विश्लेषण..... कांग्रेस की नहीं, यह कमलनाथ, दिग्विजय की जोड़ी की शिकस्त
दिनेश निगम 'त्यागी',वरिष्ठ पत्रकार
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को अब अपने दिमाग से यह गलतफहमी निकाल देना चाहिए कि 2018 में उनकी वजह से कांग्रेस सत्ता की दहलीज तक पहुंची थी। यदि ऐसा होता तो 2023 के इस चुनाव में कांग्रेस को इतनी बड़ी पराजय का सामना न करना पड़ता। आखिर यह चुनाव मुख्यमंत्री के तौर पर उनका चेहरा सामने कर लड़ा गया। पूरे चुनाव के दौरान उनके हमकदम रहे वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह। इन दोनों की मर्जी से ही टिकट बांटे गए। प्रचार अभियान के दौरान भी ये दोनों चेहरे ही सामने थे। ये दोनों 75 की आयु सीमा पार कर चुके हैं, फिर भी इन्होंने किसी अन्य नेता को आगे नहीं आने दिया। लोगों में मैसेज था कि कांग्रेेस सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री कमलनाथ होंगे और सरकार दिग्विजय चलाएंगे। इस मैसेज के कारण जनता ने अपना फैसला दे दिया। इसीलिए चुनाव में कांग्रेस नहीं, बल्कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी को शिकस्त मिली है।
सच लगने लगा अरुण यादव का कथन
पिछले चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई थी क्योंकि कांग्रेस ने सामूहिक नेतृत्व को सामने रखकर चुनाव लड़ा था। कमलनाथ के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी ज्योतिरादित्य सिंधिया थे। पहले से तय नहीं था कि जीत के बाद कौन मुख्यमंत्री बनेगा। बाजी कमलनाथ मार ले गए थे। भाजपा सरकार के खिलाफ पूरे चार साल तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव एवं तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने संघर्ष किया था। इस चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति देखकर पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव का वह कथन सच लगने लगा है, जो उन्होंने 2018 के बाद कई बार कहा। अरुण का कहना था कि 'प्रदेश अध्यक्ष रहते मेरे कार्यकाल में कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भाजपा सरकार के खिलाफ संघर्ष किया। लाठी- डंडे खाए। जेल की यात्रा की। हमारा लगाया यह पौधा फल देने लायक हुआ तो खाने के लिए कमलनाथ भेज दिए गए।' उनके कहने का आशय था कि 'फसल हमने बोई और काटने कोई और आ गया।'
नेता प्रतिपक्ष तक की नहीं थी कोई हैसियत
पिछले चुनाव के बाद सत्ता में आने के बाद से यह मैसेज था कि कमलनाथ सारी शक्तियां अपने पास तक सीमित रखना चाहते हैं। मुख्यमंत्री बन गए फिर भी प्रदेश अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ना चाहते थे। सत्ता हाथ से चली गई तब प्रदेश अध्यक्ष के साथ नेता प्रतिपक्ष भी बने रहना चाहते थे। लंबी जद्दोजहद के बाद वे नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ने के लिए राजी हुए थे। वरिष्ठ नेता डॉ गोविंद सिंह नेता प्रतिपक्ष तो बन गए लेकिन कमलनाथ के सामने उनकी कोई हैसियत नहीं थी। पार्टी के किसी निर्णय में वे भागीदार नहीं थे। टिकट वितरण में उनके सुझाव को हवा में उड़ा दिया गया था। जबकि प्रदेश अध्यक्ष को सारे निर्णय नेता प्रतिपक्ष के साथ मिलकर लेना चाहिए थे। निर्णयों में कोई भागीदार था तो सिर्फ दिग्विजय सिंह।
नहीं थी अजय, अरुण, भूरिया की पूछपरख
पिछड़े वर्ग के बड़े नेता अरुण यादव चार साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। अजय सिंह को दो बार नेता प्रतिपक्ष रहने का अवसर मिला है। प्रदेश में कांग्रेस का आदिवासी चेहरा कांतिलाल भूरिया भी प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। इनके अलावा सेकेंड लाइन के कई प्रभावशाली नेता पार्टी में हैं लेकिन कमलनाथ-दिग्विजय की जोड़ी ने किसी को भरोसे में लेने की कोशिश नहीं की। अपने रवैए के कारण ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह पहले ही पार्टी छोड़ने को मजबूर कर चुके थे। अजय सिंह और अरुण यादव के साथ भी कमलनाथ का छत्तीस का आंकड़ा बना रहा। कभी इन्हें साथ बैठा कर चुनाव की रणनीति नहीं बनाई गई। नतीजा बुरी पराजय के रूप में सामने है। अलबत्ता एक और बुजुर्ग नेता सुरेश पचौरी जरूरी कमलनाथ के साथ नजर आए।
क्या यह नैतिक जिम्मेदारी लेने का समय नहीं
इतनी बड़ी पराजय के बाद क्या यह नैतिक तौर पर हार की जिम्मेदारी लेने का समय नहीं है? क्या कमलनाथ को तत्काल पद से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए? चुनाव में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का प्रदर्शन भी गौर करने लायक है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है जबकि कमलनाथ उनसे एक तिहाई से भी कम वोटों के अंतर से जीते। दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह चाचौड़ा से चुनाव हार गए और बेटा जयवर्धन सिंह बमुश्किल लगभग 5 हजार वोटों से चुनाव जीत पाया। जबकि चाचौड़ा और राघौगढ़ को दिग्विजय का गढ़ माना जाता है। डॉ गोविंद सिंह, केपी सिंह, जीतू पटवारी, सुरेंद्र चौधरी जैसे दिग्विजय के समर्थक भी चुनाव हार गए। इसलिए भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा, कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी की हार हुई है। इस जोड़ी को अब प्रदेश कांग्रेस नए हाथों को सौंप देना चाहिए।
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