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मप्र विधानसभा चुनाव- भाजपा की चिंता मतदान कम न हो


ना काहू से बैर

राघवेंद्र सिंह,वरिष्ठ पत्रकार

                मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर जबरदस्त कश्मकशपूर्ण माहौल है। सबसे ज्यादा चिंता भाजपा शिविर में कम मतदान की आशंका  है। मतदान प्रतिशत घटा तो भाजपा सत्ता से और भी दूर हुई समझो। भाजपा वोटर पार्टी नेताओं की करनी कथनी से पहले दुखी था फिर असन्तुष्ट हुआ और अब वह बहुत नाराज है। उसकी उपेक्षा को संगठन के साथ संघ परिवार ने भी अनदेखा यह सोच कर किया कि ये तो उसके ही वोट हैं कहां जाएंगे ? पहले बहुत से नोटा में गए और अब उनकी नाराजी मतदान के प्रति उदासीनता की है। भाजपा कार्यकर्ता बीस साल से बेईमान, रिश्वतखोर और हिंदुत्व से भटकती सरकार व ऐशोआराम में डूबे संगठन के खिलाफ गुस्से से भरा है। इससे मतदान कम होगा। ऐसे में भाजपा की नैया पार होना कठिन है।
               बात 2018 की है। तब करीब 75 फीसदी मतदान हुआ था। फिर भी भाजपा सत्ता से 109 विधायक पर ही आकर अटक गई थी। दरअसल भाजपा विरोधी वोट भरपूर मतदान करते हैं इसके विपरीत भाजपा समर्थक हतोत्साहित हैं। कांग्रेस 114 विधायकों के साथ सरकार में थी। इस दफा पहले से ही गड़बड़ चल रही भाजपा में जब से केंद्रीय नेतृत्व में कमान संभाली है हालात बेहतर होने के बजाय बिगड़ते ज्यादा दिख रहे हैं। दिल्ली और उसके नेता अभी तक तो ज्यादा असरदार नही हो रहे हैं। भाजपा का किचिन पहले से खराब हो रहा था आलाकमान के नए रसोइयों के आने के बाद खाना और बिगड़ रहा है। सरकार के बाद संगठन ने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की अब कार्यकर्ताओं की बारी है। उसकी उदासीनता और बेरुखी पार्टी को खाए जा रही है। ऐसे में मतदान का प्रतिशत कम हुआ तो संकेत अच्छे नही हैं। पहले लगता था कि पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के सक्रिय होने पर माहौल एकदम बदल जाएगा मगर अभी तो ऐसा होता नही दिख रहा है। जानकार पहले से ही कह रहे थे यहां कार्यकर्ता आधारित संगठन है और एक बार उसका दिल टूटा तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। 
                मप्र में भाजपा सरकार संगठन और संघ परिवार सब के सब इस बात से चिंतित है कि जिले, मंडल से लेकर बूथ और पन्ना प्रभारी के कार्यकर्ता किधर हैं? उन्हें धरती खा गई या आसमान निगल गया... जैसे जैसे मतदान की तारीख नजदीक आ रही है इस मुद्दे पर विधानसभा वार चुनाव प्रबंधकों की चिंता बढ़ती जा रही है। बूथ और पन्ना प्रभारी के मामले में जमीनी स्तर पर मैदान साफ है। कार्यकर्ता गायब हैं। केंद्रीय नेतृत्व को छोड़ इसके संकेत पिछले 4 सालों से अंधे को दिखाई और बहरे को सुनाई पड़ रहे थे। नगर निगम चुनाव में तो सबको पता था की वार्ड स्तर पर भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय नहीं है। छोटे चुनाव थे फिर भी अधिकांश वार्डों में न तो उम्मीदवारों ने घर-घर संपर्क किया और ना ही कार्यकर्ताओं ने डोर टू डोर मतदान पर्चियां वितरित की। जब इसका बवाल मचा तो मीडिया स्तर पर मैनेज कर यह दावे किए गए कि पन्ना प्रबन्धन के मामले में मप्र भाजपा देश भर में अव्वल है। अब चुनाव में कलई खुल रही है । डेमेज कंट्रोल के लिए वक्त ही नही बचा। पिछले कुछ चुनाव से संगठन, विचारधारा का वास्ता और अनुशासन की दुहाई देकर कार्यकर्ताओं को पोट पुचकार लिया जाता था। उनसे कहा जाता इस बार प्रतिष्ठा बचा दो आगे सबका ध्यान रखा जाएगा। याने कद्दू कटेगा तो सब मे बंटेगा। अलग बात है कि वक्त निकलने के बाद वादे पूरे होना भी कम होते होते बंद होने लगे। फिर भी वफादारों से हथेली पर सरसों जमा करा ली जाती थी। इसके बाद फिर वही उपेक्षा का दौर शुरू हो जाता। 
                   लेकिन सरकार की धमक और संगठन की पुरानी साख के चलते कुछ नतीजे अच्छे आ गए। बावजूद इसके संगठन और सरकार जगे नहीं। तब यह कहा जा रहा था कि विधानसभा चुनाव में पार्टी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। अब जो हालात हैं उसने सबकी हवाइयां उड़ा रखी है। 

भाजपा में क्षत्रपों कमजोर करने के संकेत...
                   भाजपा में कल तक जो नेता सूबेदार बने घूमते थे अब उन्हें गली-गली वोट मांगने के लिए चुनाव मैदान में उतार दिया है। उनके कार्यकर्ता और जनता के बीच किरकिरी हो रही है जनता से लंबे समय से उनका संपर्क काम था ऐसे में चुनाव जीतना मुश्किल भले ना हो लेकिन कठिन हो गया। भाजपा नेतृत्व के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि यह नागिन की तरह है जो अपने अंडों को ही खा जाती है पहले 25 साल एक प्रखर कार्यकर्ता को नेता बनाया जाता है और बाद में उसे ही कभी एक झटके में तो कभी धीरे-धीरे खत्म भी कर दिया जाता है। 2018 के बाद कार्यकर्ताओं को संस्कारित करने का काम लगभग कमजोर पड़ गया और कारपोरेट सेक्टर के कल्चर पर पार्टी चल पड़ी।अब उसी के दुष्परिणाम विधानसभा चुनाव में पार्टी उम्मीदवारों को महसूस हो रहे हैं।

भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और उनके परिवार...
                प्रदेश में भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और उनके परिवारों की हालत राजनीतिक रूप से अच्छी नहीं है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह जबलपुर विधानसभा में चुनाव मैदान में संघर्ष कर रहे हैं। दूसरी तरफ पूर्व अध्यक्षों में सत्यनारायण जटिया जो की संसदीय बोर्ड के सदस्य हैं उनके पुत्र को टिकट नहीं मिला इसी तरह प्रभात झा अपने बेटे को टिकट नहीं दिला सके इतना ही नहीं प्रदेश अध्यक्ष रहे स्वर्गीय नंद कुमार सिंह चौहान को कहा जाता था निमाड़ की नैया नंदू भैया। सांसद रहे नंदू भैया के पुत्र को बुरहानपुर से टिकट नहीं मिला वह बाग उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव मैदान में है। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी को भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल होना पड़ा। इस तरह के मामले में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भाजपा की तुलना में ज्यादा बेहतर स्थिति में है उनके परिवार जनों को भी पार्टी में तवज्जो दी है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह और कमलनाथ के पुत्र सांसद और विधायक हैं। सुभाष यादव और कांतिलाल भूरिया के पुत्रों को भी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाया है।

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