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पराली जलाने के पाप से बचने का उपाय: हाथों में हंसिए की वापसी


ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार

हरित क्रांति के नाम पर भारत की खेती की ज़मीन जोतने, बीज बोने और फ़सल काटने के लिए मशीनों के हवाले की जाती रही है। इस पाप में पिछले पचास साल से राजनीति और बाज़ार शामिल रहे हैं। देश के ज़मींदार  किसानों ने इसे स्वीकार करके खूब कमाई की है और ज़मीनों में ज़हरीले खाद डालकर उन्हें बांझ बनाने में भी कोई संकोच नहीं किया है। सरकारें रासायनिक खाद पर सब्सिडी के लिए खजाना खाली करती रहीं, आज भी कर रही हैं। अब पारंपरिक आर्गेनिक खेती का बड़े किसानों के साथ सौदा करके बाज़ार ही उसे लाभ के धंधे में बदल रहा है। आज भी छोटे किसानों के दुख किसी को नहीं दिख रहे। उन्हें दी जाने वाली ख़ैरात को सम्मान निधि ज़रूर कहा जा रहा है।

इससे पहले देश के किसान बैलों और हल का उपयोग जोतने-बोने में करते थे। गोधन से खूब गोबर खाद उपलब्ध होती थी जो खेतों को सहज ही उर्वर बनाये रखती थी। जब फ़सल पक जाती थी तो पूरे देश में गांव-गांव से अपने हंसिए लेकर फ़सल काटने वाले हज़ारों लोग खेतों में फैल जाते थे। हाथों में थमें हंसिए की ख़ासियत है कि वह गेंहूं की फ़सलों को जड़ के बहुत करीब से काटता है। ज़मीन पर बड़े डण्ठल छूटते ही नहीं और हज़ारों हाथों को काम भी मिलता है और खूब भूसा पैदा होता है जो अनेक पालतू-दुधारू पशुओं की भूख बुझाता है। आजकल बाज़ार ने पशु आहार को भी धंधा बना लिया है।  जब मशीनें फ़सल काटती हैं तो बड़े-डण्ठल खेतों में छोड़ देती हैं। ये डण्ठल ही तो पराली हैं जिन्हें जलाकर ज़मीन अगली फ़सल के लिए तैयार करना पड़ती है। 

पराली जलाने से ज़मीन की सतह पर रहकर उसे उर्वर बनाने वाले तत्व, कीड़े और बैक्टीरिया भी जलकर मर जाते हैं। इसीलिए ज़मीन ज़्यादा खाद-पानी मांगती है। कुल मिलाकर मशीनों से होने वाली फ़सल कटाई ही पराली के पाप की जड़ है। बड़े किसान आज भी खेतों पर हंसिए की वापसी का संकल्प लेकर हज़ारों हाथों को काम दे सकते हैं और पराली जलाकर प्रदूषण फैलाने के पाप से बच सकते हैं। फिर देश की राजधानी का दम भी घुटने से बच सकता है।

मुझे याद है कि हमारी पुश्तैनी ज़मीन पर फ़सल काटने वाले लोग अपने हंसिए लेकर आते थे। वे खेतों के करीब ही डेरा डाल लेते। वहीं बैगन का भुरता और गक्कड़ बनाकर खाते। उनका पूरा परिवार ही फ़सल कटैया की भूमिका निभाकर रोजी कमाता था। खेत कटाई के समय गिर गयी गेंहूं की बालें बीन लेता था। उनके हाथ और हंसिए उनके साल भर के भोजन का इंतज़ाम कर लेते थे। काश हमारी सरकारें और किसान खेती की भलाई के इस रास्ते पर फिर लौट सकें। खेतों को सदियों से बैलों के गले में बंधी घण्टियों की आवाज़ ही अच्छी लगती रही है। वे मशीनों की खड़-खड़ सुनकर ऊब गये हैं। पराली के साथ खेतों की जलती हुई उर्वर माटी की पीड़ा को कोई समझ क्यों नहीं रहा?

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