खेल, युद्ध और राजनीतिक मैदानों में तमाशा देखने वालों की जीत और हार
ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार
पिछले डेढ़ महीने से जो लोग क्रिकेट के विश्व कप की जीत का खेल देख रहे हैं उनमें ज़्यादातर क्रिकेट के खिलाड़ी नहीं है। वे सिर्फ़ दर्शक ही तो हैं। रोज़ दो टीमें अपने देश के झण्डे फहराती और राष्ट्रगीत गाती मैदान में आती हैं जो एक बहुत बड़े वैश्विक खेल व्यापार का हिस्सा हैं। बल्लेबाज़ और गेंद फेंकने वाले रोज़ बढ़-चढ़कर अपना कमाल दिखाते हैं। इसी के आधार पर आई पी एल नाम के क्रिकेट व्यापार में उनकी बोली लगती है। वे करोड़ों रुपयों में बिकते हैं। इस खेल और इसके खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपयों का सट्टा खेला जाता है। यह तमाशा देखने वाले लाखों लोग खिलाड़ियों की जीत-हार को अपनी और अपने देश की जीत-हार क्यों मान लेते हैं?
पिछले डेढ़ महीने से इजराइल और गाज़ा पट्टी के बीच भयानक युद्ध चल रहा है। इस युद्ध के मैदान में यहूदी और फिलस्तीनी बच्चे, बूढ़े, जवान और उनकी माताएं-बहनें बेरहमी से मारी जा रही हैं। पर इतनी बड़ी दुनिया में जो लोग यह क्रूर तमाशा देख रहे हैं उनमें कोई इजराइल का पक्ष ले रहा है और कोई गाज़ा का। जो लोग आवाज़ उठा रहे हैं कि यह युद्ध ही बंद होना चाहिए, उनकी अपील कोई सुन नहीं रहा। जो शक्तियां मानवीय सहायता भेज रही हैं, वे ही किसी एक का पक्ष लेकर युद्ध के लिए उकसा रही हैं, हथियार भी मुहैया करवा रही हैं। हथियारों के व्यापार से लाभ कमाने के लिए उकसाये जाने वाले युद्धों का तमाशा देखने वाले लोग किसी देश के बर्बरों की जीत और हार को अपनी जीत-हार क्यों मान लेते हैं?
पिछले डेढ़ महीने से देश में कुछ विधान सभाओं के चुनाव चल रहे हैं। छोटे-बड़े राजनीतिक दल जनमत को लूटकर अपनी विजय के लिए जनता पर टूटे पड़ रहे हैं। एक दल तो ऐसा है जो किसी बड़ी राजनीतिक कम्पनी की तरह जात-पांत में बंटे सब छोटे-छोटे वोट शेयर खरीदकर एकमात्र विजेता बन जाना चाहता है। वह हर दल के जीतने वालों को भी अपने लिए खरीदकर सब को हरा देने की हवस पाले हुए है। यह तमाशा देखने वाले लोग इस राजनीतिक जीत-हार के खुले सत्ता व्यापार में अपना वोट लुटाकर भी इसे अपनी जीत-हार क्यों मान रहे हैं?
लोग क्यों नहीं समझ पा रहे कि खेल, युद्ध और राजनीति में जीत का नाटक लोगों को हराने के लिए ही रचा जाता है। बार-बार यह नाटक इतनी चतुराई से पेश किया जाता है कि लोग खिलाड़ियों, बर्बरों और नेताओं की जीत-हार को अपनी जीत-हार मानकर जीवन गुजारते रहें और वे इस नाटक से बाहर न आ सकें। पापुलर मुम्बईया फिल्मों में भी नायकत्व का स्थान खिलाड़ी, बर्बर और नेता --- इसी त्रिमूर्ति ने ग्रहण कर लिया है। जीवन विरोधी व्यापारिक मीडिया और फिल्मों ने अपने स्क्रीन पर खेल और चुनाव को युद्ध में तो बदल ही दिया है। लोग अब घर बैठे ही खिलाड़ियों, बर्बरों और नेताओं की जीत को अपनी जीत मानकर हारते चले जा रहे हैं।