आनलाइन मोक्ष के लिए सड़ी सुपारी में देवताओं का आवाहन करते लोग
ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार
पिछले दस वर्षों में सबसे अधिक विकास पूजा-सामग्री की दूकानों का हुआ है। शहर के हर मुहल्ले में कई दूकानें खुल गयी हैं। जहां हवन के लिए लकड़ी का बुरादा मिला हुआ नकली साकल्य बिकता है। उसकी आहुति देने पर घर में धुआं भर जाता है। उसमें वे औषधियां ही नहीं होतीं जिनकी सुगंध से पर्यावरण की शुद्धि का आश्वासन वैदिक काल से दिया जा रहा है।
इन दूकानों पर साकल्य में मिलाने वाला घी पतञ्जलि के नाम पर चलने वाली बेहिसाब दूकान से काफ़ी सस्ता होता है तो उसके मिलावटी होने से कौन इंकार करेगा। खाने का तेल महंगा है और दीपावली पर दीप जलाकर दिखाने का तेल सस्ता है। पूजा में सुपारियों का इस्तेमाल बहुत होता है। घर में पूरे गये चौक पर सारे देवता और नवग्रह सुपारियों के रूप में ही विराजते हैं। ये सब सुपारियां भीतर से इतनी सड़ी होती हैं कि इन्हें देवता तो क्या, ख़ुद पूजा करने वाले नहीं खा सकते।
पूर्वज जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गङ्गाजली में भरकर गङ्गाजल ले आते थे। वह सारे कुटुम्ब के काम आता था। अब पूजा सामग्री की दूकानों पर गङ्गाजल बेचा जाता है। उसका बिल बनता है तो उस पर कुछ टेक्स भी लगता होगा। पहले के लोग अपनी उम्र के चौथेपन में कुछ दिन शान्त चित्त होने के लिए तीर्थों में जाते थे और एक सादी-सी रामनामी ओढ़कर लौट आते थे। पर अब तो रामनामी का धंधा भी जोरों पर है। मंदिर का द्वार आने के पहले पूजा-सामग्री की दूकानें श्रद्धालुओं का पीछा करने लगती हैं। दूकानदार भारी दबाव बनाकर पूजा-सामग्री के बिना मंदिर जाने के मार्ग में बाधा डालते हैं। प्रसाद के रूप में बिकने वाली बेस्वाद मिठाइयों पर भिनकने वाली मक्खियों की तरह भक्तों के कानों पर आकर भिनभिनाते हैं।
पिछले दस वर्षों में खूब खुलती चली आयी पूजा-सामग्री की दूकानों के साथ जहां-तहां संस्कृत-शिक्षा के नाम पर खुले अनुदानखोर स्कूलों में पूजा-पद्धति की अधकचरी शिक्षा पाकर बने पुजारियों का व्यावसायिक समझौता भी साफ़ दिखता है। घर-घर पूजा करवाने वाले पुजारियों का व्यावसायिक लोभ इसी से जाहिर है कि वे नकली साकल्य और घी से आहुति दिलाकर और सड़ी सुपारी के रूप में आहूत देवताओं की पूजा अपने यजमान से करवाकर उसे ठगते हैं। अब तो ये पुजारी खुद मंत्र नहीं पढ़ते, मोबाइल में रिकार्डिंग बजाते हैं।
इन दिनों भारत में बेसुरे और अर्थहीन शोर से भरे भजनों की सीडियां बिकने का धंधा अपने चरम पर है। जब हृदय कंपा देने वाले कानफोड़ डीजे साउण्ड पर 'माता का बुलावा' घनघनाता है तो मन ही मन सोचता हूं कि जब हम ही चैन से नहीं रह सकते तो देवता कैसे रहते होंगे ? पिछले दस वर्षों में पूजा का विकास सत्ता लोलुप राजनीतिक शोर के बीच हुआ है। देवताओं के नाम पर वोट मांगे जाने लगे हैं। नये-नये देवलोक बसाये जा रहे हैं। दर्शन की कीमत लेकर देवता आनलाइन दर्शन देने लगे हैं। प्रकृति में बसे देवत्व से दूर होते जाते जीवन का आनलाइन मोक्ष हो रहा है।
दादा जी की याद आती है। अपने बचपन के दिनों में उनसे एक बार पूछा कि हम पूजा क्यों करते हैं? तो वे बोले--- कि पूजा करके हम अपनी प्रकृति से जुड़ते हैं क्योंकि सारे देवताओं का घर प्रकृति ही है। वे ही हमें अन्न,जल और वस्त्र देते हैं। देवता इस बहुत बड़े जीवन के साधन हैं। वे हमारे आसपास नदी, पर्वत और वनों में ही तो रहते हैं। वे वृक्षों जैसे हैं। हम इन्हीं देवताओं से थोड़े-से फूल-फल इन्हीं की पूजा के लिए घर लाकर कहते हैं कि --- तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा। सुरुचिपूर्ण पूजा हमें केवल इतना सिखाती है कि हम प्रकृति के पास रहकर अपने देवताओं की उन्नति करते रहें। उनसे केवल अपनी ज़रूरत की चीजें लें और बाकी सबके लिए छोड़ दें। क्योंकि केवल हम ही नहीं हुए हैं, हमारे पीछे जीवन चला आ रहा है।
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