क्या ये चुनाव सामान्य व्यक्ति ने लड़ा ?
निरुक्त भार्गव,वरिष्ठ पत्रकार
राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों की तमाम कवायद और रस्साकशियों के बीच क्या इस बार मध्य प्रदेश राज्य विधानसभा के चुनाव स्पष्ट जनादेश देंगे? दोनों ही परंपरागत प्रतिस्पर्धी दलों कांग्रेस और भाजपा के नित नए दावों और कलाबाजियों के मध्य क्या आम लोगों से जुड़े मुद्दे परिणाम के लिहाज से निर्णायक बनने जा रहे हैं? चुनाव की घोषणा के ऐन पहले और अपने-अपने प्रत्याशी तय करने की प्रक्रिया के दौरान सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों ने जो-जो चालें चलीं, क्या उन्हीं के बरक्स चीज़ें सामने आने वाली हैं? कौन-से कौन से मुद्दे रहे जिन्होंने मतदाताओं को खूब मथा? कौन-सी परिस्थितियां बनीं जिनके वशीभूत जनसाधारण ने अपने प्रतिनिधि चुनने का इरादा किया? और इन सबके दरम्यान वो कौन-सी चूक थीं, जो रिज़ल्ट की दृष्टि से भारी पड़ने वाली हैं?
चुनावी जानकारों, विभिन्न एजेंसियों के सर्वेक्षणों और प्रिंट/इलेक्ट्रॉनिक/डिजिटल समाचार माध्यमों में काम करने वाले फील्ड रिपोर्टर्स के साथ-ही प्रमुख विश्लेषकों द्वारा अपनी-अपनी बात, राय, तथ्य, लेख इत्यादि लगातार पेश और प्रकट किए जा रहे हैं. इससे नेता नगरी ही नहीं, अपितु बड़े जनसमूह और यहां तक की नौकरशाहों में भी बेहद खलबली मची हुई है. मतदान और मतगणना के बीच एक पखवाड़े का गैप होने के कारण तथा राजस्थान व तेलंगाना राज्य विधानसभाओं के निर्वाचन भी साथ-साथ होने के कारण सबमें रोमांच बना हुआ है, चुनावी चकल्लसबाजी को लेकर. ये बात अलग है कि जिन मठाधीशों के पास लोगों से मिलने का समय नहीं हुआ करता, वो भी इन दिनों निगाहें गड़ाए हुए हैं आने वाली परिस्थितियों पर. कई तो ये कहते हुए भी सुने गए हैं कि सब-कुछ अनुकूल होगा, लेकिन स्वयं प्रतिकूल की आशंका में नए समीकरण बैठाने की जुगत में भी भिड़े हुए हैं!
‘लाड़ली बहना’ के इम्पैक्ट को लेकर जो धारणाएं बनाने की कोशिश की गई हैं, वो सटीक बैठती हैं तो मानकर चलिए कि भाजपा 130 सीट जीतकर फिर से सरकार बनाने जा रही है! इसमें भी कोई संशय नहीं रहेगा कि शिवराज सिंह चौहान पुन: मुख्यमंत्री की शपथ लें! ये मामला इस वजह से महत्वपूर्ण हो चला है कि शिवराज जी और उनके विश्वस्त लोगों ने पूरा कैंपेन लाड़ली बहना पर ही फोकस किया. और अगर ये लाभान्वितों और उनके परिवारों तक घर कर गया तो चमत्कार हो जाएगा! वो यूं कि पार्टी की 18 से भी अधिक साल की सरकार, उसके मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ जो उबाल था जनता में, उसको बड़े पैमाने पर डाइवर्ट कर दिया गया!
अगर इतने गुडी-गुडी फैक्टर मध्य प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में हैं या ऐसा होना प्रदर्शित किए जा रहे हैं, तो समीपवर्ती राजस्थान में भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो जाना चाहिए? वहां तो कांग्रेस की सरकार पांच वर्ष से ही सत्ता में है: शांत, अनुभवी और चतुर-सुजान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जो पांसे रणभूमि में फेंके, चुनाव से पहले, शिवराज जी तो उसकी कॉपी भी नहीं कर पाए! उस सूबे में तो समस्त नारी शक्ति को धन और समस्त नागरिक परिवारों को किफायती रसोई गैस देने के उपक्रम लागू कर दिए गए! इतना ही नहीं तो 25 लाख रुपए तक के उपचार की व्यवस्था और रियायती दरों पर हर जरूरतमंद इंसान को भरपेट पौष्टिक भोजन भी मुहैया करवाना शुरू कर दिया गया!
