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आसमान से सीने में उतरती आग...


अरुण दीक्षित,वरिष्ठ पत्रकार

रात के ग्यारह बज चुके हैं ! दोपहर बाद से आ रही आतिशबाजी और ढोल नगाड़ों की आवाजें कुछ कम हो गई हैं।लेकिन फिर भी रुक रुक कर पटाखे अपना अस्तित्व खत्म होने का अहसास करा रहे हैं।बीच बीच में नारे भी गूंज रहे हैं।लेकिन उनके शब्द साफ नही हैं। वैसे इस बस्ती के लिए यह कोई नई बात नहीं है।यहां अक्सर यह सब होता रहता है।मुझे लगता है कि जब इस बस्ती की नीव डाली जा रही होगी तब ऊपर वाले ने इसकी कुण्डली में ऐसा कुछ लिख दिया होगा कि न तो इस बस्ती के सभी वाशिंदे एक साथ खुश होंगे और न दुखी!सबके अपने अपने अपने सुख और अपने अपने दुख होंगे ! 
                      आज भी ऐसा ही कुछ है।आज राज्य का नया मंत्रिमंडल बना है।जश्न का माहौल है।यह स्वाभाविक भी है।लेकिन इस बस्ती में खुशी घर देख कर आई है।एक घर में जश्न है तो दूसरे घर में सन्नाटा पसरा है।आप इसे मातम भी कह सकते हैं।जबकि सिर्फ एक दिन पहले ये सब घर एक जैसे मूड में थे।सबके दरबाजों पर कयासों की महफिल थी।लेकिन सब अपने अपने भीतर ही घुसे हुए थे। आज सब बदल गया है। पहले सड़क के इस पार की बात करते हैं।करीब सौ मीटर की इस लाइन में दोनों कोनो पर जश्न चल रहा है।एक कोने वाले बंगले में तो कुछ दिन पहले ही जश्न ने डेरा डाल लिया था। दूसरे कोने वाले में तब से ही अंदेशे का आलम था।आज वह खत्म हो गया है।अब जश्न ही जश्न!आतिशबाजी और नारेबाजी के बीच भीड़ में इस बात की प्रतिस्पर्धा भी चल रही है कि पहले कौन मंत्री जी को अपना चेहरा दिखाए!मंत्री जी भी गदगद हैं।हारों से लदे अपने कंधों पर उन्होंने आज शालीनता का मोटा लबादा भी ओढ़ रखा है।
                   इन दोनों कोनो के बीच एक मकान ऐसा भी है जो खुद को नए साथियों की आमद के लिए तैयार कर रहा है।वहां सन्नाटा तो काफी पहले ही पसर गया था।लेकिन आज वह कुछ ज्यादा गहरा दिखाई दे रहा है।सुना है कि इस मकान पर काबिज रहे नेता जी अब "भूत" हो गए हैं।उनके क्षेत्र की जनता ने उन्हें अपने पास ही रख लिया है।इसलिए दोनो कोनो की जगमगाहट के बीच यह मकान सन्नाटे और अंधकार में डूबा है। सड़क के दूसरी पार भी ऐसा ही माहौल है।एक मकान के हिस्से में बहुत दिन बाद "सत्ता " आई है।हालांकि उसने लंबे समय तक हर तरह की सत्ता का सुख भोगा था लेकिन कुछ साल से सत्ता के साथ रहकर भी वह उससे बहुत दूर था।आज सत्ता का सूखा दूर हुआ है।इसलिए जम कर जश्न मनाया जा रहा है।धूम धड़ाका और नारेबाजी के बीच यह मकान नाच रहा सा लगता है।
                  लेकिन इसके ठीक बगल वाला मकान बहुत उदास है।सबसे अहम बात यह है कि पड़ोसी को उसकी उदासी से कोई लेना देना ही नहीं है।वह अपनी मस्ती में मगन है। इस मकान को लगता है कि उसके सामने से भरी थाली खींच ली गई है।बस कुछ दिन पहले तक तो सत्ता की चाबी यहीं रहती थी।इस बार भी उम्मीद यही थी कि छत पर लगी लाल बत्ती और आंगन में खड़ा तिरंगे वाला पोल, पहले जैसे ही रहेंगे।लेकिन यह मकान जीत कर भी हार गया है।सुना है कि जाति के गणित ने उसके वाशिंदे को सत्ता के दरवाजे से वापस लौटा दिया है।फिलहाल यह मकान बेरौनक ही रहेगा।साथ ही कुछ खाली खाली भी।
