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वोटरों की कतार में कुछ देर खड़े रहकर लोकतंत्र के बारे में सोचते हुए


ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार

वोटरों की लम्बी कतार में खड़ा होकर आखिर क्या करता? तो अपने लोकतंत्र के बारे में ही सोचने लगा। आगे-पीछे खड़े कुछ मतदाताओं की खुसुर-पुसुर से यह अंदाज़ भी लगता रहा कि अब एक पार्टी प्रतिबद्ध वोटर भी पैदा हो गया है। बीते समय में ऐसा नहीं था। चुनाव के पहले खूब आमसभाएं होती थीं। सभी दलों के नेतागण घर- घर जाकर जनसम्पर्क करते थे। वे खूब जाने-पहचाने और बहुत करीब के लगते थे। उनके दामन पर दाग़ नहीं दिखते थे। हम उनकी बात सुनकर सहज रूप से तय करते थे कि किसे चुनना चाहिए। 

वे ऐसे नेता थे जो जनता का मन जीतते रहते थे। राह चलते मिल जायें तो सबकी बात सुनते थे और शिकायत दूर करने के उपाय भी करते थे। उनमें सादगी खूब थी, वे सजावटी नहीं थे। वे किसी भी दल के हों उनका पहनावा खादी का ही होता था। कोई भी जीते-हारे पर हर राजनीतिक दल के बीच सद्भाव बना रहता था। वे मिलकर देशहित के बारे में सोच सकते थे। उनकी रुचि केवल सत्ता पाने में नहीं, लोकतंत्र के सत्य को बचाये रखने में भी थी।

अब ज़माना बदल गया है। नेता जनता से दूर खड़े दिखायी देते हैं। खूब सज-संवरकर मीडिया चैनलों के स्क्रीन पर ऐसे दिखते हैं जैसे वोटरों के बाज़ार में जनमत की बोली लगाकर उसे मनमाने दाम पर खरीदने आये हों --- कोई पांच सौ की बोली लगाता है तो दूसरा हजार रुपये की। देखने में आया है कि इस चुनाव में जनकल्याण की ओट में छिपकर वोटर से रिश्तेदारी निभाने के नाम पर ( जो कि चुनाव की आचार संहिता के विरुद्ध है) राजकोष के धन से वोट की बोली तीन हजार रुपये तक जा पहुंची। 

मैं सोचने लगा कि जो लोग लोकतंत्र के पक्ष में मत का दान करने इस कतार में घण्टों से खड़े हैं क्या वे अपना वोट भी बेच सकते हैं? क्या वे मतदान की सुबह होने से पहले रात के अंधेरे में मुफ़्त साड़ियां और पैसे लेकर वोट देने आये होंगे? क्या वे अपनी जाति, मज़हब और सम्प्रदाय के लोगों को चुनेंगे या लोकतंत्र में सद्भाव, समृद्धि, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा के विकास के लिए अपने मत का दान करेंगे? पुरखे कह गये हैं कि अपना स्वार्थ साधने के लिए किये गये दान का कोई फल नहीं मिलता। लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को मतदान का अधिकार केवल अपना तात्कालिक हित साधने के लिए  नहीं, सबका दीर्घकालिक हित साधने के लिए दिया गया है

आजकल सोशल मीडिया और टीवी चैनलों का तो धन्धा ही यही रह गया है कि वे चुनाव से पहले ही मतदाताओं के मन में मज़हबी पाखण्ड और जात-पांत के बिखराव की इतनी गा़ठें लगा दें कि मतदान का दिन उगने तक वोटरों की बस्तियों में भ्रमों और मुफ़्त लालच का अंधेरा फैला रहे और प्रत्येक वोटर लोकहित को भूलकर अपने ही लालच के पक्ष में वोट देने को बाध्य हो जाये। चुनाव से पहले झूठी हार-जीत के सर्वेक्षण दिखाकर और जनमत को विभेदकारी बहसों में इतना उलझाकर रखा जाये कि जनता अपना प्रतिनिधि चुनने का विवेक ही खो दे।

जो लोग इस आपाधापी और कनफोड़ शोर में भी अपने चुनने का विवेक नहीं खोते, वे अब भी अपना प्रतिनिधि चुनने की कामना से भरकर मतदान की कतारों में खड़े होते होंगे पर उनके सामने सबसे बड़ी समस्या विकल्प की है। कहने का मन होता है कि --- लोगो, सब दल एक समान। हर दल में ज़्यादातर अब तक दोष सिद्ध न हो पाये चुनावी लड़वैया ही मैदान में खड़े दिखायी देते हैं। जिसके पास इफरात पैसा और बाहुबल नहीं है, वह तो चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। चुनाव अब विचारधारा के आधार पर नहीं, एक-दूसरे को नीचा दिखाकर कुतर्कों से भरे प्रचार का भयानक शोर मचाकर जीते जाते हैं।

मतदान करके घर लौटते हुए लोगों के चेहरों की ओर देखकर लगता है कि वे अपना मत देकर संतुष्ट नहीं हैं। बस अपने वोटर होने का लोकाचार भर निभा रहे हैं। वे मन ही मन अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी दल की हो वही सरकार बनेगी जो अब तक बनती आयी है। जीवन में कुछ नहीं बदलेगा। बस कुछ लोग बदलेंगे और एक-दूसरे से बदला लेने में पांच साल गंवा देंगे।

फिर वही चुनाव परिणाम आने वाले हैं जिनसे लोकतंत्र में सबके जीवन के फूलने-फलने की बहुत उम्मीद नहीं बांधी जा सकती। क्या कोई नये विकल्प के बारे में सोच रहा होगा?

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