगचर्चित मामा हैं श्रीकृष्ण!वे अवतार थे।आज भी पूजे जाते हैं।पहली बात तो वे भगवान होकर भी घर की लड़ाई नही बचा पाए ! दूसरी..उन्होंने भी अपने भांजे अभिमन्यु को जानबूझ कर मौत के मुंह में जाने दिया। सब कुछ जानते हुए भी उसे चक्रव्यूह में फंसने दिया।जिसके चलते अल्पायु में ही उसकी मौत हुई।इसके पीछे भी कई कहानियां बताई जाती हैं।एक कहानी चंद्रमा की भी है।लेकिन कुछ भी हो..अभिमन्यु मारा तो मामा के सामने ही गया।भगवान होते हुए भी उन्होंने नही बचाया।कृष्ण चाहते तो द्रोपदी के पांचों पुत्रों की भी जान बचा सकते थे। लेकिन उन्होंने नही बचाई।कहने को घटोत्कक्ष भी उनका भांजा ही था।उसे भी कृष्ण ने नही बचाया।
                  उसी काल खंड के एक मामा शल्य भी थे।उन्होंने भी अपने सगे भांजों के खिलाफ युद्ध किया था। आल्हा ऊदल के समय में भी एक मामा हुए।नाम था उनका माहिल!आज भी लोग उनके नाम पर लानत भेजते हैं।अब आप बताओ कि ये  किस "कोटि" के मामा का घर बना है?हमने मान लिया कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद उन्होंने लड़कियों के जन्म से लेकर शिक्षा दीक्षा,शादी ब्याह और बाद में जेब खर्च तक की व्यवस्था सरकारी खजाने से की।लेकिन आज वे जिन भांजे भांजियों के लिए अपने निवास को मामा का घर बना रहे हैं, वे उन्हें कुपोषण से नही बचा पाए।उनका आहार सरकारी व्यवस्था खा गई,मुखिया रहते भी वे रोक नही पाए।भांजे भांजी ठीक से पढ़ जाएं..इसके लिए स्कूलों में शिक्षक नही तैनात कर पाए।वे अकाल मौत न मरें,उन्हें गांव में ही उचित इलाज मिले, इसकी व्यवस्था भी नही कर पाए!और तो और सरकारी खजाने से दिए जाने वाले दहेज की चोरी भी उन्हीं के राज में हुई।वे कुछ नही कर पाए।या फिर उन्होंने कुछ  किया ही नहीं।दुराचार की शिकार हुई दुधमुही बच्चियों का हाल पूछने उनके घर तक नही पहुंचे।बलात्कारी को फांसी का कानून तो बनाया लेकिन एक भी बलात्कारी फांसी के फंदे तक नही पहुंचा।
                रोजगार की बात तो छोड़ो..जो भांजे भांजियां पढ़ लिख कर आगे आए,उनका हक व्यापम में लुट गया। बाकी काम नर्सिंग घोटाले ने कर दिया।लेकिन "मामा" ने सिर्फ बातों के अलावा कुछ नही किया!
 जो पढ़ लिख नही पाए उनकी भी मदद कौन हुई ? मामा खुद तो खेती से भरपूर कमाते रहे।लेकिन वो तरकीब उन्होंने भांजे भांजियों को नही सिखाई।वे हर साल फसल की बरबादी ,खाद बीज की कमी,बीमा का पैसा और कर्ज माफी में ही उलझे रहे! अब आप बताओ कि वे कौन सी "कोटि" के मामा माने जाएं? और अब बोर्ड लगा के वे क्या दे देंगे भांजे भांजियों को ?
  सोलह सत्रह साल अगर थोड़ा सा भी ध्यान असल में दिया होता तो आज घर के बाहर "मामा  का घर " लिखने की जरूरत नहीं पड़ती!ऐसा होता तो भांजे भांजियां ,मोदी तो क्या,भगवान के सामने भी अड़ जाते!मामा को "भूत" नही बनना पड़ता। और अगर सच में वे मामा हैं और उनके मन में भांजे भांजियों के लिए दर्द है,तो फिर राजधानी में उनके लिए एक ऐसा घर बनवाएं जिसमें रहकर वे आगे बढ़ने की तैयारी कर सकें ! पुलिस के पहरे वाले घर पर "मामा का घर" लिखवा देने भर से कुछ नही होने वाला।न तो मोदी कुर्सी वापस देंगे और न भांजे भांजियां साथ देने आगे आयेंगे!अब उन्हें समझाओ कि वे प्रायश्चित करें।
 यह कह कर मित्र ने अपना प्रवचन बंद किया!वे तो मौन हो गए!पर मैं सोच रहा हूं कि इन "मामा" को किस "कोटि" में रखा जाए?अचानक बचपन में स्कूल में पढ़ी कविता याद आ गई!
चंदा मामा दूर के 
पुए पकाएं बूर के
आप खाएं थाली में
मुन्ने को दें प्याली में!
 मुझे लगा कि सालों पहले लिखी गई ये लाइनें आज भी कितनी मौजूं हैं !

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