चुनावी बेला में उज्जैन शहर में दो प्रमुख स्थानों पर भाजपा के दिग्गजों की सभाएं हुईं: प्रचार अभियान की शुरूआत में देश के सर्वेसर्वा नंबर दो और गृह मंत्री अमित शाह शहीद पार्क पर जिले की सातों विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशियों के पक्ष में वोट मांगते नज़र आए. अपने भाषण में उन्होंने कोई 25 मिनट तक दहाड़ लगाई, पर लाड़ली लक्ष्मी योजना के विस्तार में जाना उचित नहीं समझा! इसके उलट, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रचार बंद होते-होते मालीपुरा में हांफते-हांफते एक प्रत्याशी का पक्ष समर्थन किया. करीब 13 मिनट के भाषण में अधिकांश क्षण और पल उन्होंने लड़की-बहना-मामा-वर्तमान-भविष्य के सरोकारों तक केन्द्रित किए. एक मार्मिक गुहार लगाई, खुद-को सीएम की कुर्सी पर बैठाए रखने के निमित्त! ये तथ्य सबके सामने आ चुका है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित उनके इर्द-गिर्द के सिपहसालारों ने तक लाड़ली बहना योजना जैसे अमोघ अस्त्र को चलाने और भुनाने से गुरेज़ किया!
आज भी किसी को ये समझ नहीं आ रहा है कि शिवराज जी की सर्व-स्पर्शी और मर्म-स्पर्शी छवि को जन-जन तक पहुंचाने को किन आधारों पर और किसकी सलाह पर दरकिनार कर दिया गया? व्यापक तौर पर प्रचारित किए गए लोक सूचना फलकों पर तीन बार के सीएम को छोटे-छोटे कबीलों के सरदारों की बराबरी पर क्यों लाकर खड़ा कर दिया गया? क्या केन्द्रीय नेतृत्व को इस बात का इल्म नहीं था कि हिमाचल प्रदेश, पंजाब और कर्नाटक राज्यों के विधानसभा चुनावों में मोदी जी के ऐतिहासिक कार्यों और कद्दावर शख्सियत को प्रोजेक्ट करने के जतन सुखद नहीं रहे थे! मध्य प्रदेश में भाजपा शासित सरकार के विरुद्ध प्रचलित जनभावनाओं की काट के लिए केन्द्रीय नेतृत्व अपना कद विधाता के समक्ष दिखाने की भूल क्यों कर बैठा? उसने अपने शक्तिशाली क्षत्रपों को क्यों फंसवा दिया, चुनाव लड़ने के लिए? भ्रष्ट-दुष्ट मंत्रियों और बार-बार टिकट की जुगाड़ करने में सिद्धहस्थ हो चुके अलोकप्रिय विधायकों को कौन-से सर्वे की बिना पर फिर से उतार दिया गया मैदान में?
फिर से उल्लेख कर रहा हूं कि कांग्रेस पार्टी की चर्चा करना और उसका हित-संवर्धन करना राख में घी कुढ़ेलने के समान है! ऐसा कहने के पीछे कोई द्वेष नहीं है! सन 1930 से 2014 तक पार्टी ने दिल्ली में और राज्यों में सत्ता का स्वाद जमकर चखा और फिर बदहजमी की भी शिकार हुई! आज हालात क्या हैं: जेल जाने के डर से उनकी भी पूछ-परख हो रही है जिन्हें कालांतर में आस्तीन का सांप बताया जाता था! बहरहाल, इसे नसों में एक तीखा चुभता इंजेक्शन माना जाए कि कांग्रेस के दिन फिरने वाले हैं! निर्णायक दिन यानी 03 दिसम्बर को यदि समाचार माध्यमों का फोकस कमल नाथ, दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा आदि-आदि की कसीदें पढ़ने में लग जाए, तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश में आगामी सूरत-ऐ-हाल क्या होने जा रहा है! इन्हीं शख्सियतों के गुणगान करते हुए आगामी आम चुनाव का नैरेटिव भी सेट किया जाने लगेगा!
स्वस्थ लोकतंत्र और मजबूत चुनावी प्रणाली और इन सबसे संबद्ध परम्पराओं का ये तकाज़ा है कि नेतृत्व खूब फले-फूले! शायद, इस बार 230 सीटों पर एक-एक मत डालते हुए मतदाताओं ने अपनी ही बुद्धि और पसंद से अपने विधायक को प्रतिनिधित्व के लिए सेलेक्ट करने की जिजीविषा दिखाई है! और अगर वाकई तमाम प्रलोभनों, दबावों, प्रभावों और कारगुजारियों के बावजूद इतनी भारी संख्या में जनादेश देने निकली थी अवाम, तो इसे एक नई और शुभ पहल माना जाएगा...!!!