 इसी मकान के साथ वाले दो मकान एक अलग तरह के तनाव में हैं।थोड़े खुश हैं कि वे अब आबाद होने जा रहे हैं।लेकिन उनके माथे पर स्थाई रूप से "भूत" का बिल्ला चिपक गया है।एक मकान का तो पुनर्जन्म हुआ है इसलिए उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है।लेकिन दूसरे को मालूम है कि अब उसे किस दौर से गुजरना है।
                  इसी लाइन के एक और मकान में तो सुनामी के बाद जैसा सन्नाटा है।कुछ घंटे में ही सब कुछ बदल गया है।कहां तो उम्मीद थी कि अब वह सत्ता का नया केंद्र बनेगा और कहां जो कुछ था वह भी लुट गया।इसके वाशिंदे को जबरन "सन्यास मार्ग" पर ढकेल दिया गया है।गुरु की भविष्यवाणी भी गलत साबित हो गई है। जरा सा आगे बढ़े तो ऐसा महसूस हुआ कि जिस किसी ने भी सुख और दुख को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया होगा ,उसने भी ऐसा उदाहरण नही देखा  या सोचा होगा।आमने सामने के दो मकान!एक में ऐसा माहौल जैसे कि पानीपत की कठिन लड़ाई जीती गई हो! और दूसरा..वह बेचारा रोशनी को तरस रहा है।कुछ महीने पहले ही तो उसमें रौनक आई थी।उसे मंत्री निवास का दर्जा मिला था। कम समय में ही उसे खूब चमकाया गया था।हालांकि उसे इस बात का भी अहसास था कि मंत्री और उसका साथ ज्यादा दिन का नही है।लेकिन उसने ख्वाब में भी यह नहीं सोचा था कि मंत्री जी के क्षेत्र की जनता ही उन्हें "औरंगजेब" बना देगी!अब पता नही कौन आएगा?उसे दुख इस बात का ज्यादा है कि उसके पड़ोसी को उसके गम का अहसास तक नही है।वह अपने में मगन है।लेकिन यही तो इस बस्ती की नियति है।यहां सब भीड़ में अकेले हैं। रौनक भी मकान बदलती रहती है।
                 और भी कई मकानों का यही आलम है।कहीं खुशी तो कहीं गम!लेकिन आज खुशी को गम की कतई परवाह नही है।आज तो उसी का जलवा है।पर उसे कौन समझाए उसका गम से गहरा नाता है।उसे या तो गम की जगह मिलती है या फिर गम उसकी जगह ले लेता है।रही आतिशबाजी की बात..खुद को फना करके दूसरों को खुशी देना ही उसकी फितरत है!किसी भी हाल में उसे तो आग को गले लगाना ही होता है।यह अलग बात है कि कभी कभी उसकी आग दूसरों के भीतर एक न बुझने वाली आग पैदा कर देती है।
मशहूर शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा था...

मेरे सीने में नही तेरे सीने में सही..
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए..
अगर आज वे होते तो इस आग के बारे में भी जरूर कुछ कहते जो एक तरफ तो आसमान तक जा रही है और दूसरी तरफ इतने गहरे में सुलग रही है कि उसका धुंआ भी बाहर नहीं आ पा रहा है!वह भी इस डर से कि अगर इस आग का अहसास भी निजाम को हो गया तो वह उसका वजूद ही मिटा देगा।वे आग चाहते थे..आज आग को दफन करने की जुगत खोजी जा रही है।
 इस जमाने का यह नया दस्तूर है...आग को सीने के अलावा हर जगह रहने की इजाजत है।अगर किसी सीने में मिली तो वह सीना ही जमीदोज कर दिया जाएगा!!! सीने में आग जलाने मौसम अब शायद बदल सा गया है।अब वह आग को सीने तक न पहुंचने देने का स्कूल चला रहा है।
आतिशबाजी थम है...हम भी सो जाते हैं ! अब जागते हुए सोने की आदत डालनी होगी !!!!

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